अष्टावक्र संहिता; अध्याय XII : आत्म-स्थित आश्रम अनाश्रमम् ध्यानम् चित्तस्वीकृतवर्जनम् । विकल्पम् मम वीक्ष्यते : एवम् एव अहम् आस्थित : ॥५॥ कहाँ आश्रम और अनाश्रम अब चित्त स्थित करने को आवश्यकता नहीं ध्यान की अब । (क्योंकि) विकल्पों को देख कर मैं अवस्थित हुआ ध्यान में अब ॥५॥ कर्मानुष्ठानम् अज्ञानात् एव उपरम : तथा । बुध्वा सम्यक इदम् तत्वम् अहम् एवम् एव आस्थित: ॥६॥ कर्म के अनुष्ठान का विचार अथवा उसे छोड़ने की क्रिया दोनों मे ग्रन्थि है अज्ञान की । इस तत्व को जानकर पूरी तरह मैं अब हुआ अवस्थित आत्म में ॥६॥