अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति कृत्यम् किम अपि न एव अस्ति न क्व अपि ह्रदि रंजना। यथाजीवनम् एव इह जीवन्मुक्तस्य योगिन: ॥१३॥ करणीय कर्म कुछ नहीं ह्रदय में कोई वासना नहीं जीवन-मुक्त योगी जो सामने आता उसी को करता कर्तव्य मान कर॥१३॥ क्व मोह:क्व च वा विश्वम् क्व तद्धानम् क्व मुक्तता सर्वसंकल्पसीमायाम् विश्रान्तस्य महात्मन: ॥१४॥ सभी संकल्पों की सीमाएँ लाँघने वाले शान्त-स्थिर महात्मा के लिए। मोह कहाँ,यह संसार कहाँ त्यागने को कुछ भी कहाँ और मुक्त होने के लिए क्या बचा॥१४॥ येन विश्वम् इदम् दृष्टम् स:नअस्ति इति करोति वै। निर्वासन:किम् कुरुते पश्यन् अपि न पश्यति ॥१५॥ जिसके लिए यह विश्व हो वह उसे निषेध करने को कहे। पर वासना से मुक्त को क्या? देखते भी जो उसको देखता नहीं॥१५॥