अष्टावक्र संहिता अध्याय २ : आत्म- अनुभूति का निर्देश न त्वं विप्रादिको वर्णो न आश्रमी न अक्ष गोचर:। असंगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव ॥५ ॥ विप्रादि तेरा वर्ण *क्योंकर आश्रमों** से भिन्न तू है । दृष्टि का विषय न तू है तू नि:संग है , निराकार तू है विश्व-साक्षी रह सुखी हो ॥५॥ ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास । धर्म अधर्मौ सुखं दु:खं मानसानि न ते विभो । न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा ॥६॥ धर्म-अधर्म, सुख- दु:ख मन की क्रिया भर,तेरी न हैं हे विभो । कर्ता नहीं तू, भोक्ता नहीं तू मुक्त तू है सर्वदा ॥६॥ Paavan Teerth