ग़ज़ल- मुसलसल ज़िन्दगी बल खा रही है, जहां पे रीझ के इतरा रही है। मुसलसल=लगातार, सतत, वही दुनिया में इक जल्वानुमा है, मगर दुनिया तो धोखा खा रही है। वही=यहाँ ईश्वर के लिए प्रयुक्त हुआ है,जल्वानुमा=दृष्टिगोचर होना, दिखना नज़र जो आ रही हर शय अलग कुछ, अना हमको यहाँ भरमा रही है। शय=वस्तु,अना=अहंकार अना देखो तो कितनी नासमझ है, इबादत से जो ये टकरा रही है। वो जीते ज़िन्दगी लम्हों की लेकिन, बक़ा की मुझको तो चिंता रही है। लम्हा=क्षण,बक़ा=शाश्वतता कमी अपनी भी कुछ तुमको मिलेगी, कली कोई अगर मुरझा रही है। जो ख़ुद की फ़िक्र ही उनको है,तो हो, मेरी सब के लिए चिंता रही है। तुम्हारे दिल में,बेेशक़,घर करेगी, ग़ज़ल जो दिल से दिल की आ रही है।