Chanda Mama (Kavita) रामधारी सिंह 'दिनकर'--- हठ कर बैठा चाँद एक दिन,माता से यह बोला, सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला। सन-सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ, ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ। आसमान का सफ़र और यह मौसम है जाड़े का, न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का। बच्चे की सुन बात,कहा माता ने'अरे सलोने`, कुशल करे भगवान,लगे मत तुझको जादू टोने। जाड़े की तो बात ठीक है,पर मैं तो डरती हूँ, एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ। कभी एक अँगुल भर चौड़ा,कभी एक फ़ुट मोटा, बड़ा किसी दिन हो जाता है,और किसी दिन छोटा। घटता-बढ़ता रोज़,किसी दिन ऐसा भी करता है नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है अब तू ही ये बता,नाप तेरी किस रोज़ लिवाएँ सी दे एक झिंगोला जो हर रोज़ बदन में आए! (अब चाँद का जवाब पढ़िए। मुझे नहीं पता कि यह मौलिक कविता में था या,बाद में किसी ने जोड़ दिया,पर जवाब पढ़ लीजिये!) हंसकर बोला चाँद,अरे माता,तू इतनी भोली। दुनिया वालों के समान क्या तेरी मति भी डोली? घटता-बढ़ता कभी नहीं मैं वैसा ही रहता हूँ। केवल भ्रमवश दुनिया को घटता-बढ़ता लगता हूंँ। आधा हिस्सा सदा उजाला,आधा रहता काला। इस रहस्य को समझ न पाता भ्रमवश दुनिया वाला। अपना उजला भाग धरा को क्रमशः दिखलाता हूँ। एक्कम दूज तीज से बढ़ता पूनम तक जाता हूँ। फिर पूनम के बाद प्रकाशित हिस्सा घटता जाता। पन्द्रहवाँ दिन आते-आते पूर्ण लुप्त हो जाता। दिखलाई मैं भले पड़ूँ ना यात्रा हरदम जारी। पूनम हो या रात अमावस चलना ही लाचारी। चलता रहता आसमान में नहीं दूसरा घर है। फ़िक्र नहीं जादू-टोने की सर्दी का,बस,डर है। दे दे पूनम की ही साइज का कुर्ता सिलवा कर। आएगा हर रोज़ बदन में इसकी मत चिन्ता कर। अब तो सर्दी से भी ज़्यादा एक समस्या भारी। जिसने मेरी इतने दिन की इज़्ज़त सभी उतारी। कभी अपोलो मुझको रौंदा लूना कभी सताता। मेरी कँचन-सी काया को मिट्टी का बतलाता। मेरी कोमल काया को कहते राकेट वाले कुछ ऊबड़-खाबड़ ज़मीन है,कुछ पहाड़,कुछ नाले। चन्द्रमुखी सुन कौन करेगी गौरव निज सुषमा पर? खुश होगी कैसे नारी ऐसी भद्दी उपमा पर। कौन पसन्द करेगा ऐसे गड्ढों और नालों को? किसकी नज़र लगेगी अब चन्दा से मुख वालों को? चन्द्रयान भेजा अमरीका ने भेद और कुछ हरने। रही सहीजो पोल बची थी उसे उजागर करने। एक सुहाना भ्रम दुनिया का क्या अब मिट जाएगा? नन्हा-मुन्ना क्या चन्दा की लोरी सुन पाएगा? अब तो तू ही बतला दे माँ कैसे लाज बचाऊँ? ओढ़ अन्धेरे की चादर क्या सागर में छिप जाऊँ?