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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:39 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
ग़ज़ल- दीवारें वो निर्मित करते चुुन-चुन कर कुछ द्वारों पर, नाच रही है जनता खुल कर,उन पर अंकित नारों पर। विज्ञापन भरमाते रहते सीधी,भोली नारी को, असली लाली शेष बची कब गोरी के रुख़सारों पर। खेल सियासत करती रहती,भड़का कर जज़्बात नए, जिसके कारण जनता रहती तलवारों की धारों पर। मस्ती,गाना,सना भूले हम सब आज सियासत में, अक्सर दंगे हो जाते हैं अपने अब,त्यौहारों पर। जनता को ठगने ख़ातिर कुछ नेता-अफसर संधि किए, ज़ुल्म बहुत ढाते वो मिल कर सच के पैरोकारों पर। जनता के सब रोगों का हम,कर सकते उपचार मगर, नेता मोहित दिखते केवल,घातक कुछ हथियारों पर। अपराधी जो हैं उनकी तो होती जय जय कार यहाँ, अक्सर दोष मढ़े जाते हैं मुफ़लिस औ बंजारों पर। उनको सतही चीजें भातीं,झूठे औ मक्कार हैं जो, ध्यान कहाँ देते हैं देखो,वो मौलिक फ़नकारों पर। बांट रहे लालच के अंधे हमको ज़ात-ज़ुबानों में, जागरूक हम भारी पड़ते हैं झूठे मक्कारों पर!
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