ग़ज़ल- झूठ को आज ही जो नकारा नहीं, झेल पाओगे कल का नज़ारा नहीं। क़त्ल पर मेरे चुप हैं वो ये सोच कर, आज नम्बर है इसका,हमारा नहीं। रोटियों के लिए सोच बिकने लगें, इससे बदतर तो कोई नज़ारा नहीं। जंग है हक़,वजूदों की ख़ातिर जो हो, और इसके बिना तो गुज़ारा नहीं। तोड़ देना न इस को हँसी खेल में, टूट कर दिल ये जुड़ता दुबारा नहीं। जान दे दूँ मैं दिल तो ये है चीज़ क्या, आपने प्यार से बस निहारा नहीं। वक़्त देता नहीं है मुआफ़ी उसे, भूल को जिसने अपनी सुधारा नहीं। 'Maahir'