skip to main |
skip to sidebar
RSS Feeds
A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
![]() |
![]() |
8:38 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
*धर्म क्या है ? - धर्म किसे कहते हैं ??* धर्म एक संस्कृत शब्द है। धर्म का अर्थ बहुत व्यापक है। जो धारण करने योग्य है, वही धर्म कहलाता है।जैसे हम किसी नियम को, व्रत को धारण करते हैं इत्यादि। इस अनुसार धर्म का अर्थ है कि जो सबको धारण किए हुए है अर्थात धारयति- इति धर्म:!। अर्थात जो सबको संभाले हुए है वे धर्म ।धर्म के बिना यह सारा संसार सारी सृष्टी चल ही नही सकती जैसे पृथ्वी समस्त प्राणियों को धारण किए हुए है यह पृथ्वी का धर्म / व्रत है। हर वस्तु का धर्म गुण होता है जैसे पानी का धर्म शीतलता। अग्नि का धर्म जलना और प्रकाश करना। पशु पक्षियों का धर्म निश्चित है लेकिन मनुष्य धर्म गुण अपनाने में स्वतंत्र है। तभी वे मनुष्य से अमनुषय भी बन जाता है।धर्म वे नियम या कर्म है जिस पर चलना पुण्य और जिन पर न चलना पाप कहलाता है। हर व्यक्ति पूर्व जन्म के संस्कारों से या जन्म के बाद शिक्षा से धर्म और अधर्म के गुण प्राप्त करता है। अगर वे जीवन में मनुष्यता के गुण लेकर चलता है तो उसे धार्मिक व्यक्ति कह सकते हैं। ईशवर ने जो हर मनुष्य के हृदय में मनुष्यता के गुण दिये है उन गुणों पर चलने और अपनाने से ही व्यक्ति को धार्मिक कहा जा सकता है। वास्तव में धर्म आत्म उन्नती व आत्म कल्याण का एक मात्र पवित्र मार्ग है. उससे हट कर सभी क्रिया कलाप डकोसले पाखण्ड है या सम्प्रदाय कहलाते है धर्म नहीं। जिसका कोई लाभ नहीं। मनुष्य के क्या गुण है ? उसके लिए क्या धारण करने योग्य है ? जिससे वे आपना लोक व परलोक सुधार सकता है और मनुष्य कहला सकता है ? वे हैं धैर्य रखना दया करना क्षमा करना सत्यता मन और कर्मो में क्रोद्ध न करना चोरी न करना इन्द्रियों पर कंट्रोल करना शरिरक मानसिक स्वच्छता ज्ञान बढ़ाना यह सब धर्म है धर्म के नियम है जो इन को धारण करने से वे धार्मिक कहलाता है।* बाहरी चिन्ह मनुष्य को धार्मिक नहीं बनाते अपितु आत्मिक व मानसिक गुण व्यक्ति को धार्मिक बनाते है। तिलक,टीका,भगवा,टोपी, भस्म, पगड़ी लगा लेने से कोई धर्मात्मा या धार्मिक नहीं बनता। धर्म सभी काल में सभी स्थान पर सभी व्यक्तियों के लिए एक ही है क्योंकि धर्म के नियम सत्य तर्क विज्ञान और अटल सृष्टि नियमों पर आधारित होते है । धर्म का कोई नाम नही होता जहाँ नाम है वे धर्म नही सम्प्रदाय है। धर्म की परिभाषा इस प्रकार भी कि गई है जो पक्ष पात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार व्यवहार हैं उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म हैं।जो ईश्वर आज्ञा के विरुद्ध नहीं हैं और आत्मा की आवाज को सुन कर कार्य करना उसको ही धर्म मानना चाहिए। जो व्यवहार स्वयं को प्रिय नही वे दुसरो से भी न करना धर्म है। इन बातों को जो व्यक्ति मत संघ संस्था नहीं मानती वे सभी मज़हब या सम्प्रदाय कहलाते है जिनके अपने अलग अलग नियम अलग अलग शिक्षाएँ व सिद्धांत है। किसी विशेष स्थान पर जाना और माथे टेकना इबादत या नाम रटना धर्म नही। महार्षि मनु ने धर्म के दस लक्ष्मण बताऐ हैं जिन को अपना कर ही मनुष्य धार्मिक कहला सकता है. जो कि इस प्रकार है :- धर्ति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचम् इन्द्रियनिग्रह धी विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्। 1.धृति-सुख,दुःख ,हानि,लाभ,मान,अपमान मे धैर्य रखना 2.क्षमा- शरीर मे सामर्थ्य होने पर भी बुराई का प्रतिकार न करना या बदला न लेना क्षमा है। 3.दम-मन मे अच्छी बातो का चिंतन करना बुरी बातों को दबाना हटाना 4.अस्तेय-बिना दूसरे की आज्ञा के कोई वस्तु न लेना चोरी न करना 5.शौच-शरीर की आत्मिक और शारीरिक शुद्धि रखना 6-इन्द्रियनिग्रह हाथ,पांव,आंख,मुख,नाक आदिको अच्छे कार्यो मे लगाना।इन्द्रियों को संयम में रखना। 7.धी-बुद्धि बढाने हेतू प्रयत्न करना 8.विद्या-ईश्वर द्वारा बनाये गए प्रत्येक पदार्थ का ज्ञान प्राप्त करना तथा उनसे उपयोग लेना 9.सत्य-जो हम जानते है उसको वैसा ही अपने द्वारा कहना मानना सत्य कहलाता है।हमेशा सत्य ही बोलना। 10.अक्रोध-इच्छा से उत्पन्न क्रोध का त्याग करना ही अक्रोध है। महर्षि पतंजलि ने अनुशासन को धर्म कहा जो योग द्वारा प्रप्त किया जा सकता है। महर्षि पतंजलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' (योगः चित्तवृत्तिनिरोधः) के रूप में परिभाषित किया है। उन्होंने 'योगसूत्र' नाम से योगसूत्रों का एक संकलन किया है, जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है। अष्टांग योग (आठ अंगों वाला योग), यह आठ आयामों वाला मार्ग है। योग के ये आठ अंग हैं:- १) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणायाम, ५) प्रत्याहार, ६) धारणा ७) ध्यान ८) समाधि यम:- 1. अहिंसा – शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना 2. सत्य – विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना 3. अस्तेय – चोर-प्रवृति का न होना 4. ब्रह्मचर्य – दो अर्थ हैं: * चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना * सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना 5. अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना 2. नियम:- 1. शौच – शरीर और मन की शुद्धि 2. संतोष – अपनी स्थिति में सदा सन्तुष्ट रहना 3. तप – स्वयं से अनुशाषित रहना 4. स्वाध्याय – आत्मचिंतन करना 5. ईश्वर-प्रणिधान – इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा यह पांच यम और पाँच नियम ही धर्म की यात्रा का आरम्भ है। धर्म मूल रूप में संस्कृत शब्द है। इंग्लिश की किताबों में धर्म का अर्थ परिभाषा के रूप में नही मिलता। इंग्लिश में Man का अर्थ भी नही है।धर्म को इंग्लिश में विश्वास / belief अर्थात अलग अलग विश्वासों को धर्म कहा है,वहाँ एक व स्पष्ट परिभाषा नही मिलती । man के लिये इंग्लिश में अर्थ human लिखा और human मतलब शरिरक ढाँचा। जबकि उनके अनुसार बन्दर वग़ैरा भी human कहलाएँगे। जबकि वैदिक ग्रंथों में मानव को “मनुर्भव “ कहा गया है अर्थात जिसमें मनुष्यता के गुण हो वही मनुष्य कहलाने लायक है। मानव कि परिभाषा “जो प्राणी विचार करके उचित और अनुचित को सोच विचार कर कार्य करता है वे मनुष्य कहलाता है “ जो इसके वपरित कार्य करेगा वे आमनुष्य कहलायेगा। जिस समाज में हम रह रहे हैं वे धर्म की बुनियाद पर ही चल रहा है और जो गिरावट देख रहे हैं वे धर्म पर न चलने वाले सम्प्रदायों के कारण हुई जिन्होंने अपने अपने नियम व सिद्धांत गढ़ लिए और मनुष्य जाति को गुटों में बाँट दिया ।धर्म और सम्प्रदाय को एक मानने से ही कुछ लोग धर्म को गाली या रोग कह देते है। महर्षी दयानन्द सरस्वती के अनुसार *मनुष्य किसे कहते हैं!* मनुष्य उसी को कहना जो मननशील होकर अपनी आत्मा के समान अन्यों के सुख – दुख और हानि – लाभ को समझे । अन्यायकारी बलवान से न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे । इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं – कि चाहे वे महाअनाथ , निर्बल क्यों न हों – उनकी रक्षा , उन्नति , प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती महाबलवान और गुणवान भी हो तथापि उसका नाश , अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वदा किया करें । इस काम में चाहे कितना ही दारुण दुख प्राप्त हो , चाहे प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यरुप धर्म से पृथक कभी न होवे । महर्षी दयानन्द सरस्वती
![]() |
Post a Comment