एक ग़ज़ल- मुझे तो यारो यही लगा है, कि ज़र्रे-ज़र्रे में राब्ता है। ज़र्रा=सबसे छोटा कण जो दिख सकता है, राब्ता=सम्बन्ध जो कर चुका ज़िन्दगी में अब तक, मुझे तो उससे सिवा मिला है। सिवा=अतिरिक्त न कुछ किया तो बिखरता है घर, सँवारने से है सँवर सका है। मेरी जो छवि दिख रही है उस पर, मेरे सुखन का असर रहा है। सुखन=साहित्य जो दिक्कतें कुछ हुईं हैं उनकी, वजह में मेरा अहं रहा है। हर एक ज़र्रे में नूर जिसका, उसे ही मैंने ख़ुदा कहा है। नूर= प्रकाश हुए जो सुख-दुख के ख़ास अनुभव, ग़ज़ल में उनको पिरो दिया है। 'Maahir'