अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति न विक्षेप:न च ऐकाग्रयम् न अतिबोध:न मूढता। न सुखम् न च वा दु:खम् उपशान्तस्य योगिन: ॥१०॥ भटकाव नहीं,एकाग्रता नहीं ज्ञान का आधिक्य नहीं, मूढ़ता भी नहीं। अज्ञान में न दु:खी जानकर न सुखी योगी स्थित रहता सदा शान्त भाव में॥१०॥ स्वाराज्ये भैक्ष्यवृत्तौ च लाभ अलाभे जने वने । निर्विकल्प स्वभावस्य न विशेष:अस्ति योगिन : ॥११ ॥ निर्विकल्प स्वभाव के योगी को स्वर्ग के सुख में और भिक्षावृत्ति में संसार में,वन में,लाभ और हानि में अन्तर कुछ भासता नहीं ॥११॥ क्व धर्म: क्व च वा काम: क्व च अर्थ: क्व विवेकिता । इदम् कृतम् इदम् न इति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिन: ॥१२॥ द्वन्द्वों से मुक्त योगी के लिए, क्या तो करणीय धर्म और क्या काम-वासना। अर्थ की इच्छा कहाँ सांसारिक चातुर्य कहाँ यह होगया,यह करना अभी शेष है,कहाँ ॥१२॥