अष्टावक्र संहिता. अध्याय XVIII:शान्ति अप्रयत्नात् प्रयत्नात् वा मूढ़ा : न आप्नोति निर्वृत्तिम् । तत्त्वनिश्चयमात्रेण प्राण : भवति निर्वृत्त : ॥३४॥ सब कुछ छोड़ कर बैठने अथवा सक्रिय प्रयत्न करने पर भी अज्ञानी को शान्ति मिलती नहीं । परंतु तत्त्व-निश्चय मात्र से ज्ञानी प्रसन्न हो जाता तुरंत ॥३४॥ शुद्धम् बुद्धम् प्रियम् पूर्णम् निष्प्रपंचम् निरामयम् । आत्मानम् तम् न जानन्ति तत्र अभ्यासपरा जना : ॥३५॥ शुद्ध बुद्ब प्रिय पूर्ण निष्प्रपंच अकलुष आत्म को न जानकर करते अनेक अभ्यास अज्ञानी इस संसार में ३५॥ न आप्नोति कर्मणा मोक्षम् विमूढ : अभ्यासरूपिणा । धन्य : विज्ञानमात्रेण मुक्त : तिष्ठति अविक्रय : ॥३६॥ अज्ञानी मात्र कर्म के अभ्यास से मोक्ष पाता है नहीं । ज्ञानी निश्चल हो विज्ञान मात्र से मुक्त होता:धन्य है ॥३६॥