सुप्रभात! प्रस्तुत है एक ग़ज़ल सभी चाहें हैं औरों में, महज़ इक़रार की सोचें, किसी को भी कहाँ भातीं कभी इंकार की सोचें। मुसलसल हो रही हैं कम, यहाँ परिवार की सोचें, घरों को बाँटती रहतीं हैं बस दीवार की सोचें। समेटे वो सभी कुछ, ये रहीं ज़रदार की सोचें, ज़माने को बड़ा करती रहीं फ़नकार की सोचें। सियासत में ग़रीबी भी रही बस वोट का जरिया, ग़रीबों के भले की कब रहीं सरकार की सोचें। ग़रीबी और बेकारी पे सोचा तो यही पाया, हुईं तूफ़ान के जैसी यहाँ पतवार की सोचें। समस्या का नहीं मिलता कभी भी हल झगड़ने से, खड़े जो इस तरफ़, वो भी ज़रा उस पार की सोचें। यही होता रहा यारो हमेशा से ज़माने में, सदा हारीं हैं 'maahir' ढाल से, तलवार की सोचें। -