Ghazal एक ग़ज़ल- जागृत जब-जब यहाँ जनमन हुआ, तृप्त बस तब-तब मेरा जीवन हुआ। सत्य की जो शोध से रहता विमुख, वस्त्र उसका तो सदा उतरन हुआ। देश सदियों तक रहा परतंत्र क्यों? क्या कभी इस पर कोई मंंचन हुआ? स्वार्थ में ही रत रहा जो रात-दिन, व्यर्थ उसका दोस्तो तन-मन हुआ। ज़ह्न में जो चल रहा इंसान के, ज़िन्दगी में उसका ही मंचन हुआ। शोषकों का साथ कुछ हमने दिया, हाँ मगर अपराध वो सहवन हुआ। लोकहित में,शोध का जो क्षेत्र है, वो ही मेरे वास्ते उपवन हुआ। सहवन=विस्मृतिवश,भूल में,अज्ञानता में,अनजाने में!