एक ग़ज़ल- सभ्यता की बज़्म से जिसको निकाला जाएगा, उससे अपना दर्द फिर कैसे सँभाला जाएग। काम जनहित का अगर कुछ हो सका तुमसे कहीं, देख लेना दूर तक उसका उजाला जाएगा। जानता हूँ दर्द ही अक्सर मुझे उनसे मिले, माँगते मासूम बनकर वो, न टाला जाएगा। आस्था, विश्वास का है भार इतना सोच पर, लग रहा है आदमी सांचों में ढाला जाएगा। रंग भी निखरेंगे इसके रूप भी दमकेगा ख़ूब, ख़्वाब को 'maahir' तो पहले दिल में पाला जाएगा।