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Mushaira-tahreer(Ghazal)-200

ग़ज़ल अर्ज़ किया है- बाग़पैरा क्या करे गुल ही न माने बात जब शम्स का रुत्बा नहीं कुछ, हो गई हो रात जब //१ बाँध देना गाँठ में तुम गाँव की आबोहवा शह्र के नक्शे क़दम पर चल पड़ें देहात जब //२ दोस्त मंसूबा बनाऊं मैं भी तुझसे वस्ल का तोड़ दें तेरी हया को मेरे इक़दामात जब //३ इक किरन सी फूटने को आ गई बामे उफ़ुक़ रौशनी की जुस्तजू में खो गये ज़ुल्मात जब //४ देखिए फिर से समंदर अब्र कब पैदा करे आसमां में क्या मिले वो हो चुकी बरसात जब //५ किसलिए बीते दिनों की हाय तौबा कीजिए हाल में ख़ुद हों नुमायाँ माज़ी के असरात जब //६ करवटें कर लीजे अपनी लुत्फ़े फ़र्दा की तरफ़ ख्व़ाब में आके डराए चेहरा-ए-माफ़ात जब //७ क्या करें घोड़े पियादे, क्या करें अब फ़ील भी खा चुके शतरंज की बाज़ी में शह और मात जब //८ है हमारी ज़िंदगानी गर्दिशे अय्याम सी वस्ल का इम्काँ भी क्या, हों हिज्र में दिन रात जब //९ ख़ुद में पैदा कीजिए इक कैफ़ियत तस्लीम की शौक़-ए-दिल का साथ ना दें बेवफ़ा हालात जब //१० आ भी जा आग़ोश में, लग जा हमारे सीने से कर न तू वादा खिलाफ़ी हो गई है बात जब //११ हो इशाअत हम पे भी नज़रे इनायत हुस्न की 'राज़' की हाज़िर जवाबी से मिटें ख़द्शात जब //१२ باغ پیرا کیا کرے گل ہی نہ مانع بات جب شمس کا رتبہ نہیں کچھ، ہو گئی ہو رات جب //١ باندھ دینا گانٹھ میں تم گاؤں کی آب و ہوا شہر کے نقشے قدم پر چل پڑیں دیہات جب //٢ دوست منصوبہ بناؤں میں بھی تجھ سے وصل کا توڑ دیں تیری حیا کو میرے اقدامات جب //٣ اک کرن سی پھوٹنے کو آ گئی بامے افق روشنی کی جستجو میں کھو گئے ظلمات جب //٤ دیکھیے پھر سے سمندر ابر کب پیدا کرے آسماں میں کیا ملے وہ ہو چکی برسات جب //٥ کس لئے بیتے دنوں کی ہائے توبا کیجئے حال میں خود ہوں نمایاں ماضی کے اثرات جب //٦ کروٹیں کر لیجے اپنی لتفے فردا کی طرف کھواب میں آکے ڈرائے چہرۂ مافات جب //٧ کیا کریں گھوڑے پیادے، کیا کریں اب فیل بھی کھا چکے شطرنج کی بازی میں شہ اور مات جب //٨ ہے ہماری زندگانی گردشے ایام سی وصل کا امکاں بھی کیا، ہوں ہجر میں دن رات جب //٩ خود میں پیدا کیجئے اک کیفیت تسلیم کی شوق دل کا ساتھ نا دیں بےوفا حالات جب //١٠ آ بھی جا آغوش میں، لگ جا ہمارے سینہ سے کر نہ تو وعدہ خلافی ہو گئی ہے بات جب //١١ ہو اشاعت ہم پے بھی نظر عنایت حسن کی شاعر) शब्दार्थ- ------------ बाग़पैरा- माली, बाग़ की देखभाल करने वाला; शम्स- सूर्य; वस्ल- मिलन; इक्दामात- अग्रसरता, पहल; बामे उफ़ुक़- क्षितिज के छज्जे पर; जुस्तजू- तलाश; ज़ुल्मात- अँधेरे; अब्र- बादल; नुमायाँ- प्रकट; माज़ी- अतीत; असरात- असर का बहुवचन; लुत्फे फ़र्दा- आने वाला कल का आनद; माफ़ात- जो व्यतीत हो हो; गर्दिशे अय्याम- दिन रात का चक्कर; कैफ़ियत- मन की हर्षित दशा; तस्लीम- स्वीकार करना; इम्काँ- संभावना; तस्लीम- स्वीकार करना; इशाअत- प्रकटन; ख़द्शात- शंकाएँ

Ghazal-199

एक ग़ज़ल- सभ्यता की बज़्म से जिसको निकाला जाएगा, उससे अपना दर्द फिर कैसे सँभाला जाएग। काम जनहित का अगर कुछ हो सका तुमसे कहीं, देख लेना दूर तक उसका उजाला जाएगा। जानता हूँ दर्द ही अक्सर मुझे उनसे मिले, माँगते मासूम बनकर वो, न टाला जाएगा। आस्था, विश्वास का है भार इतना सोच पर, लग रहा है आदमी सांचों में ढाला जाएगा। रंग भी निखरेंगे इसके रूप भी दमकेगा ख़ूब, ख़्वाब को 'maahir' तो पहले दिल में पाला जाएगा।

Ghazal-198

सुप्रभात! प्रस्तुत है एक ग़ज़ल सभी चाहें हैं औरों में, महज़ इक़रार की सोचें, किसी को भी कहाँ भातीं कभी इंकार की सोचें। मुसलसल हो रही हैं कम, यहाँ परिवार की सोचें, घरों को बाँटती रहतीं हैं बस दीवार की सोचें। समेटे वो सभी कुछ, ये रहीं ज़रदार की सोचें, ज़माने को बड़ा करती रहीं फ़नकार की सोचें। सियासत में ग़रीबी भी रही बस वोट का जरिया, ग़रीबों के भले की कब रहीं सरकार की सोचें। ग़रीबी और बेकारी पे सोचा तो यही पाया, हुईं तूफ़ान के जैसी यहाँ पतवार की सोचें। समस्या का नहीं मिलता कभी भी हल झगड़ने से, खड़े जो इस तरफ़, वो भी ज़रा उस पार की सोचें। यही होता रहा यारो हमेशा से ज़माने में, सदा हारीं हैं 'maahir' ढाल से, तलवार की सोचें। -

Ghazal-197

ग़ज़ल- पंथ कहते ख़त्म कर दो मन की जो भी कामना है, मैं कहूँ अपवाद इस में, लोकहित की भावना है। ज्ञान का उद्देश्य है बस सूक्ष्म में तो मात्र इतना, क्या सही है, क्या ग़लत है, बस यही तो जानना है। क्या सही है क्या ग़लत है जानना आसान कितना, सर्वहित की भावना ही सत्य की प्रस्तावना है। ज़िन्दगी में वह उचित है जो सभी के हित में हो बस, हाँ इसी इक भाव को ही आप-हम को थामना है। कामना से जग बना है, कामना से चल रहा ये, सब फलें-फूलें निरंतर, मेरे मन की कामना है। रम रहा कण-कण में है भगवान यदि कहते हो तुम तो, सबको हो अवसर बराबर क्या ग़लत ये मानना है ? दूसरों की कीमतों पे लाभ ख़ुद का चाहते वो,

Ghazaj-196

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- मुझे इस बात का शिकवा बहुत है, हुआ मरना भी अब महँगा बहुत है। मिला जो दर्द मुझको इश्क़ में वो, कसकता है, मगर अच्छा बहुत है। ज़रूरत जब पड़ी, वो व्यस्त थे कुछ, मुझे इस बात का सदमा बहुत है। ख़यालों में वो इक चेहरा बसा है, जिसे देखा नहीं, सोचा बहुत है। वो मेरा था, रहेगा बस मेरा ही, किया जिसने हमें रुसवा बहुत है। उसे नफ़रत हुई अब आईने से, दिखा जब भी, लगा झटका बहुत है।

Ghazal-195

एक ग़ज़ल- सभ्यता की बज़्म से जिसको निकाला जाएगा, उससे अपना दर्द फिर कैसे सँभाला जाएग। काम जनहित का अगर कुछ हो सका तुमसे कहीं, देख लेना दूर तक उसका उजाला जाएगा। जानता हूँ दर्द ही अक्सर मुझे उनसे मिले, माँगते मासूम बनकर वो, न टाला जाएगा। आस्था, विश्वास का है भार इतना सोच पर, लग रहा है आदमी सांचों में ढाला जाएगा। रंग भी निखरेंगे इसके रूप भी दमकेगा ख़ूब, ख़्वाब को 'maahir' तो पहले दिल में पाला जाएगा।

Ghazal-194

एक ग़ज़ल- सभ्यता की बज़्म से जिसको निकाला जाएगा, उससे अपना दर्द फिर कैसे सँभाला जाएग। काम जनहित का अगर कुछ हो सका तुमसे कहीं, देख लेना दूर तक उसका उजाला जाएगा। जानता हूँ दर्द ही अक्सर मुझे उनसे मिले, माँगते मासूम बनकर वो, न टाला जाएगा। आस्था, विश्वास का है भार इतना सोच पर, लग रहा है आदमी सांचों में ढाला जाएगा। रंग भी निखरेंगे इसके रूप भी दमकेगा ख़ूब, ख़्वाब को 'maahir' तो पहले दिल में पाला जाएगा।

Ghazal-193

ग़ज़ल- पंथ कहते ख़त्म कर दो मन की जो भी कामना है, मैं कहूँ अपवाद इस में, लोकहित की भावना है। ज्ञान का उद्देश्य है बस सूक्ष्म में तो मात्र इतना, क्या सही है, क्या ग़लत है, बस यही तो जानना है। क्या सही है क्या ग़लत है जानना आसान कितना, सर्वहित की भावना ही सत्य की प्रस्तावना है। ज़िन्दगी में वह उचित है जो सभी के हित में हो बस, हाँ इसी इक भाव को ही आप-हम को थामना है। कामना से जग बना है, कामना से चल रहा ये, सब फलें-फूलें निरंतर, मेरे मन की कामना है। रम रहा कण-कण में है भगवान यदि कहते हो तुम तो, सबको हो अवसर बराबर क्या ग़लत ये मानना है ? दूसरों की कीमतों पे लाभ ख़ुद का चाहते वो, कष्ट की यारो यही तो जान लो प्रस्तावना है। हो रहा है सांस लेना आज जो दूभर यहाँ पर, स्वार्थगत कामों का प्रतिफल देख लो कुहरा घना है।

Ghazal-192

ग़ज़ल- ज़हर वो घोला किए, घोला किए, लोग बस देखा किए, देखा किए। काम कुछ जन कर रहे हैं रात-दिन, शेष बस सोचा किए, सोचा किए। जिस तरफ वो छोड़ के हमको गए, हम उधर देखा किए, देखा किए। लोग उकता के तो जाने भी लगे, गीत वो गाया किए, गाया किए। अर्थ सारे गुम हुए अल्फ़ाज़ के, और वो, बोला किए, बोला किए। देश कुछ दिन-रात उन्नति कर रहे, वक़्त हम जाया किए, जाया किए।

Ghazal-191

ग़ज़ल- कौन होता है किसी का ? वास्ता सब से सभी का। आइने में साफ़ दिखता, एक कारण त्रासदी का। मानते कानून को वो, वाकिया है किस सदी का ? बंधुता, आजादी, समता, वक़्त है क्या मसखरी का ? कष्ट में भी ढूँढ लें सुख, फ़लसफा है ज़िन्दगी का। कौन कीमत दे सका है, आँख की यारो नमी का। दुश्मनी से जान पाए, क्या है ‘’ क़द किसी का। फ़लसफा=दर्शन, Philosophy

Ghazal-190

ग़ज़ल- तब वो थे दीवाने कितने? अब देते हैं ताने कितने? सच की ख़ातिर, सोचो अब तक, जान दिए फ़र्जाने कितने? फ़र्जाना=बुद्धिमान दावा करते मुल्ला-पंडित, सच्चाई पहचाने कितने? जो अंदर भी, उसे ढूँढते, बाहर-बाहर जाने कितने? अब तक ढूँढे से मिल पाए, मेरे-से दीवाने कितने? भक्त बने फिरते जो, इनमें, बात इष्ट की माने कितने? कुछ के भाषण से ही सोचो, जान गँवाते जाने कितने?

Ghazal-189

ग़ज़ल दोस्तो, मिर्ज़ा ग़ालिब साहिब के 227 वें जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ. ईश्वर उनकी आत्मा को बुलंद मक़ाम अता करे. बतौर ख़राज-ए-'अक़ीदत पेश-ए-ख़िदमत है उनकी ज़मीन पर कही गयी मेरी ये ग़ज़ल जिसे मैंने बस अभी कभी लिखा है. ग़ालिब साहब की मशहूर ग़ज़ल भी पोस्ट में दी गई है. अर्ज़ किया है- वो तो रूठी है, घर नहीं आती उसकी कोई ख़बर नहीं आती //1 क्या यही है विकास गाँवों का बिजली क्यों रात भर नहीं आती //2 जाना पड़ता है उसके मसदर तक चल के ख़ुद ही डगर नहीं आती //3 उसकी फ़ितरत है बेवफ़ाई की वादा करती है, पर नहीं आती //4 वक़्त तो हो चुका है सोने का नींद हमको मगर नहीं आती //5 वो पहाड़न चली गयी शायद कुछ दिनों से इधर नहीं आती //6 '' रस्म-ए-वफ़ा बदलने की कोई सूरत नज़र नहीं आती //7 وہ تو روٹھی ہے، گھر نہیں آتی اسکی کوئی خبر نہیں آتی //1 کیا یہی ہے وکاس گاؤوں کا بجلی کیوں رات بھر نہیں آتی //2 جانا پڑتا ہے اسکے مسدر تک چل کے خود ہی ڈگر نہیں آتی //3 اسکی فطرت ہے بیوفائی کی وعدہ کرتی ہے، پر نہیں آتی //4 وقت تو ہو چکا ہے سونے کا نیند ہم کو مگر نہیں آتی //5 وہ پہاڑن چلی گئی شاید کچھ دنوں سے ادھر نہیں آتی //6 'راز' رسم وفا بدلنے کی کوئی صورت نظر نہیں آتی //7 #राज़_नवादवी®

Ghazal-188

ग़ज़ल- जब मिलें हम मुस्कुराना चाहिए, दर्दोग़म सब भूल जाना चाहिए। शायरी का जन्म होता आह से, चाह से इसको सजाना चाहिए। जानने को जग है, इस पर भी ग़ज़ब, खुद को जानें, तो ज़माना चाहिए। ज़िंदगी में ख़ुद-ब-ख़ुद बढ़ते हैं ग़म, कर के कोशिश ग़म भुलाना चाहिए। देख कर कोशिश तुम्हारे काम की, हर कली को मुस्कुराना चाहिए। टूट जाते हैं ग़लतफ़हमी से ये, ध्यान से रिश्ते निभाना चाहिए। हम भी तो हैं नागरिक इस देश के, हम को भी अच्छा ज़माना चाहिए।

Ghazal-187

ग़ज़ल_غزل: १६२ ------------------------- 2122-2122-2122-212 इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। #दुष्यंत_कुमार दोस्तो, आज हिंदी जगत के महान ग़ज़लकार श्री दुष्यन्त कुमार साहिब की 45 वीं पुण्यतिथि है। इस मौके पर मैं उन्हें उन्हीं की ज़मीन पर लिखी अपनी इस ग़ज़ल के साथ श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ। अर्ज़ किया है- #बात_वो_करती_नहीं_पर_मुझसे_शर्माती_तो_है #हम_जला_लेंगे_दिये_में_तेल_और_बाती_तो_है بات وہ کرتی نہیں پر مجھ سے شرماتی تو ہے ہم جلا لیں گے دیئے میں تیل اور باتیں تو ہیں//۱ आओ हम सूबे की उनसे मुश्किलें कहने चलें ये सड़क यारो नई दिल्ली तलक जाती तो है //२ آؤ ہم صوبے کی ان سے مشکلیں کہنے چلیں یہ سڑک یارو نئی دلی تلک جاتی تو ہے//۲ हो भी सकता है डराने लोग उसके आए हों आदमी उसके मुहल्ले का ख़ुराफ़ाती तो है //३ ہو بھی سکتا ہے ڈرانے لوگ اس کے آئے ہوں آدمی اس کے محلے کا خرافاتی تو ہے//۳ उनकी लड़की है कुँवारी अब तलक तो क्या हुआ उनका भी कहना सही है, मसअला ज़ाती तो है //४ ان کی لڑکی ہے کنواری عب تلک تو کیا ہؤا ان کا بھی کہنا صحیح ہے، مسئلہ ذاتی تو ہے//۴ है अगर दूल्हा जो रूठा, और दूल्हा देख लें घर पे मण्डप, बैंड, बाजा, और बाराती तो है //५ ہے اگر دُولھا جو روٹھا, اور دُولھا دیکھ لیں گھر پے منٹ منڈپ، بینڈ باجا، اور باراتی تو ہے//۵ रहने दो गुलशन कहाँ हम जाएँगे बीवी मेरी तितलियों के साथ मुझको देख चिल्लाती तो है //६ رہنے دو گلشن کہا ہم جائیں گے بیوی میری تتلیوں کے ساتھ مجھ کو دیکھ چلاتی تو ہے//۶ मैंने माना अब कोई रिश्ता नहीं है आपसे आपके देखे से दिल में सूई चुभ जाती तो है //७ میں نے مانا اب کوئی رشتہ نہیں ہے آپ سے آپ کے دیکھے سے دل میں سوئی چبھ جاتی تو ہے//۷ कुछ तो उसके दिल में भी पंगा है यारो इश्क़ का मेरे खिड़की पे बुलाने से वो आ जाती तो है //८ کچھ تو اس کے دل میں بھی بنگاہے یارو عشق کا میرے کھڑکی پہ بلانے سے وہ آ جاتی تو ہے//۸ हो असर उसपे 'नवादा' की रविश का क्यों नहीं 'राज़' कुछ कुछ मामलों में अब भी देहाती तो है //९ وہ اثر اس پہ نوازا کی روش کا کیوں نہیں راز کچھ کچھ معاملوں میں اب بھی دیہاتی تو ہے//۹ #सूबा- राज्य, प्रदेश, रियासत #ख़ुराफ़ाती- ख़ुराफ़ात करने वाला, उपद्रवी #मसअला- समस्या, मुद्दआ #ज़ाती- व्यक्तिगत, पर्सनल #गुलशन- फूलों की बगिया, वाटिका #नवादा- बिहार का वो शह्र जहाँ मैं पैदा और बड़ा हुआ #रविश- अंदाज़, मिज़ाज, तरीका, चाल चलन, अचार व्यवहार देहाती- गाँव देहात का, गँवार

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति (13)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति क्व आत्मन:दर्शनम् तस्य यस्य दृष्टम् अवलम्बते। धीरा:तम् तम् न पश्यन्ति पश्यन्ति आत्मानम् अव्ययम्॥४०॥ उसको आत्मदर्शन सम्भव कहाँ जो दृश्य पर आश्रित सदा धीर पुरुष दृश्य को न देख कर केवल अव्यय आत्म को ही देखता॥४०॥ क्व निरोधो विमूढस्य य:निर्बन्धम् करोति वै। स्वारामस्य धीरस्य सर्वदा असौ एव अकृत्रिम:॥४१॥ अज्ञानी सतत् प्रयत्न करते भी मन को एकाग्र कर पाता कहाँ? पर अपने में रमे ज्ञानी का मन बिना किसी चेष्टा के स्वयं ही रमा रहता आत्म में॥४१॥ भावस्य भावक:कश्चित् न किंचित् भावक:अपर: उभय अभाव:कश्चित् एवम् एव निराकुल:॥४२॥ कोई कहता संसार सत्य है दूजे कौ भासता असत्य और मिथ्या। पर नि:संशयी जानकर दोनों को मिथ्या शान्त-चित्त हो रहता॥४२॥

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति-(12)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति मूढ:न आप्नोति तत् ब्रह्म यत:भवितुम् इच्छति। अनिच्छन् अपि धीर:हि परब्रह्मस्वरूप भाक् ॥३७॥ स्वयं ब्रह्म होने की इच्छा वाला मूढ़ नहीं प्राप्त होता ब्रह्मन् को। धीर पुरुष अनइच्छित ही हो जाता है परब्रह्ममय॥३७॥ निराधार:ग्रहव्यग्रा: मूढ़ा:संसारपोषका: एतस्य अनर्थमूलस्य मूलच्छेद:कृत:बुधै:॥३८॥ आधार-विहीन ब्रह्म को पाने को रहते व्यग्र परन्तु ये मूढ़ केवल साधते संसार को। इस सब अनर्थ के मूल संसार को जानकर इसके मूल को ही काटते हैं चतुर जन॥३८॥ न शान्तिम् लभते मूढ: यत:शमितुम् इच्छति। धीर:तत्वम् विनिश्चित्य सर्वदा शान्तमानस:॥३९॥ शान्ति चाहने वाला मूरख नहीं शान्त हो पाता जीवन भर। तत्त्व जानकर के ज्ञानी सदा शान्त-मन हो रहता॥३९॥

Ghazal-186

ग़ज़ल- जिनसे बच के नींद में जाने लगे, वो सवाल अब ख़्वाब में आने लगे। अब नज़र कैसे चुराएं उन से हम, जो सवाल अब रोज़ धमकाने लगे। जब समझ आने लगे हैं फ़लसफ़े, जो सगे बनते थे बेगाने लगे। जा चुकीं कितनी ही जानें सोच लो, सच के रस्ते पे जो तुम जाने लगे। आज कल ग़म और कम खाना भला, राज़ सेहत के समझ आने लगे। जब वो जाने,काम आ सकता नहीं, दोस्त कुछ मुझसे भी कतराने लगे। बात आई जब उसूलों की कभी, टूटने कुछ ख़ास याराने लगे।

Ghazal-185

ग़ज़ल- ए आई दौर में जज़्बे बचाना सीख लो साहिब, ज़रा इंसानियत से दिल लगाना सीख लो साहिब। कड़ी मेहनत से पाया है ज़माने में मुकाम ऊँचा, अहम् को भी ज़रा अपने झुकाना सीख लो साहिब। दिलाई थी क़सम तुमने न रक्खें राब्ता तुम से, मेरे ख़्वाबों में भी तुम अब न आना सीख लो साहिब। बुरा गर वक़्त आया तो तज़ारिब काम आएंगे, ज़रा मिल-बाँट के जीवन चलाना सीख लो साहिब। वो करते वह भी हैं जिससे कि वो इंकार करते हैं, सही अनुमान लहजों से लगाना सीख लो साहिब। तजुर्बा है मेरा ये काम होता है इबादत सा, किसी रोते हुए जन को हँसाना सीख लो साहिब। 'वही’ का आसमानों से तो अब आना न है मुमकिन, जहां अपने तजारिब से सजाना सीख लो साहिब। ए आई = आर्टिफिशल इंटेलिजेंस, जज़्बा=भाव, गर=यदि, मुकाम=स्थान, अना=अहंकार, वही=आदमी को सही रास्ता दिखाने वाली आसमानी किताब, तजारिब= तजुर्बे का बहुवचन, तजुर्बात, तजुर्बों

Ghazal-184

ग़ज़ल हुआ जब शेर कोई अनकहा-सा, लगा लम्हा वो मैंंने जी लिया-सा। कमी मेरी बताता जब भी कोई, मुझे वो टोकना लगता दुआ-सा। मेरे आशिक़ की ये ज़िंदादिली है, मिला हर बार पहली मर्तबा-सा। हुआ वर्षों पुराना इश्क़ अपना, लगे है वाकिया हो हालिया-सा किया है इश्क़ इतनी सादगी से, कभी लगता मुझे वो बेवफ़ा-सा। न बोले देर तक आपस में वो पर, लगा हर लम्हा जैसे बोलता-सा। नहीं जो कह सका, वो वक़्त ए रुख़सत, दिखा लब पे कहीं सहमा हुआ-सा।

Ghazal-183

ग़ज़ल- भला इंसांनियत का चाहती हो, ज़ुबां पे आज बस वो शायरी हो। सुने जो भी, लगे उसको कि जैसे, ग़ज़ल में बात उसकी ही कही हो। ख़ुदा से बस मेरी ये इल्तिज़ा है, न मुश्किल में किसी की ज़िन्दगी हो। मेरी कोशिश यही है दोस्तो बस, हर इक की ज़िन्दगी में रोशनी हो। हुआ है इश्क़ जब से, बस ये चाहा, तेरी ख़ुशियों से ही मुझको ख़ुशी हो। सियासत देख के कहता है दिल ये, ग़ज़ल अब जो लिखूँ वो आग - सी हो। सुनेगा ग़ौर से तुमको ज़माना, तुम्हारी बात में कुछ बात भी हो।

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति-(8)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति कृतम् देहेन कर्म इदम् न मया शुद्धरूपिणा। इति चिन्तानुरोधी य: कुर्वन् अपि करोति न ॥२५॥ (जो रखता विचार यह मन में) कि कर्म होते केवल देह से न कि शुद्ध अन्त:करण से ऐसा सोचने वाला कर्म को करता हुआ भी करता नहीं है कर्म को॥२५॥ अतद्वादीव कुरुते न भवेत् अपि बालिश:। जीवन्मुक्त : सुखी श्रीमान् संसरन् अपि शोभते॥२६॥ जीवन्मुक्त के लिए सब कार्य करते हुए भी करना नहीं बनता। ऐसा व्यक्ति संसार के व्यापार में सुखी श्रीमान होकर शोभता॥२६॥ नानाविचारसुश्रान्त: धीर:विश्रान्तिम् आगत: न कल्पते न जानाति न श्रृणोति न पश्यत॥२७॥ धीर पुरुष नाना विचारों को सुनकर विश्रांति को पाता सदा। व्यर्थ में न वह विचारता न जानता,न सुनता,न देखता॥२७॥

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति (10)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति निर्ध्यातुं चेष्टितुम् वापि यत् चित्तम् न प्रवर्तते। निर्निमित्तम् इदम् किन्तु नि:ध्यायति विचेष्टते ॥३१॥ समाधि अथवा कर्म में निज चेष्टा से प्रवृत्त होता नहीं मन में न रख कोई निमित्त समाधि और कर्म में सदैव रहता निरत॥३१॥ तत्त्वम् यथार्थम् आकर्ण्य मन्द:प्राप्नोति मूढताम्। अथवा याति संकोचम् अमूढ:कोऽपि मूढवत्॥३२॥ तत्त्व के यथार्थ को सुनकर मंद-बुद्धि आचरण करता मूढ सा। अन्य बुध:तत्त्व को सुनकर संकोचवश मूढ सा है दीखता॥३२॥ एकाग्रता निरोधो वा मूढ़ा:अभ्यस्यते भृशम् । धीरा:कृत्यम् न पश्यन्ति सुप्तवत् स्वपदे स्थिता:॥३३॥ अज्ञानी लगे रहते मन की एकाग्रता और ध्यान के अभ्यास में पर ज्ञानी कुछ भी न करता दीखता सुप्त सा दीखते भी आत्म में स्थित रहता सदा॥३३॥

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति (11)

अष्टावक्र संहिता. अध्याय XVIII:शान्ति अप्रयत्नात् प्रयत्नात् वा मूढ़ा : न आप्नोति निर्वृत्तिम् । तत्त्वनिश्चयमात्रेण प्राण : भवति निर्वृत्त : ॥३४॥ सब कुछ छोड़ कर बैठने अथवा सक्रिय प्रयत्न करने पर भी अज्ञानी को शान्ति मिलती नहीं । परंतु तत्त्व-निश्चय मात्र से ज्ञानी प्रसन्न हो जाता तुरंत ॥३४॥ शुद्धम् बुद्धम् प्रियम् पूर्णम् निष्प्रपंचम् निरामयम् । आत्मानम् तम् न जानन्ति तत्र अभ्यासपरा जना : ॥३५॥ शुद्ध बुद्ब प्रिय पूर्ण निष्प्रपंच अकलुष आत्म को न जानकर करते अनेक अभ्यास अज्ञानी इस संसार में ३५॥ न आप्नोति कर्मणा मोक्षम् विमूढ : अभ्यासरूपिणा । धन्य : विज्ञानमात्रेण मुक्त : तिष्ठति अविक्रय : ॥३६॥ अज्ञानी मात्र कर्म के अभ्यास से मोक्ष पाता है नहीं । ज्ञानी निश्चल हो विज्ञान मात्र से मुक्त होता:धन्य है ॥३६॥

अध्याय XVIII : शान्ति (9)

अष्टावक्र संहिता ; अध्याय XVIII : शान्ति असमाधे अविक्षेपात् न मुमुक्षु : न च इतर : । निश्चित्य कल्पितम् पश्यन् ब्रह्म एव आस्ते महाशय : ॥२८॥ न समाधि से, न भटकाव से लगाव उसका न मोक्ष का इच्छुक न संसार का । जानकर निश्चयपूर्वक इस विश्व को असत(कल्पना मात्र) ज्ञानी रहता स्थित निरन्तर ब्रह्म में ॥२८॥ यस्यान्त : स्यात् अहंकार: न करोति करोति स : । निरहंकार धीरेण न किंचित् हि कृतं कृतम् ॥२९॥ अन्तर में जिसके बसता अहंकार वह यथार्थ में न करता हुआ कर्म रहता कर्मों में निरत नित्य । पर अहंकार-रहित धीर पुरुष रत रहते भी कर्मों में रहता विरत कर्म से ॥२९॥ न उद्विग्नम् न च संतुष्टम् अकर्तृ स्पन्दवर्जितम् । निराशम् गतसंदेहम् चित्तम् मुक्तस्य राजते ॥३०॥ आशा रखता नहीं किसी से चित्त से रह संदेह-मुक्त न संतुष्ट ,न उद्विग्न होता कभी । न ही प्रसन्न होता कभी कर्म न करते हुए भी व्यर्थ चेष्टा करता नहीं ॥३०॥

Ghazal-182

ग़ज़ल- होश क़ायम रख सके जब उलझनों के दर्मियां, रास्ते मुझको मिले तब मुश्किलों के दर्मियां। जुर्रतों से जन्म पाया जुर्रतों से चल रही, ज़िन्दगी परवाज़ पाती आंंधियों के दर्मियां। ज़र्रे ज़र्रे को अलग सबसे बनाता है ख़ुदा, और कुछ सम्बन्ध रखता हरकतों के दर्मियां। क्या ग़जब का दोस्तो है इश्क़ का अंदाज़ ये, फ़ासले महसूस होते कुर्बतों के दर्मियां। वो मिलें या दूर हों मिलता कहाँ है चैन अब, राहतें किसको मिली हैं चाहतों के दर्मियां। एक को देेकर ज़ियादा,दूसरों से दोस्तो, बाप-माँ ने फूट डाली भाइयों के दर्मियां। रंग में तब भंग हो जाता है 'र' देख लो, नासमझ आ बैठते जब शायरों के दर्मियां। - र

कुत्तों की सरकार- (Hua Hai Shaah Ka Musahib...!)

जंगल मे अशिक्षा थी।जानवरों ने शिक्षा का महत्व समझ लिया,और स्कूल खोल दिया। मिलजुलकर सिलेबस तय हुआ।समानता लायी जाएगी,सबको सब कुछ सिखाया जायेगा। तो सबको सब कुछ सिखाया गया,एग्जाम हुए, िजल्ट आया।मछली तैरने में फुल मार्क्स,उड़ने दौड़ने में फेल हो गयी।पक्षी उड़ने में पास हुए,मगर तमाम कोचिंग ट्यूशन के बावजूद तैर न सके। कोयल गायन में फर्स्ट क्लास रही,और कुत्ते फेल हो गए। अब कुत्तों में बड़ा असंतोष फैला। वे अगले सत्र में भौकने को सिलेबस में रखने की मांग करने लगे। सबको बताया- "भौंकना मौलिक अधिकार है।हमारी स्वतंत्रता है।फंडामेंटल डॉगी राइट है,"बिन भौकन सब सून! क्या अब एक कुत्ता अपने ही जंगल मे भौंक भी नही सकता?? आंदोलन फैल गया,बड़ा समर्थन मिला। भौकना उत्तम कर्म होता है। न कोई सुर,न ताल,न तुक,न राग,न द्वेष। ना नियम की सीमा हो,न छंद का हो बंधन! जंगल में दर्जन भर कोयल हैं,उनको जब गाने का स्पेशल राइट मिला,तो क्या यह कोयलों का तुष्टिकरण करण नही था?उन्हें भौंकने की जिम्मेदारी क्यो नही दी गई? बताओ,बताओ ऐसे कैसे?? याने ऐसा चौक चौराहों,भजन पूजन के पंडालों में फुसफुसाकर बताया गया।कानाफूसी चहुं ओर फैल गयी। फिर टीआरपी के चक्कर मे टीवी कूदा।मीडिया में बैठे श्वानों की विभिन्न प्रजातियां भी दम खम से अपने स्पीशीज का साथ देने लगे। जो साथ न थे,उन पर कुत्तों ने हमला करके भगा दिया। अब तो कुत्ता टाइम्स, कुत्ता न्यूज, श्वान तक,और Doggy Now पर बैठे कुत्तन-कुत्तनियाँ दिन रात भौकने की महिमा का गान करते, और बुलाकर हर जानवर से पूछते- तुम वह आखिर भौकने के खिलाफ क्यूँ है? तुम्हे कुत्तों से इतनी नफरत क्यूं है? आखिर क्यूँ? क्यूँ? क्यूँ? कई बार स्टूडियो में कुत्ते ही भेड़,बकरी,मछली, मुर्गा,हिरन का भेष बनाकरआते।चैनल उन्हें स्वतंत्र विश्लेषक बताता,और खूब भौंकवाता। अथक मेहनत से आखिरकार पूरा जंगल कन्विंस हो गया।कुत्तों की सरकार बन गयी। सभी प्रमुख पदों पर कुत्ते आरूढ़ हुए। मने यूँ समझो कि कुत्ता ही वीसी हुआ,कुत्ता ही प्रिंसिपल,कुत्ता शिक्षक हुआ! और चौकीदार तो कुत्ता था ही। तो इस प्रकार सम्पूर्ण विद्यालय में कुत्तों का वर्चस्व हुआ।अब पहले मौके में सम्विधान संशोधन करके सिलेबस बदल दिया गया। नये सिलेबस में भौकना अनिवार्य तथा एकमात्र विषय था।सभी जानवर अपनी बोली छोड़ भौंक रहे थे।मगर क्या ही खाकर कुत्तों से बेहतर भौकते? अब विद्यालय में भौंकश्री,भौकभूषन,भौकरत्न के पुरस्कार बंटते है। और आश्चर्य की बात की कभी कभी मछली,पक्षी और घोड़े भी इनाम जीत जाते है,या जितवा दिये जाते हैं।इससे कुत्तों की निष्पक्षता पर यकीन बना रहता है। तो सिलेबस बदलने से बड़ा फर्क पड़ता है। हमारे देश मे भी स्कूली दिनों में विज्ञान,गणित एंटायर पोलिटिकल साइंस की किताब में छुपाकर, मस्तराम,गुलशन नंदा और वेद प्रकाश शर्मा को पढ़ने वालो ने, सुना है उन्हें सिलेबस ही बना दिया है। #कुत्तकथा

उम्र को दराज़ में रख दें! (Nazm)

उम्रदराज न बनें, उम्र को दराज़ में रख दें। खो जाएं ज़िन्दगी में, मौत का इन्तज़ार न करें! जिनको आना है आए, जिसको जाना है जाए। पर हमें जीना है, ये न भूल जाएं। जिनसे मिलता है प्यार, उनसे ही मिलें बार बार। महफिलों का शौक रखें, दोस्तों से प्यार करें! जो रिश्ते हमें समझ सकें, उन रिश्तों की कद्र करें। बंधें नहीं किसी से भी, ना किसी को बँधने पर मजबूर करें। दिल से जोड़ें हर रिश्ता, और उन रिश्तों से दिल से जुड़े रहें। हँसना अच्छा होता है पर अपनों के लिये, रोया भी करें। याद आएं कभी अपने तो, आँखें अपनी नम भी करें। ज़िन्दगी चार दिन की है, तो फिर शिकवे शिकायतें कम ही करें। उम्र को दराज़ में रख दें उम्रदराज़ न बनें !!

Ghazal-181

ग़ज़ल- ज़िन्दगी रब की इनायत है तो है, उस से कुछ हमको शिकायत है तो है। वो हैं सूरज और मैं जुगनू फ़क़त, पर अँधेरों से अदावत है तो है। ख़त्म हो जानी है जैसे भी जियो, ज़िन्दगी की ये हक़ीक़त है तो है। देखने में खोट बस नज़रों का है, कुछ न कुछ हर इक में सीरत है तो है। हो रहा मुझसे हुजूम-ए- ग़म ख़फ़ा, मुस्कुराने की जो आदत है तो है। बात हक़ की दोस्तो, कहता हूँ मैं, वो इसे कहते बग़ावत है, तो है। हम ख़यानत कर रहे हैं होश में, सादगी रब की अमानत है तो है। जुर्म कुछ तो इस वजह से भी हुए, माफ़ करना उसकी फ़ितरत है तो है। उससे ही औक़ात है हर जिन्स की, अब यही उसकी निज़ामत है तो है।

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति (8)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति असंसारस्य तु क्वापि न हर्ष:न विषादता । स:शीतलमना नित्यम् विदेह इव राजते॥२२॥ असंसारी जन के लिए हर्ष कहाँ,शोक कहाँ। वह तो सदा शीतल मन से विदेह हो विचरता इस संसार में॥२२॥ कुत्रापि न जिहासा अस्ति नाश:वा अपि न कुत्रचित् आत्मारामस्य धीरस्य शीतलाच्छतरात्मन: ॥२३॥ शीतल,शान्त,स्वच्छंद मन वाले आत्माराम के लिए न रहता कहीं कुछ त्यागने को न कहीं कुछ खोने को ॥२३॥ प्रकृत्या शून्यचित्तस्य कुर्वत:अस्य यदृच्छया। प्राकृतस्य इव धीरस्य न मान:नअवमानता ॥२४॥ (निज)प्रकृतिवश शून्य चित्त वाला करता वही जो भाता उसे धीर-प्रकृति पुरुष के लिए न कहीं मान न अवमानना ही॥२४॥

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVII:(5)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVII: तत्त्व ज्ञानी न मुक्त:विषयद्वेष्टा न वा विषयलोलुप:। असंसक्तमना नित्यम् प्राप्तम् प्राप्तम् उपाश्रुते ॥१७॥ मुक्त-पुरुष न करता द्वेष विषयों से न विषयलोलुप बना रहता अनासक्त होकर सदा जो होता प्राप्त उसी में रहता आनन्द से॥१७॥ समाधान असमाधान हित अहित विकल्पना। शून्य-चित्त:न जानाति कैवल्यम् इव संस्थित: ॥१८॥ समस्या के समाधान होने या उलझ जाने काम बनने या बिगड़ जाने को सोचकर असंपृक्त मन वाला सदा निर्लेप बना रहता ॥१८॥

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVII: तत्व ज्ञानी (6)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVII: तत्व ज्ञानी निर्मम:निरहंकार: न किंचित् इति निश्चित: अन्तर्गलितसर्वांश: कुर्वन् अपि करोति न ॥१९॥ अन्तर की सभी कामनाएँ सर्वांश में जिसकी हो गईं विनिष्ट ऐसा व्यक्ति ममता और अहंकार त्याग कर सब कार्य करते हुए भी कुछ करता नहीं॥१९॥ मन:प्रकाश:सम्मोह,स्वप्न जाड्य विवर्जित:। दशाम् कामपि संप्राप्त: भवेत् गलित मानस: ॥२०॥ सम्मोह,स्वप्न,जड़ता त्याग दी जिसने जिसका मन हो गया है प्रकाश से उद्भासित। ऐसे मन:शून्य की दशा का वर्णन कैसे किया जा सकता है॥२०॥ ऐसे ही सिद्ध पुरुष का वर्णन करते हुए श्रीमद्भागवदगीता में कहा: तस्मात् असक्त:सततम् कार्यम् कर्म समाचर:। असक्त:हि आचरन् कर्म परम् आप्नोति पूरुष: ॥१९/३ अध्याय ॥ अष्टावक्र संहिता का सत्रहवाँ अध्याय समाप्त हरिॐ तत्सत,हरिॐ तत्सत,हरिॐ तत्सत!

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति (7)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति भाव अभाव विहीन: य:तृप्त:निर्वासन:बुध: न एव किंचित् कृतम् तेन लोकदृष्टा विकुर्वता ॥१९॥ अस्ति नास्ति से ऊपर उठकर वासना-विहीन,नित्य-तृप्त बुद्धिमान कुछ नहीं करता पर लोगों की दृष्टि में सब कुछ करता॥१९॥ प्रवृतौ वा निवृतौ वा न एव धीरस्य दुर्ग्रह:। यदा यत् कर्तुम् आयाति तत् कृत्वा तिष्ठत:सुखम् ॥२०॥ प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही स्थितियों में धीरपुरुष घबराता नहीं। जो काम आता हाथ में उसको करता कुशलता से और सदैव रहता सुखी हो ॥२०॥ निर्वासन:निरालम्ब: स्वच्छंद:मुक्तबंधन: क्षिप्त:संस्कारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत् ॥२१॥ वासना-विहीन,स्वतंत्र बंधन-मुक्त स्वच्छंद व्यक्ति। संस्कार-वायु से छूटा अहम्-विहीन व्यक्ति (पेड़ के) सूखे पत्ते की तरह डोलता॥२१॥

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति (6)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति येन अहम् परम् ब्रह्म स:अहम् ब्रह्म इति चिन्तयेत्। किम् चिन्तयति निश्चिन्त: द्वितीयम् यो न पश्यति ॥१६॥ ब्रह्म दर्शन हुआ जिसको वह ब्रह्म होकर रह गया। निश्चिन्त चिन्ता करे किसकी: जिसको दूसरा कुछ भी दीखता नहीं॥१६॥ दृष्ट:येन आत्मवि़ेक्षेप: निरोधम् कुरुते तु असौ। उदार:तु न विक्षिप्त: साध्य अभावात् करोति किम्॥१७॥ जो आत्म में देखता विक्षेप को वही करता प्रयत्न निरोध का। उदार साधक के लिए विक्षेप कुछ भी नहीं प्राप्त करने के लिए जिसको कुछ नहीं फिर वह क्या करे? ॥१७॥ धीर:लोकविपर्यस्त: वर्तमान:अपि लोकवत्। न समाधिम् न विक्षेपम् न लेपम् स्वस्य पश्यति ॥१८॥ लोकवत व्यवहार करते भी धीर पुरुष लोक के व्यवहार में फँसता नहीं। न दीखता वह समाधि में न ही जगत-व्यवहार में; जग देखता उसको सदा राग से उन्मुक्त ही॥१८॥

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति (5)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति कृत्यम् किम अपि न एव अस्ति न क्व अपि ह्रदि रंजना। यथाजीवनम् एव इह जीवन्मुक्तस्य योगिन: ॥१३॥ करणीय कर्म कुछ नहीं ह्रदय में कोई वासना नहीं जीवन-मुक्त योगी जो सामने आता उसी को करता कर्तव्य मान कर॥१३॥ क्व मोह:क्व च वा विश्वम् क्व तद्धानम् क्व मुक्तता सर्वसंकल्पसीमायाम् विश्रान्तस्य महात्मन: ॥१४॥ सभी संकल्पों की सीमाएँ लाँघने वाले शान्त-स्थिर महात्मा के लिए। मोह कहाँ,यह संसार कहाँ त्यागने को कुछ भी कहाँ और मुक्त होने के लिए क्या बचा॥१४॥ येन विश्वम् इदम् दृष्टम् स:नअस्ति इति करोति वै। निर्वासन:किम् कुरुते पश्यन् अपि न पश्यति ॥१५॥ जिसके लिए यह विश्व हो वह उसे निषेध करने को कहे। पर वासना से मुक्त को क्या? देखते भी जो उसको देखता नहीं॥१५॥

अष्टावक्र संहिता ; अध्याय XVIII : शान्ति (4)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति न विक्षेप:न च ऐकाग्रयम् न अतिबोध:न मूढता। न सुखम् न च वा दु:खम् उपशान्तस्य योगिन: ॥१०॥ भटकाव नहीं,एकाग्रता नहीं ज्ञान का आधिक्य नहीं, मूढ़ता भी नहीं। अज्ञान में न दु:खी जानकर न सुखी योगी स्थित रहता सदा शान्त भाव में॥१०॥ स्वाराज्ये भैक्ष्यवृत्तौ च लाभ अलाभे जने वने । निर्विकल्प स्वभावस्य न विशेष:अस्ति योगिन : ॥११ ॥ निर्विकल्प स्वभाव के योगी को स्वर्ग के सुख में और भिक्षावृत्ति में संसार में,वन में,लाभ और हानि में अन्तर कुछ भासता नहीं ॥११॥ क्व धर्म: क्व च वा काम: क्व च अर्थ: क्व विवेकिता । इदम् कृतम् इदम् न इति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिन: ॥१२॥ द्वन्द्वों से मुक्त योगी के लिए, क्या तो करणीय धर्म और क्या काम-वासना। अर्थ की इच्छा कहाँ सांसारिक चातुर्य कहाँ यह होगया,यह करना अभी शेष है,कहाँ ॥१२॥

अष्टावक्र संहिता ; अध्याय XVIII : शान्ति (2)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति भव:अयम् भावनामात्र: न किंचित् परमार्थत:। न अस्ति अभाव:स्वभावानाम् भावअभाव विभाविनाम् ॥४॥ भावना-मात्र यह सब जगत वास्तविकता इसकी कुछ भी नहीं। स्वभाव का अस्तित्व रहता सर्वदा भावना-मात्र यह जग टिकता नहीं॥४॥ न दूरम् न संकोचात् लब्धम् एव आत्मन:पदम् निर्विकल्पम् नि:आयासम् निर्विकारम् निरंजनम् ॥५॥ आत्म न दूर है न पास है उसको प्राप्त करना पड़ता नहीं। निर्विकल्प,कूटस्थ, विकारों से शून्य,अकलुष होने से वह स्वयं प्राप्य है ॥५॥ व्यामोहमात्र विरतौ स्वरूपादानमात्रत:। वीतशोका:विराजन्ते निरावरणदृष्टय:॥६॥ महामोह के मिटते ही स्वरूप का है ज्ञान होता। दृष्टि का आवरण हटता ज्ञानी वीतशोक हो विराजता ॥६॥

Chanda Mama (Kavita)

Chanda Mama (Kavita) रामधारी सिंह 'दिनकर'--- हठ कर बैठा चाँद एक दिन,माता से यह बोला, सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला। सन-सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ, ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ। आसमान का सफ़र और यह मौसम है जाड़े का, न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का। बच्चे की सुन बात,कहा माता ने'अरे सलोने`, कुशल करे भगवान,लगे मत तुझको जादू टोने। जाड़े की तो बात ठीक है,पर मैं तो डरती हूँ, एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ। कभी एक अँगुल भर चौड़ा,कभी एक फ़ुट मोटा, बड़ा किसी दिन हो जाता है,और किसी दिन छोटा। घटता-बढ़ता रोज़,किसी दिन ऐसा भी करता है नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है अब तू ही ये बता,नाप तेरी किस रोज़ लिवाएँ सी दे एक झिंगोला जो हर रोज़ बदन में आए! (अब चाँद का जवाब पढ़िए। मुझे नहीं पता कि यह मौलिक कविता में था या,बाद में किसी ने जोड़ दिया,पर जवाब पढ़ लीजिये!) हंसकर बोला चाँद,अरे माता,तू इतनी भोली। दुनिया वालों के समान क्या तेरी मति भी डोली? घटता-बढ़ता कभी नहीं मैं वैसा ही रहता हूँ। केवल भ्रमवश दुनिया को घटता-बढ़ता लगता हूंँ। आधा हिस्सा सदा उजाला,आधा रहता काला। इस रहस्य को समझ न पाता भ्रमवश दुनिया वाला। अपना उजला भाग धरा को क्रमशः दिखलाता हूँ। एक्कम दूज तीज से बढ़ता पूनम तक जाता हूँ। फिर पूनम के बाद प्रकाशित हिस्सा घटता जाता। पन्द्रहवाँ दिन आते-आते पूर्ण लुप्त हो जाता। दिखलाई मैं भले पड़ूँ ना यात्रा हरदम जारी। पूनम हो या रात अमावस चलना ही लाचारी। चलता रहता आसमान में नहीं दूसरा घर है। फ़िक्र नहीं जादू-टोने की सर्दी का,बस,डर है। दे दे पूनम की ही साइज का कुर्ता सिलवा कर। आएगा हर रोज़ बदन में इसकी मत चिन्ता कर। अब तो सर्दी से भी ज़्यादा एक समस्या भारी। जिसने मेरी इतने दिन की इज़्ज़त सभी उतारी। कभी अपोलो मुझको रौंदा लूना कभी सताता। मेरी कँचन-सी काया को मिट्टी का बतलाता। मेरी कोमल काया को कहते राकेट वाले कुछ ऊबड़-खाबड़ ज़मीन है,कुछ पहाड़,कुछ नाले। चन्द्रमुखी सुन कौन करेगी गौरव निज सुषमा पर? खुश होगी कैसे नारी ऐसी भद्दी उपमा पर। कौन पसन्द करेगा ऐसे गड्ढों और नालों को? किसकी नज़र लगेगी अब चन्दा से मुख वालों को? चन्द्रयान भेजा अमरीका ने भेद और कुछ हरने। रही सहीजो पोल बची थी उसे उजागर करने। एक सुहाना भ्रम दुनिया का क्या अब मिट जाएगा? नन्हा-मुन्ना क्या चन्दा की लोरी सुन पाएगा? अब तो तू ही बतला दे माँ कैसे लाज बचाऊँ? ओढ़ अन्धेरे की चादर क्या सागर में छिप जाऊँ?

Ghazal-180

ग़ज़ल- कुछ अगर पूछता नहीं होता, उनको मुझसे गिला नहीं होता। इश्क़ में कुछ मज़ा नहीं होता, उनसे जब फ़ासला नहीं होता। ऊँची कुर्सी मुझे भी मिल जाती, मैं अगर बोलता नहीं होता। इश्क़ अक्सर फ़रेब देता है, कम मगर हौसला नहीं होता। बीज बोता अगर मैं नफ़रत के, ख़त्म फिर सिलसिला नहीं होता। इश्क़ का दर्द ही वो दर्द है जो, कुछ भी हो,बेमज़ा नहीं होता। सोच जब तक अमल न बन जाए, सोचने से भला नहीं होता। ग़मज़दा है बशर यहाँ जितना काश! उतना हुआ नहीं होता। दर्द-ए-दिल एक बार उट्ठा तो, मौत से भी जुदा नहीं होता। तुम नहीं जान पाए क्या अब तक, इश्क़ का कुछ सिला नहीं होता। बात अब ख़त्म भी हो जल्वों की, तज़किरों से भला नहीं होता। इश्क़ में अब ख़बर नहीं " ", दर्द होता है या नहीं होता। मार

Ghazal-179

Ghazal एक ग़ज़ल- सामने इंसानियत के है अजब संकट मियाँ, ख़त्म सा था वाम पथ,अब मध्य है चौपट मियाँ। सोच लो मिलता कहाँ है कोशिशों का तब सिला, लक्ष्य को जाने बिना जब दौड़ते सरपट मियाँ। जागती कौमों से बनता देश सुखमय दोस्तो, लोग गर सोते रहे,तो जागते संकट मियां। आज नेता के लिए जज़्बात की कीमत नहीं, सोचने वाले से उसकी चल रही खटपट मियाँ। देश के विद्यालयों का मान गिरता जा रहा, पास वो बच्चा हुआ जिसने लिया कुछ रट मियाँ। राजनैतिक दल कभी जब दूर जनता से हुए, रूठ जाती है फिर उनसे राज की चौखट मियाँ। जिसको भी मौक़ा मिला,वो फ़र्ज़ अपने भूलकर बस कमाने में जुटा है,आजकल झटपट मियाँ। मर गए थे आदमी दंगों में बीते साल कुछ, केस वो वापस हुए सब,देख लो यूँ झट मियाँ। जो रुका वर्षों से था नियमों के कारण सोच लो, चल पड़ा कागज़ वो रिश्वत देखते ही खट मियाँ। वो कहें जो,उसको समझें,शाश्वत सच अब से बस, छोड़िए भूगोल और इतिहास के झंझट मियाँ। सिला=परिणाम

Ghazal-178

ग़ज़ल- कुछ अगर पूछता नहीं होता, उनको मुझसे गिला नहीं होता। इश्क़ में कुछ मज़ा नहीं होता, उनसे जब फ़ासला नहीं होता। ऊँची कुर्सी मुझे भी मिल जाती, मैं अगर बोलता नहीं होता। इश्क़ अक्सर फ़रेब देता है, कम मगर हौसला नहीं होता। बीज बोता अगर मैं नफ़रत के, ख़त्म फिर सिलसिला नहीं होता। इश्क़ का दर्द ही वो दर्द है जो, कुछ भी हो, बेमज़ा नहीं होता। सोच जब तक अमल न बन जाए, सोचने से भला नहीं होता। ग़मज़दा है बशर यहाँ जितना काश! उतना हुआ नहीं होता। दर्द-ए-दिल एक बार उट्ठा तो, मौत से भी जुदा नहीं होता। तुम नहीं जान पाए क्या अब तक, इश्क़ का कुछ सिला नहीं होता। बात अब ख़त्म भी हो जल्वों की, तज़किरों से भला नहीं होता। इश्क़ में अब ख़बर नहीं " ", दर्द होता है या नहीं होता। मार

Ghazal-177

Ghazal एक ग़ज़ल- जागृत जब-जब यहाँ जनमन हुआ, तृप्त बस तब-तब मेरा जीवन हुआ। सत्य की जो शोध से रहता विमुख, वस्त्र उसका तो सदा उतरन हुआ। देश सदियों तक रहा परतंत्र क्यों? क्या कभी इस पर कोई मंंचन हुआ? स्वार्थ में ही रत रहा जो रात-दिन, व्यर्थ उसका दोस्तो तन-मन हुआ। ज़ह्न में जो चल रहा इंसान के, ज़िन्दगी में उसका ही मंचन हुआ। शोषकों का साथ कुछ हमने दिया, हाँ मगर अपराध वो सहवन हुआ। लोकहित में, शोध का जो क्षेत्र है, वो ही मेरे वास्ते उपवन हुआ। सहवन=विस्मृतिवश,भूल में,अज्ञानता में,अनजाने में.

Ghazal-176

Ghazal ग़ज़ल- फ़ैसले जो ज़रूरी थे,टाले गए, मसअले कुछ बना के,उछाले गए। जो कमाते रहे फ़र्ज को भूलकर वो वबा में भी कितना कमा ले गए। लालचों से कभी फ़ैसले जब हुए, मानवोचित सभी तब हवाले गए। कार्पोरेट वर्ल्ड को छूट जब भी मिली मुफ़लिसों के मुखों से निवाले गए। आमजन के भले की जिन्हें फ़िक्र थी, आफ़िसों से सभी वो निकाले गए। जिसने उनकी कमी कुछ बताई कभी, उसके पुरखों के ख़सरे खँगाले गए। आततायी चतुर उनसे जो जा मिले, जान अपनी पुलिस से बचा ले गए। -------------------------------------- मसअले=प्रकरण, वबा=महामारी

Deendayal Upadhyay

25 सितम्बर/जन्म-दिवस एकात्म मानववाद के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय सुविधाओं में पलकर कोई भी सफलता पा सकता है; पर अभावों के बीच रहकर शिखरों को छूना बहुत कठिन है। 25 सितम्बर, 1916 को जयपुर से अजमेर मार्ग पर स्थित ग्राम धनकिया में अपने नाना पण्डित चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्मे दीनदयाल उपाध्याय ऐसी ही विभूति थे। दीनदयाल जी के पिता श्री भगवती प्रसाद ग्राम नगला चन्द्रभान, जिला मथुरा, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। तीन वर्ष की अवस्था में ही उनके पिताजी का तथा आठ वर्ष की अवस्था में माताजी का देहान्त हो गया। अतः दीनदयाल का पालन रेलवे में कार्यरत उनके मामा ने किया। ये सदा प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते थे। कक्षा आठ में उन्होंने अलवर बोर्ड, मैट्रिक में अजमेर बोर्ड तथा इण्टर में पिलानी में सर्वाधिक अंक पाये थे। 14 वर्ष की आयु में इनके छोटे भाई शिवदयाल का देहान्त हो गया। 1939 में उन्होंने सनातन धर्म कालिज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया। यहीं उनका सम्पर्क संघ के उत्तर प्रदेश के प्रचारक श्री भाऊराव देवरस से हुआ। इसके बाद वे संघ की ओर खिंचते चले गये। एम.ए. करने के लिए वे आगरा आये; पर घरेलू परिस्थितियों के कारण एम.ए. पूरा नहीं कर पाये। प्रयाग से इन्होंने एल.टी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। संघ के तृतीय वर्ष की बौद्धिक परीक्षा में उन्हें पूरे देश में प्रथम स्थान मिला था। अपनी मामी के आग्रह पर उन्होंने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी। उसमें भी वे प्रथम रहे; पर तब तक वे नौकरी और गृहस्थी के बन्धन से मुक्त रहकर संघ को सर्वस्व समर्पण करने का मन बना चुके थे। इससे इनका पालन-पोषण करने वाले मामा जी को बहुत कष्ट हुआ। इस पर दीनदयाल जी ने उन्हें एक पत्र लिखकर क्षमा माँगी। वह पत्र ऐतिहासिक महत्त्व का है। 1942 से उनका प्रचारक जीवन गोला गोकर्णनाथ (लखीमपुर, उ.प्र.) से प्रारम्भ हुआ। 1947 में वे उत्तर प्रदेश के सहप्रान्त प्रचारक बनाये गये। 1951 में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नेहरू जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों के विरोध में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल छोड़ दिया। वे राष्ट्रीय विचारों वाले एक नये राजनीतिक दल का गठन करना चाहते थे। उन्होंने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से सम्पर्क किया। गुरुजी ने दीनदयाल जी को उनका सहयोग करने को कहा। इस प्रकार 'भारतीय जनसंघ' की स्थापना हुई। दीनदयाल जी प्रारम्भ में उसके संगठन मन्त्री और फिर महामन्त्री बनाये गये। 1953 के कश्मीर सत्याग्रह में डा. मुखर्जी की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मृत्यु के बाद जनसंघ की पूरी जिम्मेदारी दीनदयाल जी पर आ गयी। वे एक कुशल संगठक, वक्ता, लेखक, पत्रकार और चिन्तक भी थे। लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना उन्होंने ही की थी। एकात्म मानववाद के नाम से उन्होंने नया आर्थिक एवं सामाजिक चिन्तन दिया, जो साम्यवाद और पूँजीवाद की विसंगतियों से ऊपर उठकर देश को सही दिशा दिखाने में सक्षम है। उनके नेतृत्व में जनसंघ नित नये क्षेत्रों में पैर जमाने लगा। 1967 में कालीकट अधिवेशन में वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष बनायेे गये। चारों ओर जनसंघ और दीनदयाल जी के नाम की धूम मच गयी। यह देखकर विरोधियों के दिल फटने लगे। 11 फरवरी, 1968 को वे लखनऊ से पटना जा रहे थे। रास्ते में किसी ने उनकी हत्या कर मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर लाश नीचे फेंक दी। इस प्रकार अत्यन्त रहस्यपूर्ण परिस्थिति में एक मनीषी का निधन हो गया।

GHAZAL-175

ग़ज़ल- सामने इंसानियत के है अजब संकट मियाँ, ख़त्म सा था वाम पथ,अब मध्य है चौपट मियाँ। सोच लो मिलता कहाँ है कोशिशों का तब सिला, लक्ष्य को जाने बिना जब दौड़ते सरपट मियाँ। जागती कौमों से बनता देश सुखमय दोस्तो, लोग गर सोते रहे,तो जागते संकट मियां। आज नेता के लिए जज़्बात की कीमत नहीं, सोचने वाले से उसकी चल रही खटपट मियाँ। देश के विद्यालयों का मान गिरता जा रहा, पास वो बच्चा हुआ जिसने लिया कुछ रट मियाँ। राजनैतिक दल कभी जब दूर जनता से हुए, रूठ जाती है फिर उनसे राज की चौखट मियाँ। जिसको भी मौक़ा मिला,वो फ़र्ज़ अपने भूलकर बस कमाने में जुटा है,आजकल झटपट मियाँ। मर गए थे आदमी दंगों में बीते साल कुछ, केस वो वापस हुए सब,देख लो यूँ झट मियाँ। जो रुका वर्षों से था नियमों के कारण सोच लो, चल पड़ा कागज़ वो रिश्वत देखते ही खट मियाँ। वो कहें जो,उसको समझें,शाश्वत सच अब से बस, छोड़िए भूगोल और इतिहास के झंझट मियाँ। सिला=परिणाम

GHAZAL-174

Ghazal ग़ज़ल- सच्ची ग़ज़लों में होती है,माटी की बू-बास ज़रा, कल की झलक सहित होता है,वर्तमान,इतिहास ज़रा। मर्म भाव का जब जानोगे तब ही कुछ पा सकते हो, समझो इसको,पा जाओगे,जीवन का उल्लास ज़रा। जीवन के वो सूत्र मिलेंगे,जो जागृत कहते आये, सब ऋषि,मुनि,जैन,बौद्ध,कबीर,मार्क्स और रैदास ज़रा। कितने चढ़े मुलम्मे इस पर,जीवन को कुछ समझो तो आम आदमी की पीड़ा का तब होगा अहसास ज़रा। सच कहने-सुनने वाले ख़तरे में खुद को डाल रहे, ऐसे लोगों के कामों से दिखती हमको आस ज़रा। मीठा बोलें,सज धज के,जो दोषी हैं अपराधों के, देवतुल्य उनको कहते हैं,जो हैं चमचे ख़ास ज़रा। वो कहते हैं सत्य वही है,जो वो कहते अपने मुख से। गर्मी को अब कहना सीखो तुम मादक मधुमास ज़रा।

GHAZAL-173

Ghazal एक ग़ज़ल- जागृत जब-जब यहाँ जनमन हुआ, तृप्त बस तब-तब मेरा जीवन हुआ। सत्य की जो शोध से रहता विमुख, वस्त्र उसका तो सदा उतरन हुआ। देश सदियों तक रहा परतंत्र क्यों? क्या कभी इस पर कोई मंंचन हुआ? स्वार्थ में ही रत रहा जो रात-दिन, व्यर्थ उसका दोस्तो तन-मन हुआ। ज़ह्न में जो चल रहा इंसान के, ज़िन्दगी में उसका ही मंचन हुआ। शोषकों का साथ कुछ हमने दिया, हाँ मगर अपराध वो सहवन हुआ। लोकहित में,शोध का जो क्षेत्र है, वो ही मेरे वास्ते उपवन हुआ। सहवन=विस्मृतिवश,भूल में,अज्ञानता में,अनजाने में!

GHAZAL-172

ग़ज़ल- भला इंसांनियत का चाहती हो, ज़ुबां पे आज बस वो शायरी हो। सुने जो भी, लगे उसको कि जैसे, ग़ज़ल में बात उसकी ही कही हो। ख़ुदा से बस मेरी ये इल्तिज़ा है, न मुश्किल में किसी की ज़िन्दगी हो। मेरी कोशिश यही है दोस्तो बस, हर इक की ज़िन्दगी में रोशनी हो। हुआ है इश्क़ जब से, बस ये चाहा, तेरी ख़ुशियों से ही मुझको ख़ुशी हो। सियासत देख के कहता है दिल ये, ग़ज़ल अब जो लिखूँ वो आग - सी हो। सुनेगा ग़ौर से तुमको ज़माना, तुम्हारी बात में कुछ बात भी हो।

GAYA TEERTH(STORY)

गया तीर्थ की कथा ब्रह्माजी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे उस दौरान उनसे असुर कुल में गया नामक असुर की रचना हो गई। गया असुरों के संतान रूप में पैदा नहीं हुआ था इसलिए उसमें आसुरी प्रवृति नहीं थी. वह देवताओं का सम्मान और आराधना करता था। उसके मन में एक खटका था. वह सोचा करता था कि भले ही वह संत प्रवृति का है लेकिन असुर कुल में पैदा होने के कारण उसे कभी सम्मान नहीं मिलेगा. इसलिए क्यों न अच्छे कर्म से इतना पुण्य अर्जित किया जाए ताकि उसे स्वर्ग मिले। गयासुर ने कठोर तप से भगवान श्री विष्णुजी को प्रसन्न किया. भगवान ने वरदान मांगने को कहा तो गयासुर ने मांगा- आप मेरे शरीर में वास करें. जो मुझे देखे उसके सारे पाप नष्ट हो जाएं. वह जीव पुण्यात्मा हो जाए और उसे स्वर्ग में स्थान मिले। भगवान से वरदान पाकर गयासुर घूम-घूमकर लोगों के पाप दूर करने लगा. जो भी उसे देख लेता उसके पाप नष्ट हो जाते और स्वर्ग का अधिकारी हो जाता। इससे यमराज की व्यवस्था गड़बड़ा गई. कोई घोर पापी भी कभी गयासुर के दर्शन कर लेता तो उसके पाप नष्ट हो जाते. यमराज उसे नर्क भेजने की तैयारी करते तो वह गयासुर के दर्शन के प्रभाव से स्वर्ग मांगने लगता. यमराज को हिसाब रखने में संकट हो गया था। यमराज ने ब्रह्माजी से कहा कि अगर गयासुर को न रोका गया तो आपका वह विधान समाप्त हो जाएगा जिसमें आपने सभी को उसके कर्म के अनुसार फल भोगने की व्यवस्था दी है. पापी भी गयासुर के प्रभाव से स्वर्ग भोंगेगे। ब्रह्माजी ने उपाय निकाला. उन्होंने गयासुर से कहा कि तुम्हारा शरीर सबसे ज्यादा पवित्र है इसलिए तुम्हारी पीठ पर बैठकर मैं सभी देवताओं के साथ यज्ञ करुंगा। उसकी पीठ पर यज्ञ होगा यह सुनकर गया सहर्ष तैयार हो गया. ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ पत्थर से गया को दबाकर बैठ गए. इतने भार के बावजूद भी वह अचल नहीं हुआ. वह घूमने-फिरने में फिर भी समर्थ था। देवताओं को चिंता हुई. उन्होंने आपस में सलाह की कि इसे श्री विष्णु ने वरदान दिया है इसलिए अगर स्वयं श्री हरि भी देवताओं के साथ बैठ जाएं तो गयासुर अचल हो जाएगा. श्री हरि भी उसके शरीर पर आ बैठे। श्री विष्णु जी को भी सभी देवताओं के साथ अपने शरीर पर बैठा देखकर गयासुर ने कहा- आप सब और मेरे आराध्य श्री हरि की मर्यादा के लिए अब मैं अचल हो रहा हूं. घूम-घूमकर लोगों के पाप हरने का कार्य बंद कर दूंगा। लेकिन मुझे चूंकि श्री हरि का आशीर्वाद है इसलिए वह व्यर्थ नहीं जा सकता इसलिए श्री हरि आप मुझे पत्थर की शिला बना दें और यहीं स्थापित कर दें। श्री हरि उसकी इस भावना से बड़े खुश हुए. उन्होंने कहा- गया अगर तुम्हारी कोई और इच्छा हो तो मुझसे वरदान के रूप में मांग लो। गया ने कहा- " हे नारायण मेरी इच्छा है कि आप सभी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से इसी शिला पर विराजमान रहें और यह स्थान मृत्यु के बाद किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थस्थल बन जाए." श्री विष्णु ने कहा- गया तुम धन्य हो. तुमने लोगों के जीवित अवस्था में भी कल्याण का वरदान मांगा और मृत्यु के बाद भी मृत आत्माओं के कल्याण के लिए वरदान मांग रहे हो. तुम्हारी इस कल्याणकारी भावना से हम सब बंध गए हैं। भगवान ने आशीर्वाद दिया कि जहां गया स्थापित हुआ वहां पितरों के श्राद्ध-तर्पण आदि करने से मृत आत्माओं को पीड़ा से मुक्ति मिलेगी. क्षेत्र का नाम गयासुर के अर्धभाग गया नाम से तीर्थ रूप में विख्यात होगा. मैं स्वयं यहां विराजमान रहूंगा। इस तीर्थ से समस्त मानव जाति का कल्याण होगा।साथ ही वहा भगवान "श्री विष्णुजी ने अपने पैर का निशान स्थापित किया जो आज भी वहा के मंदिर मे दर्शनीय हे | गया विधि के अनुसार श्राद्ध फल्गू नदी के तट पर विष्णु पद मंदिर में व अक्षयवट के नीचे किया जाता है। वह स्थान बिहार के गया में हुआ जहां श्राद्ध आदि करने से पितरों का कल्याण होता है!

रामकृष्ण परमहंस

16 अगस्त/पुण्य-तिथि रामकृष्ण परमहंस की महासमाधि श्री रामकृष्ण परमहंस का जन्म फागुन शुक्ल 2, विक्रमी सम्वत् 1893 (18 फरवरी, 1836) को कोलकाता के समीप ग्राम कामारपुकुर में हुआ था। पिता श्री खुदीराम चट्टोपाध्याय एवं माता श्रीमती चन्द्रादेवी ने अपने पुत्र का नाम गदाधर रखा था। सब उन्हें स्नेहवश 'गदाई' भी कहते थे। बचपन से ही उन्हें साधु-सन्तों का साथ तथा धर्मग्रन्थों का अध्ययन अच्छा लगता था। वे पाठशाला जाते थे; पर मन वहाँ नहीं लगता था। इसी कारण छोटी अवस्था में ही उन्हें रामायण, महाभारत आदि पौराणिक कथाएँ याद हो गयीं थीं। बड़े होने के साथ ही प्रकृति के प्रति इनका अनुराग बहुत बढ़ने लगा। प्रायः ये प्राकृतिक दृश्यों को देखकर भावसमाधि में डूब जाते थे। एक बार वे मुरमुरे खाते हुए जा रहे थे कि आकाश में काले बादलों के बीच उड़ते श्वेत बगुलों को देखकर इनकी समाधि लग गयी। ये वहीं निश्चेष्ट होकर गिर पड़े। काफी प्रयास के बाद इनकी समाधि टूटी। पिता के देहान्त के बाद बड़े भाई रामकुमार इन्हें कोलकाता ले आये और हुगली नदी के तट पर स्थित रानी रासमणि द्वारा निर्मित माँ काली के मन्दिर में पुजारी नियुक्ति करा दिया। मन्दिर में आकर उनकी दशा और विचित्र हो गयी। प्रायः वे घण्टों काली माँ की मूर्त्ति के आगे बैठकर रोते रहते थे। एक बार तो वे माँ के दर्शन के लिए इतने उत्तेजित हो गये कि कटार के प्रहार से अपना जीवन ही समाप्त करने लगे; पर तभी माँ काली ने उन्हें दर्शन दिये। मन्दिर में वे कोई भेदभाव नहीं चलने देते थे; पर वहाँ भी सांसारिक बातों में डूबे रहने वालों से वे नाराज हो जाते थे। एक बार तो मन्दिर की निर्मात्री रानी रासमणि को ही उन्होंने चाँटा मार दिया। क्योंकि वह माँ की मूर्त्ति के आगे बैठकर भी अपनी रियासत के बारे में ही सोच रही थी। यह देखकर कुछ लोगों ने रानी को इनके विरुद्ध भड़काया; पर रानी इनकी मनस्थिति समझती थी, अतः वह शान्त रहीं। इनके भाई ने सोचा कि विवाह से इनकी दशा सुधर जाएगी; पर कोई इन्हें अपनी कन्या देने को तैयार नहीं होता था। अन्ततः इन्होंने अपने भाई को रामचन्द्र मुखोपाध्याय की पुत्री सारदा के बारे में बताया। उससे ही इनका विवाह हुआ; पर इन्होंने अपनी पत्नी को सदैव माँ के रूप में ही प्रतिष्ठित रखा। मन्दिर में आने वाले भक्त माँ सारदा के प्रति भी अतीव श्रद्धा रखते थे। धन से ये बहुत दूर रहते थे। एक बार किसी ने परीक्षा लेने के लिए दरी के नीचे कुछ पैसे रख दिये; पर लेटते ही ये चिल्ला पड़े। मन्दिर के पास गाय चरा रहे ग्वाले ने एक बार गाय को छड़ी मार दी। उसके चिन्ह रामकृष्ण की पीठ पर भी उभर आये। यह एकात्मभाव देखकर लोग इन्हें परमहंस कहने लगे। मन्दिर में आने वाले युवकों में से नरेन्द्र को वे बहुत प्रेम करते थे। यही आगे चलकर विवेकानन्द के रूप में प्रसिद्ध हुए। सितम्बर 1893 में शिकागो धर्मसम्मेलन में जाकर उन्होंने हिन्दू धर्म की जयकार विश्व भर में गुँजायी। उन्होंने ही ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की। इसके माध्यम से देश भर में सैकड़ों विद्यालय, चिकित्सालय तथा समाज सेवा के प्रकल्प चला।ये जाते हैं। एक समय ऐसा था, जब पूरे बंगाल में ईसाइयत के प्रभाव से लोगों की आस्था हिन्दुत्व से डिगने लगी थी; पर रामकृष्ण परमहंस तथा उनके शिष्यों के प्रयास से फिर से लोग हिन्दू धर्म की ओर आकृष्ट हुए। 16 अगस्त, 1886 को श्री रामकृष्ण ने महासमाधि ले ली।

Ghazal-171

ग़ज़ल- दोस्तो गुलशन हमारा अब से लाला-ज़ार हो। भूख,बीमारी,जफ़ा,से मुक्त अब संसार हो। लाला-ज़ार=फूलों से भरा हुआ,समृद्ध,जफ़ा=अत्याचार अब सभी के क़ायदे से काम हों,इसके लिए, ऑफ़िसों की पारदर्शी आज से दीवार हो। भागते रहते मशीनों की तरह हम लोग क्यों? दोस्तो कुछ देर थम कर आपसी गुफ़्तार हो। गुफ़्तार=बातचीत सोचने,कहने की तो आज़ादी मिलती जन्म से, आज जैसा हो गया,वैसा न अब अख़बार हो। झूठ, आलस,स्वार्थ का हो ख़ात्मा व्यवहार में, बस सचाई मेहनतों का अब से कारोबार हो। हैं बराबर लोग सब,मानें सभी इस सत्य को, पेट की ख़ातिर न क़दमों में कोई दस्तार हो। दस्तार=पगड़ी,इज़्ज़त फ़ैसले करते रहें हम,लोकहित में रात-दिन, फिर तो तेज़ चाहे जितनी वक़्त की रफ़्तार हो। ताक़तें जो हैं मुख़ालिफ़ आमजन के,उन से अब, जंग हो जिसका नतीजा आर हो या पार हो। मुख़ालिफ़=विरोध में सांसदों को चुन सकें,आईन देता हक़ हमें, वोट को देते समय तो आदमी हुशियार हो। आईन= संविध

Ghazal-170

चूहों की भरमार है बाबा ये ग़ल्ला बाज़ार है बाबा//1 वोट मैं अपने मन से दूँगा ये मेरा अधिकार है बाबा//2 रह्म करे वो हम मुफ़्लिस पर जिसकी भी सरकार है बाबा//3 डर तो लगता है,लड़की का चाचा थानेदार है बाबा//4 बीड़ी मैं सुलगाऊँ कैसे पास मेरे सरदार है बाबा//5 लोग यहाँ पीते हैं दारू ये चखना बाज़ार है बाबा//6 नफ़रत से मस्जिद भी महकी मंदिर भी बू-दार है बाबा//7 उसको याँ का हाल बताओ वो जो पालनहार है बाबा//8 '' का क्या है उस पर रब की किरपा अपरंपार है बाबा//9 शब्दार्थ- --------------- •ग़ल्ला- अन्न, अनाज, धान्य, दाना। •रह्म- रहम, दया •मुफ़्लिस- ग़रीब, निर्धन •चखना- शराब के साथ खाया जाने वाले खाद्य पदार्थ, जैसे चिप्स, भुना हुआ चना, मूंगफली, बादाम, काजू इत्यादि •बू-दार- बदबूदार, दुर्गंधयुक्त •याँ का- यहाँ का •किरपा- कृपा का देसी, बिगड़ा रूप •अपरंपार- अपार, असीम

Ghazal-169

ग़ज़ल- ज़रूरी है जो सबके वास्ते,वो काम हो जाए, तो मेरी ज़िन्दगी में भी ज़रा आराम हो जाए। जहाँ में एक भी कण एक भी क्षण रुक नहीं सकता, सफल होती वही बस सोच,जो निष्काम हो जाए। बहुत हैं चाहतें लेकिन टिका हूँ एक चाहत पे, अहं कुछ दूर रख पाऊँ,तो मेरा काम हो जाए। तुम्हारी ज़िंदगी में भी खिलेंगे फूल चाहत के, तुम्हें भी इश्क़ की दौलत अगर इनआम हो जाए। सताने में जुटे हैं वो कि सब चुपचाप बैठे हैं, न गहरी ख़ामुशी ये बाइस-ए-कुहराम हो जाए। मेरी मजबूरियाँ समझो मुझे ख़ामोश रहने दो, वफ़ा बदनाम होती है,अगर ये आम हो जाए। थकन होती है होने दो,मेरा मकसद है चलूँ इतना कि सबके वास्ते आराम हो जाए। आवश्यक शब्दार्थ - निष्काम=वह व्यक्ति जिसमें निजी स्वार्थगत लाभ की इच्छा नहीं होती,परन्तु जो सबके हित के लिए काम करता है,इनआम=इनाम,ख़ामुशी=ख़ामोशी,वाइस= कारण,कुहराम = हंगामा,बहुत अधिक शोर शराबा

रानी पद्मिनी

26 अगस्त/इतिहास-स्मृति चित्तौड़ का पहला जौहर जौहर की गाथाओं से भरे पृष्ठ भारतीय इतिहास की अमूल्य धरोहर हैं। ऐसे अवसर एक नहीं, कई बार आये हैं, जब हिन्दू ललनाओं ने अपनी पवित्रता की रक्षा के लिए ‘जय हर-जय हर’ कहते हुए हजारों की संख्या में सामूहिक अग्नि प्रवेश किया था। यही उद्घोष आगे चलकर ‘जौहर’ बन गया। जौहर की गाथाओं में सर्वाधिक चर्चित प्रसंग चित्तौड़ की रानी पद्मिनी का है, जिन्होंने 26 अगस्त, 1303 को 16,000 क्षत्राणियों के साथ जौहर किया था। पद्मिनी का मूल नाम पद्मावती था। वह सिंहलद्वीप के राजा रतनसेन की पुत्री थी। एक बार चित्तौड़ के चित्रकार चेतन राघव ने सिंहलद्वीप से लौटकर राजा रतनसिंह को उसका एक सुंदर चित्र बनाकर दिया। इससे प्रेरित होकर राजा रतनसिंह सिंहलद्वीप गया और वहां स्वयंवर में विजयी होकर उसे अपनी पत्नी बनाकर ले आया। इस प्रकार पद्मिनी चित्तौड़ की रानी बन गयी। पद्मिनी की सुंदरता की ख्याति अलाउद्दीन खिलजी ने भी सुनी थी। वह उसे किसी भी तरह अपने हरम में डालना चाहता था। उसने इसके लिए चित्तौड़ के राजा के पास धमकी भरा संदेश भेजा; पर राव रतनसिंह ने उसे ठुकरा दिया। अब वह धोखे पर उतर आया। उसने रतनसिंह को कहा कि वह तो बस पद्मिनी को केवल एक बार देखना चाहता है। रतनसिंह ने खून-खराबा टालने के लिए यह बात मान ली। एक दर्पण में रानी पद्मिनी का चेहरा अलाउद्दीन को दिखाया गया। वापसी पर रतनसिंह उसे छोड़ने द्वार पर आये। इसी समय उसके सैनिकों ने धोखे से रतनसिंह को बंदी बनाया और अपने शिविर में ले गये। अब यह शर्त रखी गयी कि यदि पद्मिनी अलाउद्दीन के पास आ जाए, तो रतनसिंह को छोड़ दिया जाएगा। यह समाचार पाते ही चित्तौड़ में हाहाकार मच गया; पर पद्मिनी ने हिम्मत नहीं हारी। उसने कांटे से ही कांटा निकालने की योजना बनाई। अलाउद्दीन के पास समाचार भेजा गया कि पद्मिनी रानी हैं। अतः वह अकेले नहीं आएंगी। उनके साथ पालकियों में 800 सखियां और सेविकाएं भी आएंगी। अलाउद्दीन और उसके साथी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें पद्मिनी के साथ 800 हिन्दू युवतियां अपने आप ही मिल रही थीं; पर उधर पालकियों में पद्मिनी और उसकी सखियों के बदले सशस्त्र हिन्दू वीर बैठाये गये। हर पालकी को चार कहारों ने उठा रखा था। वे भी सैनिक ही थे। पहली पालकी के मुगल शिविर में पहुंचते ही रतनसिंह को उसमें बैठाकर वापस भेज दिया गया और फिर सब योद्धा अपने शस्त्र निकालकर शत्रुओं पर टूट पड़े। कुछ ही देर में शत्रु शिविर में हजारों सैनिकों की लाशें बिछ गयीं। इससे बौखलाकर अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर हमला बोल दिया। इस युद्ध में राव रतनसिंह तथा हजारों सैनिक मारे गये। जब रानी पद्मिनी ने देखा कि अब हिन्दुओं के जीतने की आशा नहीं है, तो उसने जौहर का निर्णय किया। रानी और किले में उपस्थित सभी नारियों ने सम्पूर्ण शृंगार किया। हजारों बड़ी चिताएं सजाई गयीं। ‘जय हर-जय हर’ का उद्घोष करते हुए सर्वप्रथम पद्मिनी ने चिता में छलांग लगाई और फिर क्रमशः सभी हिन्दू वीरांगनाएं अग्नि प्रवेश कर गयीं। जब युद्ध में जीत कर अलाउद्दीन पद्मिनी को पाने की आशा से किले में घुसा, तो वहां जलती चिताएं उसे मुंह चिढ़ा रही थीं।

Geeta-12(02)

अष्टावक्र संहिता ; अध्याय XII : आत्म- स्थित जनक उवाच : कायकृत्यासह : पूर्वम् तत : वाग्विस्तरासह : । अय चिन्तासह : तस्मात् अहम् एवम् एवं आस्थित : ॥१॥ जनक ने कहा: पहले हुआ मैं असहिष्णु कायिक कृत्यों पर फिर वाणी की वाचालता तत्पश्चात् विचार पर इन सबके ऊपर उठकर अब मैं हुआ अवस्थित आत्म में ॥१॥ प्रीत्यभावेन शब्दादे : अदृश्यत्वेन च आत्मन : । विक्षेपैकाग्रह्रदय एवम् एव अहम् आस्थित: ॥२॥ शब्द-जाल से प्रीति तोड़करदेखा यह आत्म को छू नहीं पाता । मन का ध्यान हटाकर इन सबसे एकाग्रचित्त हो मैं हुआ अवस्थित आत्म में ॥२॥

Ghazal-168

ग़ज़ल जिनको हमने दुश्मन समझा वे सब अपने भाई निकले जिस पर भी विश्वास किया था अंत में वे हरजाई निकले जन सेवा का भाव था जिनमें वे सब लोग ईसाई निकले खुद केवल मज़हबी मानते कट्टर और कसाई निकले बात आई जब आन बान की सब के सब सौदाई निकले देश भक्ति की बात चली तो ज्यादातर तमाशाई निकले पीठ दिखा कर भाग गए जो ऐसे भी सिपाही निकले दर्द दूसरे का तब जानेगे जब उनके पैर बिवाई निकले साधु फकीरों के वेष में ढोंगी और कसाई निकले आँखे चौकस रखना अपनी पडोसी ना आई ऐस आई निकले 'Maahir' वो जिनको चाहा था कभी हमने पागलों की तरहा याद आये है वही आज हमको दुश्मनों की तरहा वो लिखे बैठे है लेन देन बरसों का ये जिंदगी तो है पानी के बुलबुलों की तरहा मन पपीहे को तो एक ही बूँद काफ़ी थी प्यार बरसा है हम पे बादलों की तरहा जिनको पाना ही जिंदगी का मक़सद था भूल जाएँगे उनको सुबह के सपनों की तरहा उनका ख़याल उनका तस्सवुर उनकी याद सम्भाल के रक्खा है हथेली के आबलो की तरहा 'Maahir' वो जो दरिया की तरहा से बह रहा है चलना ही जीवन है वो ये कह रहा है ढल रहा है हरदम सूरज की तरह जो और धरती की तरह ग़म सह रहा है हर जनम में बेशक इसका रूप और था हर युग में मौजूद लेकिन वह रहा है ये हमारी रस्में है पाराम्पराए और रिवाज़ खून बन कर जो नसों में बह रहा है सत्य का है बोलबाला झूठ का हरदम मुँह काला युग कोई भी हो मगर ये तय रहा है क्या करोगे दूर परदेसो में जाकर प्रेम का दरिया यहाँ पर बह रहा है क्यों ना हम बच्चो को बांटे प्रेम अपना बडो का हम पर सदा स्नेह रहा है अपने ही अब तो पराए हो गए पारस विश्वास का पर्वत दरक कर ढह रहा है 'Maahir'

Ghazal-169

ग़ज़ल- जुस्तजू में चैन-सुख की, आ गई जाने किधर ? पत्थरों के जंगलों में, आदमी ढूँढे, नज़र। लूटने और लुटने वाले, में रहा है फ़र्क क्या ? आज जो दिखता इधर है, कल वो दिखता था उधर। मरने, जीने से किसी के कब रुकी है ज़िन्दगी ? वो सितारे कह रहे हैं आसमां से टूटकर। एक प्रस्तर क़ायदे का लिख न पाएं, आज जो, डिग्रियाँ लेकर युवा वो, फिर रहे हैं, दरबदर। कोई कर सकता नहीं, सहयोग ऐसे शख़्स का, जो भरोसा ही नहीं, करता हैं अपने आप पर। थे बहुत आश्वस्त, वादों, पर भरोसा करके हम, रहबरों की रहबरी में, खो गई है रहगुज़र। जल चुकेगा फूस तब तो, आग भी मिट जाएगी, आग को भी चाहिए है, फूस, अपनी उम्रभर। जुस्तजू=खोज, चाह, प्रस्तर= पैराग्राफ़, रहबर-नेता, रहगुजर= राह

Ghazal-167

ग़ज़ल- जुस्तजू में चैन-सुख की, आ गई जाने किधर ? पत्थरों के जंगलों में, आदमी ढूँढे, नज़र। लूटने और लुटने वाले, में रहा है फ़र्क क्या ? आज जो दिखता इधर है, कल वो दिखता था उधर। मरने, जीने से किसी के कब रुकी है ज़िन्दगी ? वो सितारे कह रहे हैं आसमां से टूटकर। एक प्रस्तर क़ायदे का लिख न पाएं, आज जो, डिग्रियाँ लेकर युवा वो, फिर रहे हैं, दरबदर। कोई कर सकता नहीं, सहयोग ऐसे शख़्स का, जो भरोसा ही नहीं, करता हैं अपने आप पर। थे बहुत आश्वस्त, वादों, पर भरोसा करके हम, रहबरों की रहबरी में, खो गई है रहगुज़र। जल चुकेगा फूस तब तो, आग भी मिट जाएगी, आग को भी चाहिए है, फूस, अपनी उम्रभर। जुस्तजू=खोज, चाह, प्रस्तर= पैराग्राफ़, रहबर-नेता, रहगुजर= राह

Geeta-12(01)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XII : आत्म-स्थित आश्रम अनाश्रमम् ध्यानम् चित्तस्वीकृतवर्जनम् । विकल्पम् मम वीक्ष्यते : एवम् एव अहम् आस्थित : ॥५॥ कहाँ आश्रम और अनाश्रम अब चित्त स्थित करने को आवश्यकता नहीं ध्यान की अब । (क्योंकि) विकल्पों को देख कर मैं अवस्थित हुआ ध्यान में अब ॥५॥ कर्मानुष्ठानम् अज्ञानात् एव उपरम : तथा । बुध्वा सम्यक इदम् तत्वम् अहम् एवम् एव आस्थित: ॥६॥ कर्म के अनुष्ठान का विचार अथवा उसे छोड़ने की क्रिया दोनों मे ग्रन्थि है अज्ञान की । इस तत्व को जानकर पूरी तरह मैं अब हुआ अवस्थित आत्म में ॥६॥

Vikram Sarabhai

Vikram Sarabhai 12 अगस्त/जन्म-दिवस महान वैज्ञानिक-डा. विक्रम साराभाई जिस समय देश अंग्रेजों के चंगुल से स्वतन्त्र हुआ, तब भारत में विज्ञान सम्बन्धी शोध प्रायः नहीं होते थे। गुलामी के कारण लोगों के मानस में यह धारणा बनी हुई थी कि भारतीय लोग प्रतिभाशाली नहीं है। शोध करना या नयी खोज करना इंग्लैण्ड, अमरीका, रूस, जर्मनी, फ्रान्स आदि देशों का काम है। इसलिए मेधावी होने पर भी भारतीय वैज्ञानिक कुछ विशेष नहीं कर पा रहे थे। पर स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश का वातावरण बदला। ऐसे में जिन वैज्ञानिकों ने अपने परिश्रम और खोज के बल पर विश्व में भारत का नाम ऊँचा किया, उनमें डा. विक्रम साराभाई का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उन्होंने न केवल स्वयं गम्भीर शोध किये, बल्कि इस क्षेत्र में आने के लिए युवकों में उत्साह जगाया और नये लोगों को प्रोत्साहन दिया। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. कलाम ऐसे ही लोगों में से एक हैं। डा. साराभाई का जन्म 12 अगस्त, 1919 को कर्णावती (अमदाबाद, गुजरात) में हुआ था। पिता श्री अम्बालाल और माता श्रीमती सरला बाई ने विक्रम को अच्छे संस्कार दिये। उनकी शिक्षा माण्टसेरी पद्धति के विद्यालय से प्रारम्भ हुई। इनकी गणित और विज्ञान में विशेष रुचि थी। वे नयी बात सीखने को सदा उत्सुक रहते थे। श्री अम्बालाल का सम्बन्ध देश के अनेक प्रमुख लोगों से था। रवीन्द्र नाथ टैगोर, जवाहरलाल नेहरू, डा. चन्द्रशेखर वेंकटरामन और सरोजिनी नायडू जैसे लोग इनके घर पर ठहरते थे। इस कारण विक्रम की सोच बचपन से ही बहुत व्यापक हो गयी। डा. साराभाई ने अपने माता-पिता की प्रेरणा से बालपन में ही यह निश्चय कर लिया कि उन्हें अपना जीवन विज्ञान के माध्यम से देश और मानवता की सेवा में लगाना है। स्नातक की शिक्षा के लिए वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय गये और 1939 में ‘नेशनल साइन्स ऑफ ट्रिपोस’ की उपाधि ली। द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने पर वे भारत लौट आये और बंगलौर में प्रख्यात वैज्ञानिक डा. चन्द्रशेखर वेंकटरामन के निर्देशन में प्रकाश सम्बन्धी शोध किया। इसकी चर्चा सब ओर होने पर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.एस-सी. की उपाधि से सम्मानित किया। अब उनके शोध पत्र विश्वविख्यात शोध पत्रिकाओं में छपने लगे। अब उन्होंने कर्णावती (अमदाबाद) के डाइकेनाल और त्रिवेन्द्रम स्थित अनुसन्धान केन्द्रों में काम किया। उनका विवाह प्रख्यात नृत्यांगना मृणालिनी देवी से हुआ। उनकी विशेष रुचि अन्तरिक्ष कार्यक्रमों में थी। वे चाहते थे कि भारत भी अपने उपग्रह अन्तरिक्ष में भेज सके। इसके लिए उन्होंने त्रिवेन्द्रम के पास थुम्बा और श्री हरिकोटा में राकेट प्रक्षेपण केन्द्र स्थापित किये। डा. साराभाई भारत के ग्राम्य जीवन को विकसित देखना चाहते थे। ‘नेहरू विकास संस्थान’ के माध्यम से उन्होंने गुजरात की उन्नति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह देश-विदेश की अनेक विज्ञान और शोध सम्बन्धी संस्थाओं के अध्यक्ष और सदस्य थे। अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करने के बाद भी वे गुजरात विश्वविद्यालय में भौतिकी के शोध छात्रों को सदा सहयोग करते रहे। डा. साराभाई 20 दिसम्बर, 1971 को अपने साथियों के साथ थुम्बा गये थे। वहाँ से एक राकेट का प्रक्षेपण होना था। दिन भर वहाँ की तैयारियाँ देखकर वे अपने होटल में लौट आये; पर उसी रात में अचानक उनका देहान्त हो गया।

Ghazal-166

ग़ज़ल- दीवारें वो निर्मित करते चुुन-चुन कर कुछ द्वारों पर, नाच रही है जनता खुल कर,उन पर अंकित नारों पर। विज्ञापन भरमाते रहते सीधी,भोली नारी को, असली लाली शेष बची कब गोरी के रुख़सारों पर। खेल सियासत करती रहती,भड़का कर जज़्बात नए, जिसके कारण जनता रहती तलवारों की धारों पर। मस्ती,गाना,सना भूले हम सब आज सियासत में, अक्सर दंगे हो जाते हैं अपने अब,त्यौहारों पर। जनता को ठगने ख़ातिर कुछ नेता-अफसर संधि किए, ज़ुल्म बहुत ढाते वो मिल कर सच के पैरोकारों पर। जनता के सब रोगों का हम,कर सकते उपचार मगर, नेता मोहित दिखते केवल,घातक कुछ हथियारों पर। अपराधी जो हैं उनकी तो होती जय जय कार यहाँ, अक्सर दोष मढ़े जाते हैं मुफ़लिस औ बंजारों पर। उनको सतही चीजें भातीं,झूठे औ मक्कार हैं जो, ध्यान कहाँ देते हैं देखो,वो मौलिक फ़नकारों पर। बांट रहे लालच के अंधे हमको ज़ात-ज़ुबानों में, जागरूक हम भारी पड़ते हैं झूठे मक्कारों पर!

Geeta-11(01)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XI : प्रज्ञा अष्टावक्र उवाच : भावाभाव विकाराश्च स्वभावात् इति निश्चयी । निर्विकारो गतक्लेश : सुखेन एव उपशाम्यति ॥१॥ अष्टावक्र ने कहा: अस्तित्व और अनिस्तत्व दोनों को ही विकार जान स्वभाव के छोड़ इस विकार को । निर्विकार और क्लेशों से मुक्त हो तू सुख से स्थिर कर स्वयं को ॥१॥ ईश्वर: सर्वनिर्माता न अन्य इति निश्चयी । अन्तर्गलित सर्वांश : शान्त: क्व अपि न सज्जते ॥२॥ निश्चित जान कोई और नहीं केवल ईश्वर है निर्माता इस विश्व का । अन्तर की सब आशाओं को गला शान्त मन निस्पृह हो तू जग में विचर ॥२॥

Geeta-11(02)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XI : प्रज्ञा आब्रह्मस्तम्ब पर्यन्तम् अहम् एव इति निश्चयी । निर्विकल्प: शुचि : शान्त: प्राप्त अप्राप्त विनिर्वृत : ॥७॥ मैं ब्रह्मा से लेकर तुच्छ तृण पर्यन्त हूँ समाहित सब में समभाव से । यह जानकर शंका से मुक्त हो प्राप्त एवं अप्राप्त का छोड़ मोह तू शान्त एवं पवित्र मन से निवृत्त हो जा ॥७॥ नाना आश्चर्यम् इदम् विश्वम् न किंचित् इति निश्चयी । निर्वासन : स्फूर्तिमात्र : न किंचित् इव शाम्यति ॥८॥ दृढ़ निश्चयी यह जानकर कि नाना आश्चर्यों से भरा यह जगत कुछ भी नहीं । वासनाओं से मुक्त यह चैतन्य पूर्ण शान्ति को पा लेता सहज ॥८॥ ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त

Ghazal-165

ग़ज़ल- इरादा किया दोस्तो ये अटल है, लिखूँगा वही सत्य जो आजकल है। तुम्हारे सवालों को अल्फ़ाज़ देकर, तुम्हें ही सुनाने को लिक्खी ग़ज़ल है। बिना सोचे समझे जो राय बनाता, वो अहमक़ है यारो कहाँ वो सरल है। हिक़ारत से देखे ग़रीबों को अब वो, पसीने से उनके बना जो महल है। जिसे आज वंचित किए जा रहे वो, तुम्हारी अमरता को पीता गरल है। अज़ल से मेरा दिल रहा है तुम्हारा, न ये इश्क़ तुमसे हुआ आजकल है। न है इसका कोई भी अपवाद"र", मिला है हमेशा,जो कर्मों का फल है।

Ghazal-164

ग़ज़ल- कौन जाने जीत है या हार है, सोच मेरी बादलों के पार है। शाख़ माने गुल का कुछ अहसान क्यों? ज़िन्दगी उसकी बचाता ख़ार है। रेंगते,डसते वो,जब मौक़ा मिले, रीढ़ वाला अब कहाँ किरदार है। रंग रोग़न से उबर पाता नहीं, इश्क़ जिसकी सोच में व्यापार है। ज़ोर से नारे लगाते हैं वही, बात का जिनकी न कुछ आधार है। बात ही से तो नहीं बहलेगा ये, आदमी इस दौर का बेदार है। मस्लहत दिल में निहाँ "र" यहाँ, आदमीयत ऊपरी आचार है।

Ghazal-163

ग़ज़ल- लड़कपन से उबर पाए हैं जब से, जिए बस ज़िन्दगी अपने ही ढब से। दुआ मेरी रही बस ये ही रब से। रहे इंसानियत का मान अब से, हुआ जब से मुझे दीदार उनका, रहा मक़्सद यही इक ख़ास तब से। बताया बेज़ुबां आँखों ने वो भी, वो कह पाए जिसे अब तक न लब से। जो उपदेशों पे अपने चल सका हो, ज़माना मुंतज़िर है उसका कब से। मसाइल ज़िन्दगी के हो सके हल, रखा है स्वार्थ को कुछ दूर जब से। व्यवस्था कुछ बने ऐसी वतन में, किसी का भी न हो अपमान, अब से। सचाई से किया जब आकलन तो, लगे कुछ फ़ैसले अपने अजब से। अँधेरे जब डराते ज़िन्दगी के। तो पाते रास्ता 'माहीर 'अदब से। मुंतज़िर=प्रतीक्षा करने वाला,इंतजार में। अदब=साहित्य,शिष्टाचार। 'माहीर'

Heredity (Genetical Aspect)

डीएनए की भाषा। सरल शब्द पहचाने गए डीएनए सबस्ट्रिंग का एक शास्त्रीय उदाहरण एएजीसीटीटी(ऊपरी स्ट्रैंड पर और निचले स्ट्रैंड पर इसका पूरक टीटीसीजीएए) है,जो विशेष रूप से एच.इन्फ्लूएंजा बैक्टीरिया में हिंद{III}नामक अपने एंजाइमैटिक प्रोटीन में से एक द्वारा पहचाना जाता है जो डबल को साफ़ करता है हमलावर वायरस के डीएनए को उन जगहों पर स्ट्रैंड किया जाता है जहां यह सबस्ट्रिंग होती है,जबकि इसके डीएनए में सबस्ट्रिंग के बैक्टीरिया की घटना वाली जगहों को पूर्व मिथाइलेशन द्वारा दरार से बचाया जाता है। हिंद(III)प्रोटीन को एक प्रतिबंधक एंजाइम कहा जाता है।आनुवंशिक इंजीनियरिंग में महत्वपूर्ण अनुप्रयोगों के साथ,जीवाणु प्रजातियों में 800 से अधिक विभिन्न प्रतिबंध एंजाइमों और 100 से अधिक संबंधित मान्यता अनुक्रमों की पहचान की गई है।ये मान्यता अनुक्रम प्रजातियों के बीच एक महान परिवर्तनशीलता दिखाते हैं,उनमें से कई पूरक स्ट्रैंड्स पर पैलिंड्रोमिक होते हैं(जिसका अर्थ है कि अनुक्रम पूरक डीएनए स्ट्रैंड्स में समान रूप से पीछे और आगे पढ़ता है,जैसे कि एएजीसीटीटी और टीटीसीजीएए में),यह दर्शाता है कि डीएनए के दोनों स्ट्रैंड्स को एक जैसा होना चाहिए।अक्सर प्रत्येक स्ट्रैंड पर काम करने वाले दो समान प्रोटीनों के एक कॉम्प्लेक्स द्वारा काटा जाता है।इन सबस्ट्रिंग्स की मुख्य विशेषता उनकी छोटी लंबाई(लगभग चार से आठ आधार जोड़े)है,जो उन्हें किसी भी जीनोम में अक्सर दिखाई देने की संभावना बनाती है,जो उन्हें अज्ञात हमलावर वायरस के खिलाफ एक कुशल सुरक्षा प्रदान करती है।इस प्रकार ये अनुक्रम सर्वव्यापी हैं और स्वयं जानकारी का समर्थन नहीं करते हैं(वे केवल प्रतिबंध एंजाइमों द्वारा मान्यता प्राप्त सबस्ट्रिंग हैं),और इस पर चर्चा की जा सकती है कि क्या वे भाषाई अर्थ में "शब्द" हैं। पर पहले पुरानी-प्रेमिका बुलाते हैं। शब्द तथा भाषा । न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते। अनुबिद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते॥ संसार में ऐसा कोई विषय नहीँ है,जिसका ज्ञान शब्द का आश्रय न लेता हो।शब्द के बिना हम चिन्ता भी नहीँ कर सकते।समस्त ज्ञान शब्द से ही उत्पन्न हुआ हो–ऐसे भासमान होता है । जिस प्रक्रिया के द्वारा स्वहृदयस्थ भाव को परहृदयमें सन्निवेशित किया जाये उसे भाषा कहते हैं। यह स्वकीया (भावना-अप्रकटभाषा)तथा परकीया(प्रकटभाषा)भेद से द्विधा विभक्त है।परकीया दृश्य-श्राव्य भेद से द्विधा विभक्त है । दृश्य(सङ्केतितक्रिया आकार,ईङ्गित (उपाङ्गक्रिया),गति(देशान्तरप्रापणभङ्गि),चेष्टा (अङ्गक्रिया),भाषणभङ्गि,नेत्रविकार,मुखविकार भेद में सप्तधाविभक्त है । शब्द एवं विसर्ग के सम्मेलन से(शब्दः)श्राव्यभाषा का उत्पत्ति होता है(“शब्दविसर्गाणां समेलनाच्छब्द इत्याचक्षते”-नामार्थकल्पसूत्रे)। शिक्षा ग्रन्थों में कहा गया है कि- मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम्। मारुतस्तुरसि चरन् मन्द्रं जनयति स्वरम्॥ यह ऋग्वेद 10-129-4 कामस्तदग्रे समवर्त्तताधि मनसो रेतःप्रथमं यदासीत् के उपर आधारित है। शब्द का यत्किञ्चित्पदार्थतावच्छेदकावच्छिन्न में शक्ति होती है।नामार्थकल्पसूत्र के अनुसार–“बिन्दुबाताग्न्यम्वराणां तस्मात् साङ्केतिकाः(equation)स्मृताः”। गाणितिकभाषा में इसे श + ब् + दः = शब्दः लिखा जा सकता है।\इसके व्याख्या करते हुये ढुण्ढिनाथ ने कहा है–“तत्र शकार विन्दु बकार वात दकार अग्निः विसर्गश्चाकाश”।बिन्दु,वात,अग्नि,एवं आकाश के सहयोग से शब्द सृष्टि होता है।बिन्दु उक्थ है।वहाँ से जब वायु के द्वारा क्रिया आरम्भ होती है,तब द्रविणभाव के कारण अग्नि जात होता है।अग्नि वायु को पुनः प्रेरण करता है(मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम्)।यदि रिक्तस्थान(आकाश)मिलता है,तो शब्दतरङ्ग क्रमशःगति करती है।इससे शब्दों का 304 भेद हो जाते हैं(चतुरुत्त्तरत्रिशतशब्दानाम्-सर्वशब्दनिबन्धनम्)। बिन्दु अणु होने से तथा आकाश परममहत् होने से,इनका संख्या गणना नहीं होता।अग्नि अष्टसंस्थ है–“अग्निश्च जातवेदाश्च।सहोजा अजिराप्रभुः।वैश्वानरो नर्यापाश्च।पङ्क्तिराधाश्च सप्तमः।विसर्पेवाऽष्टमोऽग्निनाम्।एतेऽवसवः क्षिता”।यह आधुनिक विज्ञान में ग्लुअन् (gluon)नाम से जाने जाते हैं! वायु के 11 भेद है–“प्रभ्राजमाना व्यवदाताः।याश्च वासुकिवैदुताः।रजताः परुषाः श्यामाः।कपिला अतिलोहिताः।ऊर्ध्वा अवपतन्ताश्च।वैद्युत इत्येकादश”।इनका समष्टि 19 हुआ।इनमें से प्रत्येक का 16 कला है। सब मिला कर 304 (19X16) शब्दविभाग है । जिसप्रकार विद्युत्चुम्बकीय तरङ्ग अनेक होते हुये भी केवल कुछ ही तरङ्गें मनुष्य-चक्षुग्राह्य होते हैं,उस प्रकार शब्दों का तरङ्ग अनेक होते हुये भी केवल कुछ ही तरङ्गें मनुष्य-श्रोत्रग्राह्य होते हैं। जिसप्रकार मनुष्य-चक्षुग्राह्य तरङ्गों को सप्तवर्ण में समाहित कर दिया जाता है,उसीप्रकार मनुष्य-श्रोत्रग्राह्य शब्दों का द्वादश भेद है।यह है- स्फोटो रवोत्यन्तसूक्ष्मो मन्दोऽतिमन्दकः । अतितीव्रो तीव्रतरो मध्यश्चातिमध्यमः । महारबो घनरबो महाघनरबोस्तथा ॥ स्फोट सब से सूक्ष्मतम मनुष्य श्रोत्रग्राह्य शब्द है। महाघनरब शुनते ही कर्णशस्कुली फट जाता है। स्फोट के विषयमें व्याकरणकारों का मत ग्राह्य और नैयायिकों के मत त्याज्य है । मातृका का अर्थ है मातैव – मातृ + इवे प्रतिकृता । शब्द का जो शक्ति है, उसका प्रतिकृति को मातृका कहते हैँ । उसका न्यास होता है । विन्दु कूटस्थ है । वही परा का जननी है । बह्निः शब्द का भाव को दर्शाती हुयी पश्यन्ति का जननी है । वात उसको प्रसार करती हुयी मध्यमा का जननी है । अम्बर विवृत वाणी का विस्तार करती हुयी वैखरी का जननी है । अतः ऋग्वेद प्रातिशाख्य में कहागया है – माण्डुकेयः संहितां वायुमाह तथाकाशं चास्य माक्ष्यव्य एव । समानतामनिले चाम्बरे च मत्वागस्त्योऽविपरिहारं तदेव ॥ बाजसनेयी प्रातिशाख्य में कहागया है – “वायुः खात्” (वायु आकाश में गति करता है) । “शब्दस्तत्” (उससे शब्द का विस्फुरण होता है) । “सङ्करोपहितः” (समुचित करणों से प्रेरित हो कर श्रोत्र विवर के समीप जानेपर शब्द वनता है – समीचीनाः कराः सङ्कराः, उप समीपे, हि गतिप्रेरणे, क्तोऽधिकरणे ध्रौव्यगतिप्रत्यवसानार्थेभ्यश्च इति क्तप्रत्ययः) । “स सङ्घातादीन् वाक्” (वह प्रयत्नादि को प्राप्त करके वाक् हो जाता है) । ऋक्तन्त्रम् में भी कहागया है – “वायुं प्रकृतिमाचार्याः । वायुर्मूर्छञ्छ्वासोभवति । श्वासो नाद इति शाकटायनः । वायुरयमस्मिन् काये मूर्छत्यटतीत्येषोऽर्थः । स खलु स्वविशेषं प्रतिपन्नः कण्ठं प्रतिपन्नः श्वसितिर्भवति । स श्वसितिः शिरः प्रतिपन्नः आकाशमद्धारकं नदतिर्भवति । तस्येदानीं नदतेर्जिह्वाग्रेणेर्यमाणस्य व्यक्तयः प्रादुर्भवन्ति वर्णानामोष्ठ्याः कण्ठ्यास्तालव्या मूर्धन्या दन्त्या नासिक्या जिह्वामूलीया इति । तद्यथा त्रपुकारस्त्रपु विलाप्य बिम्बे निषिञ्चेद्यं यं बिम्बदेशं तत्त्रपु निषिच्यते ततस्ततो द्रव्याणां व्यक्तिर्भवति काञ्चिमणिके रुचकः स्वस्तिक इत्येवं यं यमयं स्वविशेषं जिह्वाग्रेण स्पृशति ततस्ततो वर्णानां व्यक्तिर्भवति ......” आचार्यों के द्वारा कहागया शब्दतत्त्व में वायु के महत्ता का वर्णन किया जा रहा है । वायु ही धक्का लगने पर श्वास वनता है । उसे नाद भी कहते हैं । इसका अर्थ है कि वायु हमारे शरीर में भ्रमण करता हुआ धक्का लगने पर वेग तथा स्थितिस्थापक संस्कार के कारण नर्तन करती है । अतः उसे नाद कहते हैं (नाभेरूर्द्ध्व हृदि स्थानान्मारुतः प्राणसंज्ञकः । नदति ब्रह्मरन्ध्रान्ते तेन नाद प्रकीर्तितः) । संवृत अवस्था में जब वह वायु कण्ठ से नासा के द्वारा वाहर निकलता है, उसे श्वास कहते हैं । वही वायु तालु स्थान से शिर में जाकर नर्तन करता हुआ नाद कहलाता है । वही नाद जिह्वाग्र से उच्चारित होता हुआ व्यक्त भावापन्न हो कर ओष्ठ्य. कण्ठ्य, तालव्य, मूर्द्धन्य, दन्त्य, नासिक्य, जिह्वामूलीय रूप से वाणी में परिवर्तित हो जाता है । जैसे मूर्तीकार धातु को गलाकर जिस साँचे में ढालता है, उसका वही स्वरूप हो जाता है, उसीप्रकार स्थान और प्रयत्न के कारण व्यक्तशब्द भिन्न हो जाते हैं । वेदाङ्ग के संख्या छह है, जिसमें व्याकरण एक वेदाङ्ग है । व्याकरण के उत्पत्ति के विषयमें तैत्तिरीयसंहिता में कहागया है कि इन्द्रने अखण्डावाक् को विभक्ति-प्रत्यय भेद से व्याकृ (वि+आ+कॄ हिं॒साया॑म् - खण्डित) किया था। अतः उसे व्याकरण (व्याक्रियन्ते अर्था येनेति) कहाजाता है । वैदिक व्याकरण को इसीलिये ऐन्द्रव्याकरण भी कहते हैं । प्रातिशाख्य ग्रन्थों में वह मिलता है । ऋक्तन्त्र में कहागया है कि इदमक्षरच्छन्दो वर्णशः समनुक्रान्तम् । ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच । बृहस्पतिरिन्द्राय । इन्द्रो भरद्वाजाय । भरद्वाजः ऋषिभ्यः । ऋषयः ब्राह्मणेभ्यः । तं खल्विदममक्षरसमाम्नायं ब्रह्मराशिरित्याचक्षते । कथित है कि समुद्रवत् व्याकरणं महेश्वरे तदर्द्धकुम्भोद्धरणं बृहस्पतौ । तद्भागभागाच्च शतं पुरन्दरे कुशाग्रविन्दुत् पतितं हि पाणिनौ ॥ यदि शिवजी के व्याकरण का ज्ञान को एक समुद्र के साथ तुलना किया जाय, तो बृहस्पति का ज्ञान अर्धकुम्भ मात्र होगा। इन्द्र का ज्ञान उसका शतभाग से एकभाग होगा। और पाणिनी के व्याकरण का ज्ञान कुशाग्रमात्र होगा । संस्कृतसे लेकर समस्त साधारण अथवा लौकिक (लोकेविदिता लौकिकाः) भाषा का शुद्धता उसके व्याकरणसे निर्णय किया जाता है, जैसेकि पतञ्जलि के "व्याकरण महाभाष्य" के आरम्भमें लिखागया है । परन्तु इसके विपरीत वैदिकव्याकरण का शुद्धता उसके वेदसम्मत होनेसे सिद्धहोता है (वेदेविदिता वैदिकाः) । अतः वैदिकव्याकरण लौकिकव्याकरणसे भिन्न होता है, जैसेकि पतञ्जलिने कहा है । उसी वैदिकभाषा को पाणिनीने छन्दस् कहा है (उदाहरण - छन्दसो यदणौ – अष्टाध्यायी 4-3-71)। कहींकहीं उसकेलिये दिव्या अथवा भारती शब्द का व्यवहार होता है । भागवत 1-4-13 में भी कहागया है कि मन्ये त्वां विषये वाचां स्नातमन्यत्र छान्दसात् । शिक्षाग्रन्थों तथा प्रातिशाख्य प्रत्येक पद का निर्वचन करते हैं । परन्तु पाणिनी ने ऐसा नहीं किया । विषयवस्तु का क्रम भी दोनों मे भिन्न है । यास्क के निरुक्त और निघण्टु, शान्तनव के फिट् सूत्र, व्याडि के जटापटल, वररूची के धातुपाठ – इन सबका व्यवस्थान अष्टाध्यायी से भिन्न है । उपसर्गके व्यवहार वेद और अष्टाध्यायीमें भिन्न है । वेदमें यह अलग रहते हैं, परन्तु अष्टाध्यायीमें यह क्रियापदसे युक्त रहते हैं । वेदमें ळ (जैसे अग्निमीळे) व्यवहार होता है । परन्तु अष्टाध्यायीमें नहीं । वेदमें पुंलिङ्ग अकारान्त शव्द – जैसे देवः - का कतृकारक रूप देवासः हो सकता है । परन्तु अष्टाध्यायीमें यह केवल देवाः होगा । उसी प्रकार वेद में करण कारक वहुवचन में देवेभिः होता है, जब कि अष्टाध्यायीमें यह देवैः होता है । ऐसे और भी वहुत सारे उदाहरण है जो दिखाता है कि वैदिक और संस्कृत भाषायें भिन्न है । डीएनए की अभिन्न कैसे होगी! अब नया शब्दानुशासन होगा। क्यों कि प्रयोगेन् अभिज्वलन्ति। प्रमथ्यु वहीं बैठ गया है ताक में प्रतिबंध एंजाइम अक्सर डिमर और डीएनए अनुक्रम के रूप में कार्य करें जिसे प्रत्येक प्रतिबंध एंजाइम पहचानता हैऔर विदलन प्राय: चारों ओर सममित होता है एक केंद्रीय बिंदु. यहाँ, दोनों किस्में डीएनए डबल हेलिक्स को विशिष्ट रूप से काटा जाता है लक्ष्य अनुक्रम के भीतर बिंदु(नारंगी)। कुछ एंजाइम, जैसे HaeIII, सीधे डबल हेलिक्स में काटें और दो कुंद सिरे वाले डीएनए अणु छोड़ें; दूसरों के साथ, जैसे इकोआरआई और हिंदIII, प्रत्येक स्ट्रैंड पर कट क्रमबद्ध हैं। ये क्रमबद्ध कट "चिपचिपा" उत्पन्न करते हैं समाप्त होता है"- लघु, एकल-स्ट्रैंड ओवरहैंग जो कटे हुए डीएनए अणुओं को वापस जुड़ने में मदद करते हैं पूरक बेसपेयरिंग के माध्यम से एक साथ। यह डीएनए अणुओं का पुनः जुड़ना है डीएनए क्लोनिंग के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है हम बाद में चर्चा करेंगे। प्रतिबंध न्यूक्लिअस हैं आमतौर पर बैक्टीरिया और उनके से प्राप्त किया जाता है, नाम उनकी उत्पत्ति को दर्शाते हैं; उदाहरण के लिए,एंजाइम इकोआरआई एस्चेरिचिया कोलाई से आता है।सैकड़ों विभिन्न प्रतिबंध एंजाइम व्यावसायिक रूप से उपलब्ध हैं। पैलिन्ड्रोम भी दीख गया‌ न! वही अपने विलोम पद ? राघवपदीयम् भी। प्रकृति का!

Bal Gangadhar Tilak

1 अगस्त/पुण्यतिथि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक का जन्म महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश (रत्नागिरि) के चिक्कन गांव में 23 जुलाई 1856 को हुआ था। इनके पिता गंगाधर रामचंद्र तिलक एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे। अपने परिश्रम के बल पर शाला के मेधावी छात्रों में बाल गंगाधर तिलक की गिनती होती थी। वे पढ़ने के साथ-साथ प्रतिदिन नियमित रूप से व्यायाम भी करते थे, अतः उनका शरीर स्वस्थ और पुष्ट था। 1879 में उन्होंने बी.ए. तथा कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। घरवाले और उनके मित्र संबंधी यह आशा कर रहे थे कि तिलक वकालत कर धन कमाएंगे और वंश के गौरव को बढ़ाएंगे, परंतु तिलक ने प्रारंभ से ही जनता की सेवा का व्रत धारण कर लिया था। परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने अपनी सेवाएं पूर्ण रूप से एक शिक्षण संस्था के निर्माण को दे दीं। सन्‌ 1880 में न्यू इंग्लिश स्कूल और कुछ साल बाद फर्ग्युसन कॉलेज की स्थापना की। तिलक का यह कथन कि 'स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा' बहुत प्रसिद्ध हुआ। लोग उन्हें आदर से 'लोकमान्य' नाम से पुकार कर सम्मानित करते थे। उन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद का पिता भी कहा जाता है। लोकमान्य तिलक ने जनजागृति का कार्यक्रम पूरा करने के लिए महाराष्ट्र में गणेश उत्सव तथा शिवाजी उत्सव सप्ताह भर मनाना प्रारंभ किया। इन त्योहारों के माध्यम से जनता में देशप्रेम और अंगरेजों के अन्यायों के विरुद्ध संघर्ष का साहस भरा गया। तिलक के क्रांतिकारी कदमों से अंगरेज बौखला गए और उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाकर छ: साल के लिए 'देश निकाला' का दंड दिया और बर्मा की मांडले जेल भेज दिया गया। इस अवधि में तिलक ने गीता का अध्ययन किया और गीता रहस्य नामक भाष्य भी लिखा। तिलक के जेल से छूटने के बाद जब उनका गीता रहस्य प्रकाशित हुआ तो उसका प्रचार-प्रसार आंधी-तूफान की तरह बढ़ा और जनमानस उससे अत्यधिक आंदोलित हुआ। तिलक ने मराठी में 'मराठा दर्पण व केसरी' नाम से दो दैनिक समाचार पत्र शुरू किए जो जनता में काफी लोकप्रिय हुए। जिसमें तिलक ने अंग्रेजी शासन की क्रूरता और भारतीय संस्कृति के प्रति हीनभावना की बहुत आलोचना की। उन्होंने ब्रिटिश सरकार को भारतीयों को तुरंत पूर्ण स्वराज देने की मांग की, जिसके फलस्वरूप और केसरी में छपने वाले उनके लेखों की वजह से उन्हें कई बार जेल भेजा गया। तिलक अपने क्रांतिकारी विचारों के लिए भी जाने जाते थे। ऐसे भारत के वीर स्वतंत्रता सेनानी का निधन 1 अगस्त 1920 को मुंबई में हुआ।

Kavita (Kasturi Gandh)

कस्तूरी गंध तुमको क्या मालूम कि,कितना प्यार किया करती हूं। ठोकर खाकर संभल-संभल,कर सदा बढ़ा करती हूं।‌। रुसवा ना हो जाए मोहब्बत की ये,दुनियां हमारी। मिले उमर लंबी इसको ये,दुआ किया करती हूं।। आशाओं के दीप जलाएं,हृदय अंधेरी कुटिया। बाती बन में जली प्रियतम,सदा तुम्हारी सुधियां।। मिल के दिया बाती सजना,प्रीत की रीत निभाएं। मैं ही पिघली मोम सरीखी,तन्हाई की रतियां।। तुमको क्या मालूम कि कितना,प्यार किया करती हूं। सुध- बुध खो में बावरी हो गई,बोली वीणा जैसी। गीतों में शब्दों की सरिता,बहीं ये सजना कैसी।। बिरही मन का दर्द बना,कस्तूरी गंध के जैसा। यौवन धन की मैंने वसीयत,की है साजन तुमको।। तुमको क्या मालूम कि कितना,प्यार किया करती हूं। अब और ना भटकाओ,मेरे इस पागलपन को। मेरे प्यार की मंज़िल हो तुम,रोको न इस मन को।। चंदन वन सी देह महकती,कैसे इसे छुपाऊं। कई निगाहें गिद्ध बनी है,देखे यौवन धन को।। तुमको क्या मालूम कि कितना,प्यार किया करती हूं। ठोकर खाकर संभल संभल,कर सदा बढ़ा करती हूं।। रुसवा ना हो जाएं मोहब्बत की,ये दुनियां हमारी। मिले उमर लंबी इसको ये,दुआ किया करती हूं।।

Ghazal-162

ग़ज़ल- जब भी इंसाँ ख़ुदी को भूल गया वो हक़ीक़तन, ख़ुशी को भूल गया ख़ुदी=स्व, निजित्व आमजन के सुने मसाइल तो, मैं भी कमफ़ुर्सती को भूल गया। मसाइल= प्रकरण, मामले, समस्याएं कम फुर्सती=वक़्त की कमी फ़र्ज़ यूँ हैं किए अदा, जिनमें, मैं निजी दुश्मनी को भूल गया। काम की दौड़-भाग में फँसकर, आदमी, आदमी को भूल गया। फेसबुक के हसीन ख़्वाबों में, अस्ल की ताज़गी को भूल गया काम में डूब के सुकूँ वो मिला मैं ग़म-ए-ज़िंदगी को भूल गया इसक़दर याद में डूबा, उसकी, जब मिला वो, उसी को भूल गया।

Ashtavakra Geeta Chapter-10

अष्टावक्र संहिता; अध्याय दस : परम शान्ति अष्टावक्र उवाच : विहाय वैरिणम् कामम् अर्थम् च अनर्थसंकुलम् । धर्मम् अपि एतयो: हेतु सर्वत्र अनादरम् कुरु ॥१॥ अष्टावक्र ने कहा: छोड़ कर तू काम वैरी को और अनर्थ के भंडार अर्थ को। मत तू आदर सहित आसक्त रह समझ कर निज धर्म क्योंकि यही तो है हेतु अर्थ और काम का ॥१॥ रामचरितमानस मे तुलसी ने इसी के लिए कहा : अरथ न धरम न कामरुचि गति न चहहुँ निरवान । जनम जनम प्रभु पद सपथ यह वरदान न आन ॥ स्वप्न इन्द्रजालवत् पश्य दिनानि त्रीणि पंच वा।मित्र क्षेत्र धनआगार दारया आदि सम्पद : ॥२॥ ये तीन-पाँच केवल हैं दिवास्वप्न के इन्द्रजाल सम । मित्र, कलत्र, क्षेत्र पर अधिकार धन और वैभवशाली गेह संपत्ति से भरपूर हों पर झूठ हैं ॥२॥

Ghazal-161

ग़ज़ल- ज़ह्न उसका कुछ न बदला आज तक, आदमी जैसा था वैसा आज तक। यह समझने में तनिक अरसा लगा, कष्ट का कारण है माया आज तक। माँ के ॠण से कौन उॠण हो सका, ज़िन्दगी में माँ का जाया आज तक। ग़म को जिसने चाँद से साझा किया, चाँद में महबूब पाया आज तक। शायरी विज्ञान से आगे रही, जिसने सच को पहले पाया आज तक। सोच में आलस्य से इंसाँ रुके, किन्तु है गतिमान दुनिया आज तक। घोर अँधियारों भरे संसार में, आदमी दिल को जलाता आज तक। शोषितों के हक़ में जिसने जो किया, उसको माथे से लगाया आज तक। जो इबादत में लिखा था दोस्तो, गीत वो ही गुनगुनाया आज तक। राह की सब अड़चनों को पार कर, प्रेम का पौधा लगाया आज तक। शुक्रिया ऐ शायरी तूने मुझे, रू-ब-रू मुझ से कराया आज तक।

Ghazal-160

ग़ज़ल- ग़जब है शायरी इसकी अलग ही राह होती है, किसी की आह पे इसमें,किसी की वाह होती है। सँवरना रोज पड़ता है बिगड़ हम खुद ही जाते हैं, मगर यारो,तरक्की की इसी से राह होती है। न रखना याद पड़ता सच,न होते झूठ के हैं पैर, मगर झूठे को सच्चे से कसकती डाह होती है। डरो मत मुश्किलों से तुम,करो हिम्मत,बढ़ो आगे, जहाँ रस्ते नहीं दिखते,वहां भी राह होती है। कभी जो लड़खड़ाओ तो,करो कोशिश सँभलने की, निकलती कोशिशों से जो,हसीं वो राह होती है। मुझे भी करने दो वो सब जिन्हें तुम करते थे अब तक, तजारिब से जो मिलती है,सही वो राह होती है।, जहाँ के वास्ते “मैं” है,न"मैं"होता,न कुछ होता, सभी हैं फलसफे"मैं"से,इसी से आह होती है। हराया"मैं"ने ही मुझको न"मैं"होता न ग़म होता, बिना इसके न कोई ज़िन्दगी में चाह होती है। Maahir

Ghazal-159

ग़ज़ल - इश्क़ में कुछ मज़ा नहीं होता, उनसे जब फ़ासला नहीं होता। इश्क़ अक्सर फ़रेब देता है, ख़त्म पर सिलसिला नहीं होता। इश्क़ का दर्द ही वो दर्द है जो, कुछ भी हो,बेमज़ा नहीं होता। दर्द-ए-दिल एक बार उट्ठा तो, मौत से भी जुदा नहीं होता। तुम नहीं जान पाए क्या अब तक? इश्क़ का कुछ सिला नहीं होता। ज़ुल्म करते हुए समझते हो, बेकसों का ख़ुदा नहीं होता। बात अब ख़त्म भी हो जल्वों की, तज़किरों से भला नहीं होता। इश्क़ में अब ख़बर नहीं "र", दर्द होता है या नहीं होता। सिला=प्रतिफल,इनाम बेकस=मज़बूर,असहाय तज़किरा=ज़िक्र,चर्चा

Ghazal-158

आप क्यों इतना तमतमाए हैं किसकी अम्मा से मिल के आए हैं//1 एक पगड़ी उठा नहीं सकते सर पे क्यों आसमाँ उठाए हैं//2 मीलों पैदल चले हैं जंगल में कुछ तो पूछो कि कैसे आए हैं//3 कब तू होगा तुलू'अ खिड़की पर कब से हम टकटकी लगाए हैं//4 नुस्ख़ा कोई नया न बोलो तुम नुस्ख़े सब हमने आज़माए हैं//5 चार घण्टे हैं रात होने में पर वो ठरकी हैं, अकबकाए हैं//6 गार्ड बोला नहीं हैं मैडम जी आप क्यों इतना सज के आए हैं//7 यूँ न दिखते हैं हम परेशाँ हाल 'राज़'हमने भी ग़म उठाए हैं//8

Ghazal-157

ग़ज़ल- पतंगों को ख़लाओं में उड़ाना सीख लो साहिब, ए आई दौर में जीवन चलाना सीख लो साहिब, सभी जीवों से बेहतर मानते ख़ुद को,तो लाज़िम है, ज़रा इंसानियत से दिल लगाना सीख लो साहिब। कड़ी मेहनत से पाया है मुकाम ऊँचा,चलो माना, अना को भी तो कुछ अपनी,झुकाना सीख लो साहिब। बुरा गर वक़्त आया तो,यही कुछ काम आयेगा, ज़रा मिल-बाँट के जीवन चलाना सीख लो साहिब। यहाँ होता वही जिससे कि वो इंकार करते हैं, सही अनुमान लहजों से लगाना सीख लो साहिब। 'वही’का आसमानों से तो अब आना नहीं मुमकिन, जहां अपने तजारिब से सजाना सीख लो साहिब। मुझे लगता है'माहिर'काम है यह भी इबादत-सा, किसी रोते हुए जन को हँसाना सीख लो साहिब। ए आई = आर्टिफिशल इंटेलिजेंस, ख़ला= निर्वात, अना=अहंकार,वही = ईश्वरीय निर्देश, तजारिब= तजुर्बे

Ghazal-156

ग़ज़ल- जब भी इंसाँ ख़ुदी को भूल गया वो हक़ीक़तन, ख़ुशी को भूल गया ख़ुदी=स्व, निजित्व, self आमजन के सुने मसाइल तो, मैं भी कमफ़ुर्सती को भूल गया। मसाइल= प्रकरण, मामले, समस्याएं कम फुर्सती=वक़्त की कमी फ़र्ज़ यूँ हैं किए अदा, जिनमें, मैं निजी दुश्मनी को भूल गया। काम की दौड़-भाग में फँसकर, आदमी, आदमी को भूल गया। फेसबुक के हसीन ख़्वाबों में, अस्ल की ताज़गी को भूल गया काम में डूब के सुकूँ वो मिला मैं ग़म-ए-ज़िंदगी को भूल गया इसक़दर याद में डूबा, उसकी, जब मिला वो, उसी को भूल गया।

Ghazal-155

ग़ज़ल- कौन जाने जीत है या हार है, सोच मेरी बादलों के पार है। शाख़ माने गुल का कुछ अहसान क्यों ? ज़िन्दगी उसकी बचाता ख़ार है। रेंगते,डसते वो, जब मौक़ा मिले, रीढ़ वाला अब कहाँ किरदार है। रंग रोग़न से उबर पाता नहीं, इश्क़ जिसकी सोच में व्यापार है। ज़ोर से नारे लगाते हैं वही, बात का जिनकी न कुछ आधार है। बात ही से तो नहीं बहलेगा ये, आदमी इस दौर का बेदार है। मस्लहत दिल में निहाँ "र" यहाँ, आदमीयत ऊपरी आचार है।

Ghazal-154

ग़ज़ल- लड़कपन से उबर पाए हैं जब से, जिए बस ज़िन्दगी अपने ही ढब से। दुआ मेरी रही बस ये ही रब से। रहे इंसानियत का मान अब से, हुआ जब से मुझे दीदार उनका, रहा मक़्सद यही इक ख़ास तब से। बताया बेज़ुबां आँखों ने वो भी, वो कह पाए जिसे अब तक न लब से। जो उपदेशों पे अपने चल सका हो, ज़माना मुंतज़िर है उसका कब से। मसाइल ज़िन्दगी के हो सके हल, रखा है स्वार्थ को कुछ दूर जब से। व्यवस्था कुछ बने ऐसी वतन में, किसी का भी न हो अपमान, अब से। सचाई से किया जब आकलन तो, लगे कुछ फ़ैसले अपने अजब से। अँधेरे जब डराते ज़िन्दगी के। तो पाते रास्ता 'माहीर'अदब से। मुंतज़िर=प्रतीक्षा करने वाला, इंतजार में। अदब=साहित्य, शिष्टाचार। माहीर

Ghazal153

ग़ज़ल- ग़जब है शायरी इसकी अलग ही राह होती है, किसी की आह पे इसमें, किसी की वाह होती है। सँवरना रोज पड़ता है बिगड़ हम खुद ही जाते हैं, मगर यारो, तरक्की की इसी से राह होती है। न रखना याद पड़ता सच, न होते झूठ के हैं पैर, मगर झूठे को सच्चे से कसकती डाह होती है। डरो मत मुश्किलों से तुम, करो हिम्मत, बढ़ो आगे,, जहाँ रस्ते नहीं दिखते, वहां भी राह होती है। कभी जो लड़खड़ाओ तो, करो कोशिश सँभलने की, निकलती कोशिशों से जो, हसीं वो राह होती है। मुझे भी करने दो वो सब जिन्हें तुम करते थे अब तक, तजारिब से जो मिलती है, सही वो राह होती है।, जहाँ के वास्ते “मैं” है, न "मैं" होता, न कुछ होता, सभी हैं फलसफे "मैं" से इसी से आह होती है। हराया "मैं" ने ही मुझको न "मैं" होता न ग़म होता, बिना इसके न कोई ज़िन्दगी में चाह होती है। Maahir

Ghazal-152

ग़ज़ल - इश्क़ में कुछ मज़ा नहीं होता, उनसे जब फ़ासला नहीं होता। इश्क़ अक्सर फ़रेब देता है, ख़त्म पर सिलसिला नहीं होता। इश्क़ का दर्द ही वो दर्द है जो, कुछ भी हो,बेमज़ा नहीं होता। दर्द-ए-दिल एक बार उट्ठा तो, मौत से भी जुदा नहीं होता। तुम नहीं जान पाए क्या अब तक? इश्क़ का कुछ सिला नहीं होता। ज़ुल्म करते हुए समझते हो, बेकसों का ख़ुदा नहीं होता। बात अब ख़त्म भी हो जल्वों की, तज़किरों से भला नहीं होता। इश्क़ में अब ख़बर नहीं "र", दर्द होता है या नहीं होता। सिला=प्रतिफल, इनाम, बेकस= मज़बूर, असहाय, तज़किरा=ज़िक्र, चर्चा

Ghazal-151

ग़ज़ल- पतंगों को ख़लाओं में उड़ाना सीख लो साहिब, ए आई दौर में जीवन चलाना सीख लो साहिब, सभी जीवों से बेहतर मानते ख़ुद को, तो लाज़िम है, ज़रा इंसानियत से दिल लगाना सीख लो साहिब। कड़ी मेहनत से पाया है मुकाम ऊँचा, चलो माना, अना को भी तो कुछ अपनी, झुकाना सीख लो साहिब। बुरा गर वक़्त आया तो, यही कुछ काम आयेगा, ज़रा मिल-बाँट के जीवन चलाना सीख लो साहिब। यहाँ होता वही जिससे कि वो इंकार करते हैं, सही अनुमान लहजों से लगाना सीख लो साहिब। 'वही’ का आसमानों से तो अब आना नहीं मुमकिन, जहां अपने तजारिब से सजाना सीख लो साहिब। मुझे लगता है'माहिर'काम है यह भी इबादत-सा, किसी रोते हुए जन को हँसाना सीख लो साहिब। ए आई = आर्टिफिशल इंटेलिजेंस, ख़ला= निर्वात, अना=अहंकार,वही = ईश्वरीय निर्देश, तजारिब= तजुर्बे

Laxman Rekha

लक्ष्मण रेखा लक्ष्मण रेखा आप सभी जानते हैं पर इसका असली नाम शायद नहीं पता होगा। लक्ष्मण रेखा का नाम(सोमतिती विद्या है!) यह भारत की प्राचीन विद्याओ में से जिसका अंतिम प्रयोग महाभारत युद्ध में हुआ था चलिए जानते हैं अपने प्राचीन भारतीय विद्या को सोमतिती विद्या(लक्ष्मण रेखा) महर्षि श्रृंगी कहते हैं कि एक वेदमन्त्र है--'सोमंब्रही वृत्तं रत:स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति' यह वेदमंत्र कोड है उस सोमना कृतिक यंत्र का,पृथ्वी और बृहस्पति के मध्य कहीं अंतरिक्ष में वह केंद्र है जहां यंत्र को स्थित किया जाता है,वह यंत्र जल,वायु और अग्नि के परमाणुओं को अपने अंदर सोखता है,कोड को उल्टा कर देने पर एक खास प्रकार से अग्नि और विद्युत के परमाणुओं को वापस बाहर की तरफ धकेलता है! जब महर्षि भारद्वाज ऋषिमुनियों के साथ भृमण करते हुए वशिष्ठ आश्रम पहुंचे तो उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से पूछा--राजकुमारों की शिक्षा दीक्षा कहाँ तक पहुंची है?? महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि यह जो ब्रह्मचारी राम है-इसने आग्नेयास्त्र वरुणास्त्र ब्रह्मास्त्र का संधान करना सीख लिया है! यह धनुर्वेद में पारंगत हुआ है महर्षि विश्वामित्र के द्वारा! यह जो ब्रह्मचारी लक्ष्मण है यह एक दुर्लभ सोमतिती विद्या सीख रहा है,उस समय पृथ्वी पर चार गुरुकुलों में वह विद्या सिखाई जाती थी, महर्षि विश्वामित्र के गुरुकुल में,महर्षि वशिष्ठ के गुरुकुल में,महर्षि भारद्वाज के यहां,और उदालक गोत्र के आचार्य शिकामकेतु के गुरुकुल में! श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि लक्ष्मण उस विद्या में पारंगत था! एक अन्य ब्रह्मचारी वर्णित भी उस विद्या का अच्छा जानकार था! 'सोमंब्रहि वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत:अवस्ति'--इस मंत्र को सिद्ध करने से उस सोमना कृतिक यंत्र में जिसने अग्नि के वायु के जल के परमाणु सोख लिए हैं उन परमाणुओं में फोरन आकाशीय विद्युत मिलाकर उसका पात बनाया जाता है! फिर उस यंत्र को एक्टिवेट करें और उसकी मदद से एक लेजर बीम जैसी किरणों से उस रेखा को पृथ्वी पर गोलाकार खींच दें! उसके अंदर जो भी रहेगा वह सुरक्षित रहेगा,लेकिन बाहर से अंदर अगर कोई जबर्दस्ती प्रवेश करना चाहे तो उसे अग्नि और विद्युत का ऐसा झटका लगेगा कि वहीं राख बनकर उड़ जाएगा ! जो भी व्यक्ति या वस्तु प्रवेश कर रहा हो,ब्रह्मचारी लक्ष्मण इस विद्या के इतने जानकर हो गए थे कि कालांतर में यह विद्या सोमतिती न कहकर "लक्ष्मण रेखा" कहलाई जाने लगी! महर्षि दधीचि,महर्षि शांडिल्य भी इस विद्या को जानते थे, श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस विद्या को जानने वाले अंतिम थे! उन्होंने कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में मैदान के चारों तरफ यह रेखा खींच दी थी,ताकि युद्ध में जितने भी भयंकर अस्त्र शस्त्र चलें उनकी अग्नि उनका ताप युद्धक्षेत्र से बाहर जाकर दूसरे प्राणियों को संतप्त न करे! मुगलों द्वारा करोडों करोड़ो ग्रन्थों के जलाए जाने पर और अंग्रेजों द्वारा महत्वपूर्ण ग्रन्थों को लूट लूटकर ले जाने के कारण कितनी ही अद्भुत विधाएं जो हमारे यशस्वी पूर्वजों ने खोजी थी लुप्त हो गई,जो बचा है उसे संभालने में प्रखर बुद्धि के युवाओं को जुट जाना चाहिए!

Ghazal-150

ग़ज़ल, अर्ज़ किया है- तुम ग़रीबों के घर जलाने लगे इतनी नफ़रत कहाँ से लाने लगे//1 तू तड़ाके पे आ गये इकदम अपनी औक़ात तुम दिखाने लगे//2 तुमने भी दूरियां बढ़ा ली हैं तुम भी अब बात को छुपाने लगे//3 बज़्म-ए-शो'रा में लग गयी आदत खाली बैठे थे,मुँह चलाने लगे//4 चुप थे,जागे थे जब तलक,लेकिन नींद आते ही बड़बड़ाने लगे//5 कौन सी रस्म है ये उल्फ़त की बोसा माँगा था,आज़माने लगे//6 राज़,ख़ाली थे हम भी क्या करते घर पे दो पैग ही लगाने लगे//7

Ghazal-149

न ग़म से,न आँसुओं से,न दीवानगी से, हम वाक़िफ़ नहीं थे आपसे पहले किसी से। ज़िंदा रखीं बुज़ुर्गों की हमने रिवायतें, दुश्मन से भी मिले तो मिले आजिज़ी से। सब सर-फिरी हवाओं को दुश्मन बना लिया, रौशन हुये थे लड़ने को इक तीरगी से। साँसें महक रही हैं,निगाहों में नूर है, आज मिल के आये हैं इक शख्स से। सूरज तो सिर्फ़ दिन के उजाले का है, हम हैं चराग़,लड़ते हैं अंधेरी रात से। बदनाम हो रहा है मुक़द्दर तो बे-सबब, बर्बाद हैं ख़ुद अपने अमल की कमी से।

Ghazal-148

ग़ज़ल- आधुनिकता झेलने को बोलिए तैयार हैं, घर में घुस के आज हमला कर रहे बाज़ार हैं। सोच अपनी कुंद रख के लोग जो देते हैं वोट, आदमीयत के लिए वो लोग तो बेकार हैं। पास जिनके धन ज़रूरत से अधिक है,देेख लो, लग रहा है ज़िदगी से आज वो बेज़ार हैं। कुछ अगर गहराई से सोचें,तो पायेंगे यही, आपदाओं के तो जैसे हम भी हिस्सेदार हैं। आपदाओं तक में दिखते लोग कुछ बेफिक्र से, हैं वही चिंतित यहाँ पर लोग जो बेदार हैं। अब पता करना बहुत मुश्किल है झंडा देख कर, आज नेता इस तरफ़ हैं या कि वो उस पार हैं। हम करें उपभोग अब संसाधनों का,सोच के, पीढ़ियों के वास्ते हम-आप ज़िम्मेदार हैं। बेज़ार = खिन्न, ऊबे हुए बेदार= जागरूक

A .P.J Abdul Kalaam

27जुलाई/ पुण्यतिथि भारत रत्न एपीजे अब्दुल कलाम एपीजे अब्दुल कलाम का जन्म एक गरीब तमिल मुस्लिम परिवार में 15 अक्टूबर, 1931 को तमिलनाडु के तीर्थ नगरी रामेश्वरम में हुआ था। उनकी माँ, आशियम्मा, एक गृहिणी थीं और उनके पिता जैनुलेदीन एक स्थानीय मस्जिद के इमाम और साथ ही साथ एक नाविक भी थे। वह चार बड़े भाइयों और एक बहन के साथ परिवार में सबसे छोटे थे । हालाँकि, परिवार आर्थिक रूप से संपन्न नहीं था लेकिन सभी बच्चों को एक ऐसे माहौल में पाला गया था जो प्यार और करुणा से भरा था। परिवार की आय के लिए, कलाम को अपने शुरुआती वर्षों के दौरान समाचार पत्रों भी बेचने पड़े । वह अपने स्कूल के दौरान एक औसत छात्र थे , लेकिन उनमे सीखने की तीव्र इच्छा थी और वह बहुत मेहनती थे । वह गणित से प्यार था और विषय का अध्ययन करने में घंटों बिताते थे । उन्होंने 1954 में ‘स्चार्ट्ज हायर सेकेंडरी स्कूल’ से शिक्षा ग्रहण की और फिर ‘सेंट जोसेफ कॉलेज, तिरुचिरापल्ली’ से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। वे एक लड़ाकू पायलट बनना चाहते थे, लेकिन उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका क्योंकि यहाँ केवल आठ पद उपलब्ध थे उन्होंने नौवां स्थान हासिल किया था । 1960 में, उन्होंने ‘रक्षा प्रौद्योगिकी और विकास सेवा’ के सदस्य बनने के बाद ‘मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी’ से स्नातक किया और ‘वैमानिकी विकास प्रतिष्ठान’ में एक वैज्ञानिक के रूप में शामिल हुए। कलाम ने प्रख्यात अंतरिक्ष वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के अधीन भी काम किया। कलाम को 1969 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ’में स्थानांतरित कर दिया गया था। वह देश के सबसे पहले सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (SLV-III) के प्रोजेक्ट हेड बन गए। जुलाई 1980 में, SLV-III ने कलाम के नेतृत्व में ’रोहिणी’ उपग्रह को सफलतापूर्वक पृथ्वी के निकट कक्षा में तैनात किया। 1983 में, कलाम प्रमुख के रूप में DRDO में लौटे क्योंकि उन्हें ” इंटीग्रेटेड गाइडेड मिसाइल डेवलपमेंट प्रोग्राम ’(IGMDP) का नेतृत्व करने के लिए कहा गया था । मई 1998 में, उन्होंने भारत द्वारा ” पोखरण-द्वितीय ” परमाणु परीक्षण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन परमाणु परीक्षणों की सफलता ने कलाम को राष्ट्रीय नायक बना दिया और उनकी लोकप्रियता आसमान छू गई। एक तकनीकी दूरदर्शी के रूप में, उन्होंने भारत को 2020 तक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए तकनीकी नवाचारों, कृषि और परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में कई सिफारिशें कीं। 2002 में, सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) द्वारा कलाम को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुना गया, और वह 25 जुलाई, 2002 को भारत के 11 वें राष्ट्रपति बने और 25 जुलाई, 2007 तक इस पद पर रहे। वह राष्ट्रपति का पद संभालने से पहले “भारत रत्न ” प्राप्त करने वाले भारत के तीसरे राष्ट्रपति भी बने। आम लोगों, विशेष रूप से युवाओं के साथ काम करने और बातचीत करने की उनकी शैली के कारण, उन्हें प्यार से ‘द पीपुल्स प्रेसिडेंट‘ कहा जाता था। डॉ कलाम के अनुसार, उनके कार्यकाल के दौरान उन्होंने जो सबसे कठोर निर्णय लिया था, वह था ‘ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट बिल “पर हस्ताक्षर करने का। अपने राष्ट्रपति कार्यकाल की समाप्ति के बाद, वह ‘भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), अहमदाबाद,’ ‘भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), इंदौर’ और ‘भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), शिलांग में विजिटिंग प्रोफेसर बन गए। उन्होंने अन्ना विश्वविद्यालय में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी तिरुवनंतपुरम’ में चांसलर के रूप में, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएससी), बैंगलोर ’के मानदके रूप में और देश भर के कई अन्य शोध और अकादमिक संस्थानों में उन्होंने अपनी सेवा दी । उन्होंने ‘अन्ना विश्वविद्यालय,’ , ‘बनारस हिंदू विश्वविद्यालय’ और ‘अंतर्राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईआईटी), हैदराबाद में सूचना प्रौद्योगिकी सिखाई।’ भ्रष्टाचार को हराने और दक्षता लाने के उद्देश्य से, कलाम ने 2012 में युवाओं के लिए एक कार्यक्रम शुरू किया, जिसे “व्हाट कैन आई गिव मूवमेंट ’कहा जाता है। कलाम को भारत सरकार की ओर से प्रतिष्ठित ‘भारत रत्न,’ ‘पद्म विभूषण’ और ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया था। उन्होंने 40 विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट की मानद उपाधि भी प्राप्त की। संयुक्त राष्ट्र ने कलाम के 79 वें जन्मदिन को विश्व छात्र दिवस के रूप में मान्यता दी। 2003 और 2006 में, उन्हें Icon एमटीवी यूथ आइकन ऑफ द ईयर ’के लिए नामांकित किया गया था। कलाम 27 जुलाई 2015 को ” क्रिएटिंग ए लिवेबल प्लैनेट अर्थ ’पर व्याख्यान देने के लिए आईआईएम शिलांग गए, सीढ़ियां चढ़ते समय, उन्होंने कुछ असुविधा व्यक्त की, लेकिन सभागार के लिए अपना रास्ता बना लिया। व्याख्यान में केवल पाँच मिनट, लगभग 6:35 बजे IST, वह व्याख्यान कक्ष में गिर गया। उन्हें गंभीर हालत में “बेथानी अस्पताल ’ले जाया गया। उन्हें गहन देखभाल इकाई में रखा गया था, लेकिन उनकी हालत खराब थी । 7:45 बजे IST में, कार्डियक अरेस्ट के कारण उन्हें मृत घोषित कर दिया गया l

Ghazal-147

ग़ज़ल- मेरी ग़ज़लों में मिलती है, माटी की बू-बास ज़रा, कल की झलक सहित है इनमें,वर्तमान-इतिहास ज़रा। मर्म भाव का जो जानेगा वो ही इन्हें समझ सकता, समझो इनको,आ जाएगा,जीवन में,उल्लास ज़रा। जीवन के वो सूत्र मिलेंगे,जो अब तक कहते आए, ऋषि,मुनि,जैन,बौद्ध,कबीर,मार्क्स और रैदास ज़रा। कितने चढ़े मुलम्मे इन पर,जन-जीवन ढँग से देखो, आमआदमी की पीड़ा का तब होगा अहसास ज़रा। आज सत्य के संवाहक ख़तरे में ख़ुद को डाल रहे, ऐसे लोगों के कामों से दिखती हमको आस ज़रा। मीठा बोलें,सज धज के,जो दोषी हैं,लेकिन देखो, देवतुल्य प्रचारित करते उनको,चमचे ख़ास ज़रा। राष्ट्र,धर्म,सभ्यता,आदि के मीठे सपने दिखला कर, वो कहते झेलो चुप रह कर,उनका है जो त्रास जरा। वो कहते हैं सत्य वही है जो वो कहते अपने मुख से, गर्मी को भी कहना सीखो अब मादक मधुमास ज़रा।

Ghazal-146

ग़ज़ल- मुसलसल ज़िन्दगी बल खा रही है, जहां पे रीझ के इतरा रही है। मुसलसल=लगातार, सतत, वही दुनिया में इक जल्वानुमा है, मगर दुनिया तो धोखा खा रही है। वही=यहाँ ईश्वर के लिए प्रयुक्त हुआ है,जल्वानुमा=दृष्टिगोचर होना, दिखना नज़र जो आ रही हर शय अलग कुछ, अना हमको यहाँ भरमा रही है। शय=वस्तु,अना=अहंकार अना देखो तो कितनी नासमझ है, इबादत से जो ये टकरा रही है। वो जीते ज़िन्दगी लम्हों की लेकिन, बक़ा की मुझको तो चिंता रही है। लम्हा=क्षण,बक़ा=शाश्वतता कमी अपनी भी कुछ तुमको मिलेगी, कली कोई अगर मुरझा रही है। जो ख़ुद की फ़िक्र ही उनको है,तो हो, मेरी सब के लिए चिंता रही है। तुम्हारे दिल में,बेेशक़,घर करेगी, ग़ज़ल जो दिल से दिल की आ रही है।

Sanatan Dharma

*धर्म क्या है ? - धर्म किसे कहते हैं ??* धर्म एक संस्कृत शब्द है। धर्म का अर्थ बहुत व्यापक है। जो धारण करने योग्य है, वही धर्म कहलाता है।जैसे हम किसी नियम को, व्रत को धारण करते हैं इत्यादि। इस अनुसार धर्म का अर्थ है कि जो सबको धारण किए हुए है अर्थात धारयति- इति धर्म:!। अर्थात जो सबको संभाले हुए है वे धर्म ।धर्म के बिना यह सारा संसार सारी सृष्टी चल ही नही सकती जैसे पृथ्वी समस्त प्राणियों को धारण किए हुए है यह पृथ्वी का धर्म / व्रत है। हर वस्तु का धर्म गुण होता है जैसे पानी का धर्म शीतलता। अग्नि का धर्म जलना और प्रकाश करना। पशु पक्षियों का धर्म निश्चित है लेकिन मनुष्य धर्म गुण अपनाने में स्वतंत्र है। तभी वे मनुष्य से अमनुषय भी बन जाता है।धर्म वे नियम या कर्म है जिस पर चलना पुण्य और जिन पर न चलना पाप कहलाता है। हर व्यक्ति पूर्व जन्म के संस्कारों से या जन्म के बाद शिक्षा से धर्म और अधर्म के गुण प्राप्त करता है। अगर वे जीवन में मनुष्यता के गुण लेकर चलता है तो उसे धार्मिक व्यक्ति कह सकते हैं। ईशवर ने जो हर मनुष्य के हृदय में मनुष्यता के गुण दिये है उन गुणों पर चलने और अपनाने से ही व्यक्ति को धार्मिक कहा जा सकता है। वास्तव में धर्म आत्म उन्नती व आत्म कल्याण का एक मात्र पवित्र मार्ग है. उससे हट कर सभी क्रिया कलाप डकोसले पाखण्ड है या सम्प्रदाय कहलाते है धर्म नहीं। जिसका कोई लाभ नहीं। मनुष्य के क्या गुण है ? उसके लिए क्या धारण करने योग्य है ? जिससे वे आपना लोक व परलोक सुधार सकता है और मनुष्य कहला सकता है ? वे हैं धैर्य रखना दया करना क्षमा करना सत्यता मन और कर्मो में क्रोद्ध न करना चोरी न करना इन्द्रियों पर कंट्रोल करना शरिरक मानसिक स्वच्छता ज्ञान बढ़ाना यह सब धर्म है धर्म के नियम है जो इन को धारण करने से वे धार्मिक कहलाता है।* बाहरी चिन्ह मनुष्य को धार्मिक नहीं बनाते अपितु आत्मिक व मानसिक गुण व्यक्ति को धार्मिक बनाते है। तिलक,टीका,भगवा,टोपी, भस्म, पगड़ी लगा लेने से कोई धर्मात्मा या धार्मिक नहीं बनता। धर्म सभी काल में सभी स्थान पर सभी व्यक्तियों के लिए एक ही है क्योंकि धर्म के नियम सत्य तर्क विज्ञान और अटल सृष्टि नियमों पर आधारित होते है । धर्म का कोई नाम नही होता जहाँ नाम है वे धर्म नही सम्प्रदाय है। धर्म की परिभाषा इस प्रकार भी कि गई है जो पक्ष पात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार व्यवहार हैं उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म हैं।जो ईश्वर आज्ञा के विरुद्ध नहीं हैं और आत्मा की आवाज को सुन कर कार्य करना उसको ही धर्म मानना चाहिए। जो व्यवहार स्वयं को प्रिय नही वे दुसरो से भी न करना धर्म है। इन बातों को जो व्यक्ति मत संघ संस्था नहीं मानती वे सभी मज़हब या सम्प्रदाय कहलाते है जिनके अपने अलग अलग नियम अलग अलग शिक्षाएँ व सिद्धांत है। किसी विशेष स्थान पर जाना और माथे टेकना इबादत या नाम रटना धर्म नही। महार्षि मनु ने धर्म के दस लक्ष्मण बताऐ हैं जिन को अपना कर ही मनुष्य धार्मिक कहला सकता है. जो कि इस प्रकार है :- धर्ति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचम् इन्द्रियनिग्रह धी विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्। 1.धृति-सुख,दुःख ,हानि,लाभ,मान,अपमान मे धैर्य रखना 2.क्षमा- शरीर मे सामर्थ्य होने पर भी बुराई का प्रतिकार न करना या बदला न लेना क्षमा है। 3.दम-मन मे अच्छी बातो का चिंतन करना बुरी बातों को दबाना हटाना 4.अस्तेय-बिना दूसरे की आज्ञा के कोई वस्तु न लेना चोरी न करना 5.शौच-शरीर की आत्मिक और शारीरिक शुद्धि रखना 6-इन्द्रियनिग्रह हाथ,पांव,आंख,मुख,नाक आदिको अच्छे कार्यो मे लगाना।इन्द्रियों को संयम में रखना। 7.धी-बुद्धि बढाने हेतू प्रयत्न करना 8.विद्या-ईश्वर द्वारा बनाये गए प्रत्येक पदार्थ का ज्ञान प्राप्त करना तथा उनसे उपयोग लेना 9.सत्य-जो हम जानते है उसको वैसा ही अपने द्वारा कहना मानना सत्य कहलाता है।हमेशा सत्य ही बोलना। 10.अक्रोध-इच्छा से उत्पन्न क्रोध का त्याग करना ही अक्रोध है। महर्षि पतंजलि ने अनुशासन को धर्म कहा जो योग द्वारा प्रप्त किया जा सकता है। महर्षि पतंजलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' (योगः चित्तवृत्तिनिरोधः) के रूप में परिभाषित किया है। उन्होंने 'योगसूत्र' नाम से योगसूत्रों का एक संकलन किया है, जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है। अष्टांग योग (आठ अंगों वाला योग), यह आठ आयामों वाला मार्ग है। योग के ये आठ अंग हैं:- १) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणायाम, ५) प्रत्याहार, ६) धारणा ७) ध्यान ८) समाधि यम:- 1. अहिंसा – शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना 2. सत्य – विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना 3. अस्तेय – चोर-प्रवृति का न होना 4. ब्रह्मचर्य – दो अर्थ हैं: * चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना * सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना 5. अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना 2. नियम:- 1. शौच – शरीर और मन की शुद्धि 2. संतोष – अपनी स्थिति में सदा सन्तुष्ट रहना 3. तप – स्वयं से अनुशाषित रहना 4. स्वाध्याय – आत्मचिंतन करना 5. ईश्वर-प्रणिधान – इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा यह पांच यम और पाँच नियम ही धर्म की यात्रा का आरम्भ है। धर्म मूल रूप में संस्कृत शब्द है। इंग्लिश की किताबों में धर्म का अर्थ परिभाषा के रूप में नही मिलता। इंग्लिश में Man का अर्थ भी नही है।धर्म को इंग्लिश में विश्वास / belief अर्थात अलग अलग विश्वासों को धर्म कहा है,वहाँ एक व स्पष्ट परिभाषा नही मिलती । man के लिये इंग्लिश में अर्थ human लिखा और human मतलब शरिरक ढाँचा। जबकि उनके अनुसार बन्दर वग़ैरा भी human कहलाएँगे। जबकि वैदिक ग्रंथों में मानव को “मनुर्भव “ कहा गया है अर्थात जिसमें मनुष्यता के गुण हो वही मनुष्य कहलाने लायक है। मानव कि परिभाषा “जो प्राणी विचार करके उचित और अनुचित को सोच विचार कर कार्य करता है वे मनुष्य कहलाता है “ जो इसके वपरित कार्य करेगा वे आमनुष्य कहलायेगा। जिस समाज में हम रह रहे हैं वे धर्म की बुनियाद पर ही चल रहा है और जो गिरावट देख रहे हैं वे धर्म पर न चलने वाले सम्प्रदायों के कारण हुई जिन्होंने अपने अपने नियम व सिद्धांत गढ़ लिए और मनुष्य जाति को गुटों में बाँट दिया ।धर्म और सम्प्रदाय को एक मानने से ही कुछ लोग धर्म को गाली या रोग कह देते है। महर्षी दयानन्द सरस्वती के अनुसार *मनुष्य किसे कहते हैं!* मनुष्य उसी को कहना जो मननशील होकर अपनी आत्मा के समान अन्यों के सुख – दुख और हानि – लाभ को समझे । अन्यायकारी बलवान से न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे । इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं – कि चाहे वे महाअनाथ , निर्बल क्यों न हों – उनकी रक्षा , उन्नति , प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती महाबलवान और गुणवान भी हो तथापि उसका नाश , अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वदा किया करें । इस काम में चाहे कितना ही दारुण दुख प्राप्त हो , चाहे प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यरुप धर्म से पृथक कभी न होवे । महर्षी दयानन्द सरस्वती

Kavita

जब कभी मन मे व्यथा हो आँसूओं का संग जुदा हो बात मन की कह सको ना तब मुझे तुम याद करना। मुझसे तुम संवाद करना व्यक्त सब जज्बात करना मै सुनूँगा सब धीर रखकर और मार्ग भी प्रशस्त करूँगा। जानता हूँ बहुत कठिन यह गैर से निज जज्बात कहना पीर जब नासूर बनने लगे बेहतर होता उपचार करना। है यही बस वश मे अपने दीप बन जलूँ, तम मिटाऊँ खुद की खातिर जी चुका अब किसी के काम आऊँ।

You and I (English Poem)

You and I Wanderer I, wanderer you, This has been the story for ages. Moment by moment, grain by grain, The world’s ways are charming stages. We meet by coincidences, And through them, we part here. In the making of these chances, Our own conduct must steer. Since we gained life, We have become somewhat aware. Understood a bit about the world, And our minds became somewhat clear. At the time of making decisions, Personal interest deepens in the mind. When thought of everyone’s welfare, We often found ourselves in a bind. From the world's deeds, it seems, Self-interest outweighs altruism. Maintaining balance here, Is our solemn responsibility, our prism. When we meet by chance, We stay together for some time. Share and listen to a few words, And then move on to new climbs. Some things we like, Some things we resent. From whatever experiences we gather, Life’s maturity is what we augment. Some grievances occur, Some laughter and teasing fill our days. From these colorful emotions, The tapestry of life is set ablaze. Everyone has their own experiences, friends, Which seem unique and profound. Some express these in songs, Some endure silently, sound. You and I, our life, Must be lived with compromises and grace. If there are a hundred ways to fall, There is a narrow staircase to embrace. There are many excuses to fight, From which the world suffers a lot. If we see everyone like ourselves, Then life’s battles are better fought. When personal interest grows too much, Nature restores balance true. Even from the darkness of thoughts, It lights up life’s flame anew.

अमर शहीद मंगल पाण्डे

19 जुलाई / जन्मदिवस अमर शहीद मंगल पाण्डे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध चले लम्बे संग्राम का बिगुल बजाने वाले पहले क्रान्तिवीर मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई 1827 ग्राम नगवा (बलिया, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। युवावस्था में ही वे सेना में भर्ती हो गये थे। उन दिनों सैनिक छावनियों में गुलामी के विरुद्ध आग सुलग रही थी। अंग्रेज जानते थे कि हिन्दू गाय को पवित्र मानते हैं, जबकि मुसलमान सूअर से घृणा करते हैं। फिर भी वे सैनिकों को जो कारतूस देते थे, उनमें गाय और सूअर की चर्बी मिली होती थी। इन्हें सैनिक अपने मुँह से खोलते थे। ऐसा बहुत समय से चल रहा था; पर सैनिकों को इनका सच मालूम नहीं था। मंगल पांडे उस समय बैरकपुर में 34 वीं हिन्दुस्तानी बटालियन में तैनात थे। वहाँ पानी पिलाने वाले एक हिन्दू ने इसकी जानकारी सैनिकों को दी। इससे सैनिकों में आक्रोश फैल गया। मंगल पांडे से रहा नहीं गया। 29 मार्च, 1857 को उन्होंने विद्रोह कर दिया। एक भारतीय हवलदार मेजर ने जाकर सार्जेण्ट मेजर ह्यूसन को यह सब बताया। इस पर मेजर घोड़े पर बैठकर छावनी की ओर चल दिया। वहां मंगल पांडे सैनिकों से कह रहे थे कि अंग्रेज हमारे धर्म को भ्रष्ट कर रहे हैं। हमें उसकी नौकरी छोड़ देनी चाहिए। मैंने प्रतिज्ञा की है कि जो भी अंग्रेज मेरे सामने आयेगा, मैं उसे मार दूँगा। सार्जेण्ट मेजर ह्यूसन ने सैनिकों को मंगल पांडे को पकड़ने को कहा; पर तब तक मंगल पांडे की गोली ने उसका सीना छलनी कर दिया। उसकी लाश घोड़े से नीचे आ गिरी। गोली की आवाज सुनकर एक अंग्रेज लेफ्टिनेण्ट वहाँ आ पहुँचा। मंगल पांडे ने उस पर भी गोली चलाई; पर वह बचकर घोड़े से कूद गया। इस पर मंगल पांडे उस पर झपट पड़े और तलवार से उसका काम तमाम कर दिया। लेफ्टिनेण्ट की सहायता के लिए एक अन्य सार्जेण्ट मेजर आया; पर वह भी मंगल पांडे के हाथों मारा गया। तब तक चारों ओर शोर मच गया। 34 वीं पल्टन के कर्नल हीलट ने भारतीय सैनिकों को मंगल पांडे को पकड़ने का आदेश दिया; पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस पर अंग्रेज सैनिकों को बुलाया गया। अब मंगल पांडे चारों ओर से घिर गये। वे समझ गये कि अब बचना असम्भव है। अतः उन्होंने अपनी बन्दूक से स्वयं को ही गोली मार ली; पर उससे वे मरे नहीं, अपितु घायल होकर गिर पड़े। इस पर अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया। अब मंगल पांडे पर सैनिक न्यायालय में मुकदमा चलाया गया। उन्होंने कहा, ‘‘मैं अंग्रेजों को अपने देश का भाग्यविधाता नहीं मानता। देश को आजाद कराना यदि अपराध है, तो मैं हर दण्ड भुगतने को तैयार हूँ।’’ न्यायाधीश ने उन्हें फाँसी की सजा दी और इसके लिए 18 अप्रैल का दिन निर्धारित किया; पर अंग्रेजों ने देश भर में विद्रोह फैलने के डर से घायल अवस्था में ही 8 अप्रैल, 1857 को उन्हें फाँसी दे दी। बैरकपुर छावनी में कोई उन्हं फाँसी देने को तैयार नहीं हुआ। अतः कोलकाता से चार जल्लाद जबरन बुलाने पड़े। मंगल पांडे ने क्रान्ति की जो मशाल जलाई, उसने आगे चलकर 1857 के व्यापक स्वाधीनता संग्राम का रूप लिया। यद्यपि भारत 1947 में स्वतन्त्र हुआ; पर उस प्रथम क्रान्तिकारी मंगल पांडे के बलिदान को सदा श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है।

Ghazal-145

ग़ज़ल- बोलते थे और कुछ वो मानते थे और कुछ. लोग समझें इस से पहले वो किए हैं और कुछ। वक़्त पर करता नहीं है,वक़्त की परवाह जो, पेच उसका वक़्त भी कसता रहा है और कुछ। बिस्मिलों की बात कैसे हाकिमों तक जाएगी? जो बयां वो दे रहे हैं हलफ़िया,है और कुछ। बिस्मिल=घायल,हल्फिया बयान=शपथ लेकर दिया गया बयान दलबदल करके वो अबतक,राज-सुख पाते रहे, लोग बस कहते रहे,उनकी सज़ा है और कुछ। उनके दल के मुजरिमों को,पारसा समझा गया, क्या सियासत में बताने को बचा है और कुछ? पारसा=पवित्र वो ज़ियादा जोर देकर बात को समझा रहे, लग रहा मुझको इसी से,माज़रा है और कुछ। सीख दे-दे कर चुकी पैगम्बरों की इक क़तार, आदमी फिर भी यहाँ करता रहा है और कुछ। धर्मग्रंथों,रीतियों के नाम पर वो ठग रहे, ज़िन्दगी जीने का उनका फ़लसफ़ा है और कुछ। फ़लसफ़ा=दर्शन,फिलोसफी आमजन के हक़ की ख़ातिर जो निज़ामत से लड़ा, दोस्तो वो ज़िन्दगी को जी सका है और कुछ। निजामत= व्यवस्था

Rasleela Nathdwara Style | Twin Eternals - Matter & Energy

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