अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति भाव अभाव विहीन: य:तृप्त:निर्वासन:बुध: न एव किंचित् कृतम् तेन लोकदृष्टा विकुर्वता ॥१९॥ अस्ति नास्ति से ऊपर उठकर वासना-विहीन,नित्य-तृप्त बुद्धिमान कुछ नहीं करता पर लोगों की दृष्टि में सब कुछ करता॥१९॥ प्रवृतौ वा निवृतौ वा न एव धीरस्य दुर्ग्रह:। यदा यत् कर्तुम् आयाति तत् कृत्वा तिष्ठत:सुखम् ॥२०॥ प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही स्थितियों में धीरपुरुष घबराता नहीं। जो काम आता हाथ में उसको करता कुशलता से और सदैव रहता सुखी हो ॥२०॥ निर्वासन:निरालम्ब: स्वच्छंद:मुक्तबंधन: क्षिप्त:संस्कारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत् ॥२१॥ वासना-विहीन,स्वतंत्र बंधन-मुक्त स्वच्छंद व्यक्ति। संस्कार-वायु से छूटा अहम्-विहीन व्यक्ति (पेड़ के) सूखे पत्ते की तरह डोलता॥२१॥