ग़ज़ल जिनको हमने दुश्मन समझा वे सब अपने भाई निकले जिस पर भी विश्वास किया था अंत में वे हरजाई निकले जन सेवा का भाव था जिनमें वे सब लोग ईसाई निकले खुद केवल मज़हबी मानते कट्टर और कसाई निकले बात आई जब आन बान की सब के सब सौदाई निकले देश भक्ति की बात चली तो ज्यादातर तमाशाई निकले पीठ दिखा कर भाग गए जो ऐसे भी सिपाही निकले दर्द दूसरे का तब जानेगे जब उनके पैर बिवाई निकले साधु फकीरों के वेष में ढोंगी और कसाई निकले आँखे चौकस रखना अपनी पडोसी ना आई ऐस आई निकले 'Maahir' वो जिनको चाहा था कभी हमने पागलों की तरहा याद आये है वही आज हमको दुश्मनों की तरहा वो लिखे बैठे है लेन देन बरसों का ये जिंदगी तो है पानी के बुलबुलों की तरहा मन पपीहे को तो एक ही बूँद काफ़ी थी प्यार बरसा है हम पे बादलों की तरहा जिनको पाना ही जिंदगी का मक़सद था भूल जाएँगे उनको सुबह के सपनों की तरहा उनका ख़याल उनका तस्सवुर उनकी याद सम्भाल के रक्खा है हथेली के आबलो की तरहा 'Maahir' वो जो दरिया की तरहा से बह रहा है चलना ही जीवन है वो ये कह रहा है ढल रहा है हरदम सूरज की तरह जो और धरती की तरह ग़म सह रहा है हर जनम में बेशक इसका रूप और था हर युग में मौजूद लेकिन वह रहा है ये हमारी रस्में है पाराम्पराए और रिवाज़ खून बन कर जो नसों में बह रहा है सत्य का है बोलबाला झूठ का हरदम मुँह काला युग कोई भी हो मगर ये तय रहा है क्या करोगे दूर परदेसो में जाकर प्रेम का दरिया यहाँ पर बह रहा है क्यों ना हम बच्चो को बांटे प्रेम अपना बडो का हम पर सदा स्नेह रहा है अपने ही अब तो पराए हो गए पारस विश्वास का पर्वत दरक कर ढह रहा है 'Maahir'