डीएनए की भाषा। सरल शब्द पहचाने गए डीएनए सबस्ट्रिंग का एक शास्त्रीय उदाहरण एएजीसीटीटी(ऊपरी स्ट्रैंड पर और निचले स्ट्रैंड पर इसका पूरक टीटीसीजीएए) है,जो विशेष रूप से एच.इन्फ्लूएंजा बैक्टीरिया में हिंद{III}नामक अपने एंजाइमैटिक प्रोटीन में से एक द्वारा पहचाना जाता है जो डबल को साफ़ करता है हमलावर वायरस के डीएनए को उन जगहों पर स्ट्रैंड किया जाता है जहां यह सबस्ट्रिंग होती है,जबकि इसके डीएनए में सबस्ट्रिंग के बैक्टीरिया की घटना वाली जगहों को पूर्व मिथाइलेशन द्वारा दरार से बचाया जाता है। हिंद(III)प्रोटीन को एक प्रतिबंधक एंजाइम कहा जाता है।आनुवंशिक इंजीनियरिंग में महत्वपूर्ण अनुप्रयोगों के साथ,जीवाणु प्रजातियों में 800 से अधिक विभिन्न प्रतिबंध एंजाइमों और 100 से अधिक संबंधित मान्यता अनुक्रमों की पहचान की गई है।ये मान्यता अनुक्रम प्रजातियों के बीच एक महान परिवर्तनशीलता दिखाते हैं,उनमें से कई पूरक स्ट्रैंड्स पर पैलिंड्रोमिक होते हैं(जिसका अर्थ है कि अनुक्रम पूरक डीएनए स्ट्रैंड्स में समान रूप से पीछे और आगे पढ़ता है,जैसे कि एएजीसीटीटी और टीटीसीजीएए में),यह दर्शाता है कि डीएनए के दोनों स्ट्रैंड्स को एक जैसा होना चाहिए।अक्सर प्रत्येक स्ट्रैंड पर काम करने वाले दो समान प्रोटीनों के एक कॉम्प्लेक्स द्वारा काटा जाता है।इन सबस्ट्रिंग्स की मुख्य विशेषता उनकी छोटी लंबाई(लगभग चार से आठ आधार जोड़े)है,जो उन्हें किसी भी जीनोम में अक्सर दिखाई देने की संभावना बनाती है,जो उन्हें अज्ञात हमलावर वायरस के खिलाफ एक कुशल सुरक्षा प्रदान करती है।इस प्रकार ये अनुक्रम सर्वव्यापी हैं और स्वयं जानकारी का समर्थन नहीं करते हैं(वे केवल प्रतिबंध एंजाइमों द्वारा मान्यता प्राप्त सबस्ट्रिंग हैं),और इस पर चर्चा की जा सकती है कि क्या वे भाषाई अर्थ में "शब्द" हैं। पर पहले पुरानी-प्रेमिका बुलाते हैं। शब्द तथा भाषा । न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते। अनुबिद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते॥ संसार में ऐसा कोई विषय नहीँ है,जिसका ज्ञान शब्द का आश्रय न लेता हो।शब्द के बिना हम चिन्ता भी नहीँ कर सकते।समस्त ज्ञान शब्द से ही उत्पन्न हुआ हो–ऐसे भासमान होता है । जिस प्रक्रिया के द्वारा स्वहृदयस्थ भाव को परहृदयमें सन्निवेशित किया जाये उसे भाषा कहते हैं। यह स्वकीया (भावना-अप्रकटभाषा)तथा परकीया(प्रकटभाषा)भेद से द्विधा विभक्त है।परकीया दृश्य-श्राव्य भेद से द्विधा विभक्त है । दृश्य(सङ्केतितक्रिया आकार,ईङ्गित (उपाङ्गक्रिया),गति(देशान्तरप्रापणभङ्गि),चेष्टा (अङ्गक्रिया),भाषणभङ्गि,नेत्रविकार,मुखविकार भेद में सप्तधाविभक्त है । शब्द एवं विसर्ग के सम्मेलन से(शब्दः)श्राव्यभाषा का उत्पत्ति होता है(“शब्दविसर्गाणां समेलनाच्छब्द इत्याचक्षते”-नामार्थकल्पसूत्रे)। शिक्षा ग्रन्थों में कहा गया है कि- मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम्। मारुतस्तुरसि चरन् मन्द्रं जनयति स्वरम्॥ यह ऋग्वेद 10-129-4 कामस्तदग्रे समवर्त्तताधि मनसो रेतःप्रथमं यदासीत् के उपर आधारित है। शब्द का यत्किञ्चित्पदार्थतावच्छेदकावच्छिन्न में शक्ति होती है।नामार्थकल्पसूत्र के अनुसार–“बिन्दुबाताग्न्यम्वराणां तस्मात् साङ्केतिकाः(equation)स्मृताः”। गाणितिकभाषा में इसे श + ब् + दः = शब्दः लिखा जा सकता है।\इसके व्याख्या करते हुये ढुण्ढिनाथ ने कहा है–“तत्र शकार विन्दु बकार वात दकार अग्निः विसर्गश्चाकाश”।बिन्दु,वात,अग्नि,एवं आकाश के सहयोग से शब्द सृष्टि होता है।बिन्दु उक्थ है।वहाँ से जब वायु के द्वारा क्रिया आरम्भ होती है,तब द्रविणभाव के कारण अग्नि जात होता है।अग्नि वायु को पुनः प्रेरण करता है(मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम्)।यदि रिक्तस्थान(आकाश)मिलता है,तो शब्दतरङ्ग क्रमशःगति करती है।इससे शब्दों का 304 भेद हो जाते हैं(चतुरुत्त्तरत्रिशतशब्दानाम्-सर्वशब्दनिबन्धनम्)। बिन्दु अणु होने से तथा आकाश परममहत् होने से,इनका संख्या गणना नहीं होता।अग्नि अष्टसंस्थ है–“अग्निश्च जातवेदाश्च।सहोजा अजिराप्रभुः।वैश्वानरो नर्यापाश्च।पङ्क्तिराधाश्च सप्तमः।विसर्पेवाऽष्टमोऽग्निनाम्।एतेऽवसवः क्षिता”।यह आधुनिक विज्ञान में ग्लुअन् (gluon)नाम से जाने जाते हैं! वायु के 11 भेद है–“प्रभ्राजमाना व्यवदाताः।याश्च वासुकिवैदुताः।रजताः परुषाः श्यामाः।कपिला अतिलोहिताः।ऊर्ध्वा अवपतन्ताश्च।वैद्युत इत्येकादश”।इनका समष्टि 19 हुआ।इनमें से प्रत्येक का 16 कला है। सब मिला कर 304 (19X16) शब्दविभाग है । जिसप्रकार विद्युत्चुम्बकीय तरङ्ग अनेक होते हुये भी केवल कुछ ही तरङ्गें मनुष्य-चक्षुग्राह्य होते हैं,उस प्रकार शब्दों का तरङ्ग अनेक होते हुये भी केवल कुछ ही तरङ्गें मनुष्य-श्रोत्रग्राह्य होते हैं। जिसप्रकार मनुष्य-चक्षुग्राह्य तरङ्गों को सप्तवर्ण में समाहित कर दिया जाता है,उसीप्रकार मनुष्य-श्रोत्रग्राह्य शब्दों का द्वादश भेद है।यह है- स्फोटो रवोत्यन्तसूक्ष्मो मन्दोऽतिमन्दकः । अतितीव्रो तीव्रतरो मध्यश्चातिमध्यमः । महारबो घनरबो महाघनरबोस्तथा ॥ स्फोट सब से सूक्ष्मतम मनुष्य श्रोत्रग्राह्य शब्द है। महाघनरब शुनते ही कर्णशस्कुली फट जाता है। स्फोट के विषयमें व्याकरणकारों का मत ग्राह्य और नैयायिकों के मत त्याज्य है । मातृका का अर्थ है मातैव – मातृ + इवे प्रतिकृता । शब्द का जो शक्ति है, उसका प्रतिकृति को मातृका कहते हैँ । उसका न्यास होता है । विन्दु कूटस्थ है । वही परा का जननी है । बह्निः शब्द का भाव को दर्शाती हुयी पश्यन्ति का जननी है । वात उसको प्रसार करती हुयी मध्यमा का जननी है । अम्बर विवृत वाणी का विस्तार करती हुयी वैखरी का जननी है । अतः ऋग्वेद प्रातिशाख्य में कहागया है – माण्डुकेयः संहितां वायुमाह तथाकाशं चास्य माक्ष्यव्य एव । समानतामनिले चाम्बरे च मत्वागस्त्योऽविपरिहारं तदेव ॥ बाजसनेयी प्रातिशाख्य में कहागया है – “वायुः खात्” (वायु आकाश में गति करता है) । “शब्दस्तत्” (उससे शब्द का विस्फुरण होता है) । “सङ्करोपहितः” (समुचित करणों से प्रेरित हो कर श्रोत्र विवर के समीप जानेपर शब्द वनता है – समीचीनाः कराः सङ्कराः, उप समीपे, हि गतिप्रेरणे, क्तोऽधिकरणे ध्रौव्यगतिप्रत्यवसानार्थेभ्यश्च इति क्तप्रत्ययः) । “स सङ्घातादीन् वाक्” (वह प्रयत्नादि को प्राप्त करके वाक् हो जाता है) । ऋक्तन्त्रम् में भी कहागया है – “वायुं प्रकृतिमाचार्याः । वायुर्मूर्छञ्छ्वासोभवति । श्वासो नाद इति शाकटायनः । वायुरयमस्मिन् काये मूर्छत्यटतीत्येषोऽर्थः । स खलु स्वविशेषं प्रतिपन्नः कण्ठं प्रतिपन्नः श्वसितिर्भवति । स श्वसितिः शिरः प्रतिपन्नः आकाशमद्धारकं नदतिर्भवति । तस्येदानीं नदतेर्जिह्वाग्रेणेर्यमाणस्य व्यक्तयः प्रादुर्भवन्ति वर्णानामोष्ठ्याः कण्ठ्यास्तालव्या मूर्धन्या दन्त्या नासिक्या जिह्वामूलीया इति । तद्यथा त्रपुकारस्त्रपु विलाप्य बिम्बे निषिञ्चेद्यं यं बिम्बदेशं तत्त्रपु निषिच्यते ततस्ततो द्रव्याणां व्यक्तिर्भवति काञ्चिमणिके रुचकः स्वस्तिक इत्येवं यं यमयं स्वविशेषं जिह्वाग्रेण स्पृशति ततस्ततो वर्णानां व्यक्तिर्भवति ......” आचार्यों के द्वारा कहागया शब्दतत्त्व में वायु के महत्ता का वर्णन किया जा रहा है । वायु ही धक्का लगने पर श्वास वनता है । उसे नाद भी कहते हैं । इसका अर्थ है कि वायु हमारे शरीर में भ्रमण करता हुआ धक्का लगने पर वेग तथा स्थितिस्थापक संस्कार के कारण नर्तन करती है । अतः उसे नाद कहते हैं (नाभेरूर्द्ध्व हृदि स्थानान्मारुतः प्राणसंज्ञकः । नदति ब्रह्मरन्ध्रान्ते तेन नाद प्रकीर्तितः) । संवृत अवस्था में जब वह वायु कण्ठ से नासा के द्वारा वाहर निकलता है, उसे श्वास कहते हैं । वही वायु तालु स्थान से शिर में जाकर नर्तन करता हुआ नाद कहलाता है । वही नाद जिह्वाग्र से उच्चारित होता हुआ व्यक्त भावापन्न हो कर ओष्ठ्य. कण्ठ्य, तालव्य, मूर्द्धन्य, दन्त्य, नासिक्य, जिह्वामूलीय रूप से वाणी में परिवर्तित हो जाता है । जैसे मूर्तीकार धातु को गलाकर जिस साँचे में ढालता है, उसका वही स्वरूप हो जाता है, उसीप्रकार स्थान और प्रयत्न के कारण व्यक्तशब्द भिन्न हो जाते हैं । वेदाङ्ग के संख्या छह है, जिसमें व्याकरण एक वेदाङ्ग है । व्याकरण के उत्पत्ति के विषयमें तैत्तिरीयसंहिता में कहागया है कि इन्द्रने अखण्डावाक् को विभक्ति-प्रत्यय भेद से व्याकृ (वि+आ+कॄ हिं॒साया॑म् - खण्डित) किया था। अतः उसे व्याकरण (व्याक्रियन्ते अर्था येनेति) कहाजाता है । वैदिक व्याकरण को इसीलिये ऐन्द्रव्याकरण भी कहते हैं । प्रातिशाख्य ग्रन्थों में वह मिलता है । ऋक्तन्त्र में कहागया है कि इदमक्षरच्छन्दो वर्णशः समनुक्रान्तम् । ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच । बृहस्पतिरिन्द्राय । इन्द्रो भरद्वाजाय । भरद्वाजः ऋषिभ्यः । ऋषयः ब्राह्मणेभ्यः । तं खल्विदममक्षरसमाम्नायं ब्रह्मराशिरित्याचक्षते । कथित है कि समुद्रवत् व्याकरणं महेश्वरे तदर्द्धकुम्भोद्धरणं बृहस्पतौ । तद्भागभागाच्च शतं पुरन्दरे कुशाग्रविन्दुत् पतितं हि पाणिनौ ॥ यदि शिवजी के व्याकरण का ज्ञान को एक समुद्र के साथ तुलना किया जाय, तो बृहस्पति का ज्ञान अर्धकुम्भ मात्र होगा। इन्द्र का ज्ञान उसका शतभाग से एकभाग होगा। और पाणिनी के व्याकरण का ज्ञान कुशाग्रमात्र होगा । संस्कृतसे लेकर समस्त साधारण अथवा लौकिक (लोकेविदिता लौकिकाः) भाषा का शुद्धता उसके व्याकरणसे निर्णय किया जाता है, जैसेकि पतञ्जलि के "व्याकरण महाभाष्य" के आरम्भमें लिखागया है । परन्तु इसके विपरीत वैदिकव्याकरण का शुद्धता उसके वेदसम्मत होनेसे सिद्धहोता है (वेदेविदिता वैदिकाः) । अतः वैदिकव्याकरण लौकिकव्याकरणसे भिन्न होता है, जैसेकि पतञ्जलिने कहा है । उसी वैदिकभाषा को पाणिनीने छन्दस् कहा है (उदाहरण - छन्दसो यदणौ – अष्टाध्यायी 4-3-71)। कहींकहीं उसकेलिये दिव्या अथवा भारती शब्द का व्यवहार होता है । भागवत 1-4-13 में भी कहागया है कि मन्ये त्वां विषये वाचां स्नातमन्यत्र छान्दसात् । शिक्षाग्रन्थों तथा प्रातिशाख्य प्रत्येक पद का निर्वचन करते हैं । परन्तु पाणिनी ने ऐसा नहीं किया । विषयवस्तु का क्रम भी दोनों मे भिन्न है । यास्क के निरुक्त और निघण्टु, शान्तनव के फिट् सूत्र, व्याडि के जटापटल, वररूची के धातुपाठ – इन सबका व्यवस्थान अष्टाध्यायी से भिन्न है । उपसर्गके व्यवहार वेद और अष्टाध्यायीमें भिन्न है । वेदमें यह अलग रहते हैं, परन्तु अष्टाध्यायीमें यह क्रियापदसे युक्त रहते हैं । वेदमें ळ (जैसे अग्निमीळे) व्यवहार होता है । परन्तु अष्टाध्यायीमें नहीं । वेदमें पुंलिङ्ग अकारान्त शव्द – जैसे देवः - का कतृकारक रूप देवासः हो सकता है । परन्तु अष्टाध्यायीमें यह केवल देवाः होगा । उसी प्रकार वेद में करण कारक वहुवचन में देवेभिः होता है, जब कि अष्टाध्यायीमें यह देवैः होता है । ऐसे और भी वहुत सारे उदाहरण है जो दिखाता है कि वैदिक और संस्कृत भाषायें भिन्न है । डीएनए की अभिन्न कैसे होगी! अब नया शब्दानुशासन होगा। क्यों कि प्रयोगेन् अभिज्वलन्ति। प्रमथ्यु वहीं बैठ गया है ताक में प्रतिबंध एंजाइम अक्सर डिमर और डीएनए अनुक्रम के रूप में कार्य करें जिसे प्रत्येक प्रतिबंध एंजाइम पहचानता हैऔर विदलन प्राय: चारों ओर सममित होता है एक केंद्रीय बिंदु. यहाँ, दोनों किस्में डीएनए डबल हेलिक्स को विशिष्ट रूप से काटा जाता है लक्ष्य अनुक्रम के भीतर बिंदु(नारंगी)। कुछ एंजाइम, जैसे HaeIII, सीधे डबल हेलिक्स में काटें और दो कुंद सिरे वाले डीएनए अणु छोड़ें; दूसरों के साथ, जैसे इकोआरआई और हिंदIII, प्रत्येक स्ट्रैंड पर कट क्रमबद्ध हैं। ये क्रमबद्ध कट "चिपचिपा" उत्पन्न करते हैं समाप्त होता है"- लघु, एकल-स्ट्रैंड ओवरहैंग जो कटे हुए डीएनए अणुओं को वापस जुड़ने में मदद करते हैं पूरक बेसपेयरिंग के माध्यम से एक साथ। यह डीएनए अणुओं का पुनः जुड़ना है डीएनए क्लोनिंग के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है हम बाद में चर्चा करेंगे। प्रतिबंध न्यूक्लिअस हैं आमतौर पर बैक्टीरिया और उनके से प्राप्त किया जाता है, नाम उनकी उत्पत्ति को दर्शाते हैं; उदाहरण के लिए,एंजाइम इकोआरआई एस्चेरिचिया कोलाई से आता है।सैकड़ों विभिन्न प्रतिबंध एंजाइम व्यावसायिक रूप से उपलब्ध हैं। पैलिन्ड्रोम भी दीख गया‌ न! वही अपने विलोम पद ? राघवपदीयम् भी। प्रकृति का!