अष्टावक्र संहिता; अध्याय XI : प्रज्ञा अष्टावक्र उवाच : भावाभाव विकाराश्च स्वभावात् इति निश्चयी । निर्विकारो गतक्लेश : सुखेन एव उपशाम्यति ॥१॥ अष्टावक्र ने कहा: अस्तित्व और अनिस्तत्व दोनों को ही विकार जान स्वभाव के छोड़ इस विकार को । निर्विकार और क्लेशों से मुक्त हो तू सुख से स्थिर कर स्वयं को ॥१॥ ईश्वर: सर्वनिर्माता न अन्य इति निश्चयी । अन्तर्गलित सर्वांश : शान्त: क्व अपि न सज्जते ॥२॥ निश्चित जान कोई और नहीं केवल ईश्वर है निर्माता इस विश्व का । अन्तर की सब आशाओं को गला शान्त मन निस्पृह हो तू जग में विचर ॥२॥