अष्टावक्र संहिता ; अध्याय XVIII : शान्ति असमाधे अविक्षेपात् न मुमुक्षु : न च इतर : । निश्चित्य कल्पितम् पश्यन् ब्रह्म एव आस्ते महाशय : ॥२८॥ न समाधि से, न भटकाव से लगाव उसका न मोक्ष का इच्छुक न संसार का । जानकर निश्चयपूर्वक इस विश्व को असत(कल्पना मात्र) ज्ञानी रहता स्थित निरन्तर ब्रह्म में ॥२८॥ यस्यान्त : स्यात् अहंकार: न करोति करोति स : । निरहंकार धीरेण न किंचित् हि कृतं कृतम् ॥२९॥ अन्तर में जिसके बसता अहंकार वह यथार्थ में न करता हुआ कर्म रहता कर्मों में निरत नित्य । पर अहंकार-रहित धीर पुरुष रत रहते भी कर्मों में रहता विरत कर्म से ॥२९॥ न उद्विग्नम् न च संतुष्टम् अकर्तृ स्पन्दवर्जितम् । निराशम् गतसंदेहम् चित्तम् मुक्तस्य राजते ॥३०॥ आशा रखता नहीं किसी से चित्त से रह संदेह-मुक्त न संतुष्ट ,न उद्विग्न होता कभी । न ही प्रसन्न होता कभी कर्म न करते हुए भी व्यर्थ चेष्टा करता नहीं ॥३०॥