ग़ज़ल- कौन जाने जीत है या हार है, सोच मेरी बादलों के पार है। शाख़ माने गुल का कुछ अहसान क्यों? ज़िन्दगी उसकी बचाता ख़ार है। रेंगते,डसते वो,जब मौक़ा मिले, रीढ़ वाला अब कहाँ किरदार है। रंग रोग़न से उबर पाता नहीं, इश्क़ जिसकी सोच में व्यापार है। ज़ोर से नारे लगाते हैं वही, बात का जिनकी न कुछ आधार है। बात ही से तो नहीं बहलेगा ये, आदमी इस दौर का बेदार है। मस्लहत दिल में निहाँ "र" यहाँ, आदमीयत ऊपरी आचार है।