ग़ज़ल- लड़कपन से उबर पाए हैं जब से, जिए बस ज़िन्दगी अपने ही ढब से। दुआ मेरी रही बस ये ही रब से। रहे इंसानियत का मान अब से, हुआ जब से मुझे दीदार उनका, रहा मक़्सद यही इक ख़ास तब से। बताया बेज़ुबां आँखों ने वो भी, वो कह पाए जिसे अब तक न लब से। जो उपदेशों पे अपने चल सका हो, ज़माना मुंतज़िर है उसका कब से। मसाइल ज़िन्दगी के हो सके हल, रखा है स्वार्थ को कुछ दूर जब से। व्यवस्था कुछ बने ऐसी वतन में, किसी का भी न हो अपमान, अब से। सचाई से किया जब आकलन तो, लगे कुछ फ़ैसले अपने अजब से। अँधेरे जब डराते ज़िन्दगी के। तो पाते रास्ता 'माहीर'अदब से। मुंतज़िर=प्रतीक्षा करने वाला, इंतजार में। अदब=साहित्य, शिष्टाचार। माहीर