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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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7:35 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति येन अहम् परम् ब्रह्म स:अहम् ब्रह्म इति चिन्तयेत्। किम् चिन्तयति निश्चिन्त: द्वितीयम् यो न पश्यति ॥१६॥ ब्रह्म दर्शन हुआ जिसको वह ब्रह्म होकर रह गया। निश्चिन्त चिन्ता करे किसकी: जिसको दूसरा कुछ भी दीखता नहीं॥१६॥ दृष्ट:येन आत्मवि़ेक्षेप: निरोधम् कुरुते तु असौ। उदार:तु न विक्षिप्त: साध्य अभावात् करोति किम्॥१७॥ जो आत्म में देखता विक्षेप को वही करता प्रयत्न निरोध का। उदार साधक के लिए विक्षेप कुछ भी नहीं प्राप्त करने के लिए जिसको कुछ नहीं फिर वह क्या करे? ॥१७॥ धीर:लोकविपर्यस्त: वर्तमान:अपि लोकवत्। न समाधिम् न विक्षेपम् न लेपम् स्वस्य पश्यति ॥१८॥ लोकवत व्यवहार करते भी धीर पुरुष लोक के व्यवहार में फँसता नहीं। न दीखता वह समाधि में न ही जगत-व्यवहार में; जग देखता उसको सदा राग से उन्मुक्त ही॥१८॥
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