अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति भव:अयम् भावनामात्र: न किंचित् परमार्थत:। न अस्ति अभाव:स्वभावानाम् भावअभाव विभाविनाम् ॥४॥ भावना-मात्र यह सब जगत वास्तविकता इसकी कुछ भी नहीं। स्वभाव का अस्तित्व रहता सर्वदा भावना-मात्र यह जग टिकता नहीं॥४॥ न दूरम् न संकोचात् लब्धम् एव आत्मन:पदम् निर्विकल्पम् नि:आयासम् निर्विकारम् निरंजनम् ॥५॥ आत्म न दूर है न पास है उसको प्राप्त करना पड़ता नहीं। निर्विकल्प,कूटस्थ, विकारों से शून्य,अकलुष होने से वह स्वयं प्राप्य है ॥५॥ व्यामोहमात्र विरतौ स्वरूपादानमात्रत:। वीतशोका:विराजन्ते निरावरणदृष्टय:॥६॥ महामोह के मिटते ही स्वरूप का है ज्ञान होता। दृष्टि का आवरण हटता ज्ञानी वीतशोक हो विराजता ॥६॥