अष्टावक्र संहिता अध्याय I : आत्म- अनुभूति का निर्देश : अष्टावक्र संहिता शुद्ध अद्वैत को समझने के लिए बीस अध्यायों का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। अभी तक इसके अन्तिम दो और अठारहवें अध्याय के कुछ श्लोकों का भावानुवाद प्रस्तुत किया गया अब ग्रंथ के प्रथम अध्याय से प्रारम्भ करते हैं । यह कृति विदेह राजर्षि जनक और अष्टावक्र ऋषि के संवाद के रूप प्रस्तुत की गई है । जनक उवाच: कथं ज्ञानम् अवाप्नोति कथं मस्तिष्क : भविष्यति । वैराग्यं च कथं प्राप्तम् एतत् ब्रूहि मम प्रभो ॥१॥ कैसे होगा प्राप्त ज्ञान, कैसे होगी मुक्ति । कैसे पाऊँगा विराग हे प्रभो आप कहिये मुझसे ॥१॥ अष्टावक्र उवाच : मुक्तिम् इच्छसि चेत् तात विषयान् विषवत् त्यज । क्षमा, आर्जवम्, दया, संतोष सत्यम् पीयूषवत् भज ॥२॥ तात ! मुक्ति इच्छा तुझे यदि है छोड़ विषयों को विष समान । और क्षमा, आर्जव,दया, संतोष सत्य को तू पीयूष समान जान ॥२॥ Paavan Teerth