ग़ज़ल: ----- बस मेरी इस ज़िंदगी में इक यही चक्कर हुआ मैं जहाँ पैदा हुआ उस जा न मेरा घर हुआ //1 मुझसे बढ़कर कौन बेचारा था राह-ए-इश्क़ में तुझसे बढ़कर कौन उल्फ़त में सितम-परवर हुआ //2 और तो बस दोज़ख़-ए-दुन्या में ही क़ाएम रहे उसको ही जन्नत मिली तू मेहरबाँ जिस पर हुआ //3 हिंदी उर्दू में यही इक फ़र्क़ है, लफ़्ज़ों का, बस आँख उसकी नम हुई और मेरा दीदा तर हुआ //4 उम्र की मत धौंस दे तू, सबको ये मालूम है आदमी के जन्म से पहले यहाँ बंदर हुआ //5 सुख मिला या दुख मिला, ख़ुशियाँ मिलीं या ग़म मिले ज़िंदगी में जो हुआ, जैसा हुआ, बेहतर हुआ //6 गाँव के ही कुछ भले सज्जन ने आकर की मदद जब कभी भी हाईवे पर ट्रक मेरा पंचर हुआ //7 'राज़'इक मिस्कीन कुनबे में हुआ मेरा जनम तंगहाली और दुखों से सामना मेरा शब्दार्थ- --------- जा- जगह राह-ए-इश्क़ में- प्रेम की राह में उल्फ़त- वह मनोवृत्ति जो किसी को बहुत अच्छा समझकर सदा उसके साथ या पास रहने की प्रेरणा देती है, दोस्तों या मित्रों में होने वाला पारस्परिक संबंध, प्यार, प्रेम, स्नेह, मोहब्बत, चाहत सितम-परवर- ज़ालिम, अन्यायी, सितम करने वाला दोज़ख़-ए-दुन्या- संसार रूपी नरक क़ाएम- किसी नियत स्थान पर टिका या ठहरा हुआ, अपनी जगह पर रहना, दृढ़, मजबूत, पायदार, स्थायी, टिकाऊ, बरक़रार, जो स्थापित हो, स्थिर, यथावत, शेष मेरा दीदा तर हुआ- मेरी आँख नम हुई मिस्कीन- दरिद्र, निर्धन, ग़रीब, मुहताज, बेचारा, परेशान हाल, आधीन, कंगाल, सीधा साधा, लाचार, भोला, विनम्र कुनबा- एक घर के लोग या एक ही कर्ता के अधीन या संरक्षण में रहने वाले लोग, परिवार, घराना, ख़ानदान मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल ------------------ क़तरा-ए-मय बस-कि हैरत से नफ़स-परवर हुआ ख़त्त-ए-जाम-ए-मै सरासर रिश्ता-ए-गौहर हुआ //1 ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना ग़ैर ने की आह लेकिन वो ख़फ़ा मुझ पर हुआ //2 गरमी-ए-दौलत हुइ आतिश-ज़न-ए-नाम-ए-निको ख़ाना-ए-ख़ातिम में याक़ूत-ए-नगीं अख़्तर हुआ //3 नश्शा में गुम-कर्दा-राह आया वो मस्त-ए-फ़ित्ना-ख़ू आज रंग-रफ़्ता दौर-ए-गर्दिश-ए-साग़र हुआ //4 दर्द से दर-पर्दा दी मिज़्गाँ-सियाहाँ ने शिकस्त रेज़ा रेज़ा उस्तुख़्वाँ का पोस्त में नश्तर हुआ //5 ज़ोहद गरदीदन है गर्द-ए-ख़ाना-हा-ए-मुनइमाँ दाना-ए-तस्बीह से मैं मोहरा-दर-शश्दर हुआ //6 ऐ ब-ज़ब्त-ए-हाल-ए-ना-अफ़्सुर्दागाँ जोश-ए-जुनूँ नश्शा-ए-मय है अगर यक-पर्दा नाज़ुक-तर हुआ //7 इस चमन में रेशा-दारी जिस ने सर खेंचा 'असद' तर ज़बान-ए-लुत्फ़-ए-आम-ए-साक़ी-ए-कौसर हुआ //8 मिर्ज़ा ग़ालिब