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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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7:43 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति कृतम् देहेन कर्म इदम् न मया शुद्धरूपिणा। इति चिन्तानुरोधी य: कुर्वन् अपि करोति न ॥२५॥ (जो रखता विचार यह मन में) कि कर्म होते केवल देह से न कि शुद्ध अन्त:करण से ऐसा सोचने वाला कर्म को करता हुआ भी करता नहीं है कर्म को॥२५॥ अतद्वादीव कुरुते न भवेत् अपि बालिश:। जीवन्मुक्त : सुखी श्रीमान् संसरन् अपि शोभते॥२६॥ जीवन्मुक्त के लिए सब कार्य करते हुए भी करना नहीं बनता। ऐसा व्यक्ति संसार के व्यापार में सुखी श्रीमान होकर शोभता॥२६॥ नानाविचारसुश्रान्त: धीर:विश्रान्तिम् आगत: न कल्पते न जानाति न श्रृणोति न पश्यत॥२७॥ धीर पुरुष नाना विचारों को सुनकर विश्रांति को पाता सदा। व्यर्थ में न वह विचारता न जानता,न सुनता,न देखता॥२७॥
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