अष्टावक्र संहिता; अध्याय दस : परम शान्ति अष्टावक्र उवाच : विहाय वैरिणम् कामम् अर्थम् च अनर्थसंकुलम् । धर्मम् अपि एतयो: हेतु सर्वत्र अनादरम् कुरु ॥१॥ अष्टावक्र ने कहा: छोड़ कर तू काम वैरी को और अनर्थ के भंडार अर्थ को। मत तू आदर सहित आसक्त रह समझ कर निज धर्म क्योंकि यही तो है हेतु अर्थ और काम का ॥१॥ रामचरितमानस मे तुलसी ने इसी के लिए कहा : अरथ न धरम न कामरुचि गति न चहहुँ निरवान । जनम जनम प्रभु पद सपथ यह वरदान न आन ॥ स्वप्न इन्द्रजालवत् पश्य दिनानि त्रीणि पंच वा।मित्र क्षेत्र धनआगार दारया आदि सम्पद : ॥२॥ ये तीन-पाँच केवल हैं दिवास्वप्न के इन्द्रजाल सम । मित्र, कलत्र, क्षेत्र पर अधिकार धन और वैभवशाली गेह संपत्ति से भरपूर हों पर झूठ हैं ॥२॥