उर्दू शायरी का सफ़रनामा VII समय के साथ-साथ मुशायरों की तहजीब में बदलाव आया। पहले बिजली के न होने से मुशायरों में शायर ऊँची मसनद पर सुनने वालों से मुखातिब हो अर्ध चन्द्राकार रूप में अपने-अपने मर्तबे के अनुसार बैठा करते थे और मीर मुशायरे के आदेश पर शम्अ जब उनके सामने रखी जाती थी तब अपनी गज़लें, नज़्में और अशआर पढ़ा करते थे। अब बिजली आने से माइक तथा मंच की व्यवस्था आसान हो गई है। अब शायर मंच पर और श्रोता मंच के सामने नीचे बैठते हैं। मीर मुशायरे के आदेश पर शायर माइक पर जा-जा कर अपना कलाम सुनाते हैं। ये मुशायरे कभी ‘तरही’ (मिसरा-तरह पर गज़ल या नज़्म कही जाय) तो कभी ‘गैर तरही’ (बिना मिसरा तरह पर मन मर्जी गज़ल या नज़्म कही जाय) होते हैं। ये कभी सिर्फ गज़लों के तो कभी सिर्फ नज़्मों के होते हैं। अक्सर ये मिले-जुले (गज़ल और नज़्म दोनों) भी होते हैं। गैर तरही मुशायरे इसलिये रखे जाते थे कि शायर अपना बेहतरीन कलाम सुना सकें। तरही मुशायरों में शायर मिसरे में गिरह लगाने में ही पूरी ताकत लगा देते थे। इस तरह से बनी गज़लें भी एक ही तरह की हो जाती थी जिससे लोगों में उनके प्रति रुचि समाप्त हो जाती थी। इन मुशायरों में शायरों की शिरकत भी अमूमन कम रहती थी क्योंकि जब तक तरह मिसरे पर गज़ल न बने वे शिरकत कर ही नहीं सकते थे। गैर तरही मुशायरे सतरंगी हो सकते हैं और शुअरा से जुदा-जुदा रंग के कलाम सुनने को मिलते हैं। लेकिन अक़्सर शायर अपना सुना-सुुुनाया और पहले से ही प्रकाशित कलाम सुना कर गैर-तरही मुशायरे के उद्देश्य को ही ख़त्म कर देते हैं। अब तो मुशायरे रेडियो तथा दूरदर्शन पर भी होने लगे हैं व मीर-मुशायरा की जगह संचालकों ने ले ली है, जो ऐसे व्यक्ति होते हैं जिन्हें शेरो-सुखन तथा तहज़ीब की जरा भी समझ नहीं होती। अब कही जाने वाली गज़लों में भी पहली सी तग़ज़्ज़ुल1 नज़र नहीं आती। जो बात कही जाये सांकेतिक रूप में कही जाये, रंगों तगज़्ज़़ुल में कही जाय यही गज़लगो शायर का कमाल होता है। गज़ल लिखने की कला मोती पिरोने जैसी है इसमें महारत2 हर एक शख़्स को हासिल नहीं हो सकती। इसके लिये गज़ल के भाव में उतरना आवश्यक होता है। गज़ल का जो रूपक है वह उसका मर्म है। इस मर्म को पकड़ने के लिये गज़ल के विषय को हृदयंगम करना पड़ता है। तभी गज़ल के शेरों में रंगे-तग़ज़्ज़ुल आता है, सोजो-गुदाज़ आता है। जिस प्रकार मिठाई में मिठास, फूल में खुशबू, इनसान में इंसानियत और हिना में रंग आवश्यक है उसी तरह गज़ल में तग़ज़्ज़ुल आवश्यक है। यह तग़ज़्ज़ुल रूपकों की गहरी समझ तथा उनके सम्मिश्रण से आता है। इसके बिना गज़ल बेजान, बेमज़ा और फीकी लगती है। एक उदाहरण देकर इस बात को समझाता हूँ। ज़ौक़ का एक मशहूर शेर है कि- 1. तग़ज़्ज़ुल- काव्य रस; 2. महारत- निपुर्णता। नाम मंजूर है तो फैज़ के असबाब बना। पुल बना, चाह बना, मसजिदो-तालाब बना।। इस शेर में सिर्फ नसीहत दी गई है कि तूं नेक काम कर और फिर नेक कामों के दो तीन उदाहरण दे दिये गये हैं। अतः यह खालिस मौलवियाना किस्म का शेर नज़र आता है। और मौलवी साहब की सलाह पर कौन तवज़्जो देता है! अब आप ‘अज़ीज़’ लख़नवी साहब के एक शेर पर गौर करें- पैदा वोह बात कर कि तुझे रोयें दूसरे। रोना खुद अपने हाल पै यह जार-जार क्या ? आशिक सदा रोता-बिसूरता रहता है। इसी रूपक पर यह शेर है और शायर ने खुद को आशिक मान यह नसीहत दी कि खुद के लिये जार-जार रोने में तथ्य नहीं। और फिर यह सलाह कि ऐसा नेक काम कर कि दूसरे तेरे नुकसान पर रोयें। नेक काम क्या हो ये भी बताने की अब जरूरत नहीं रही। तो यह शेर तग़ज़्ज़ुल से भरा है, इसमें आवश्यक सोज़ो-ग़ुदाज है और इसलिये यह काबिले-तारीफ़ है। ऐसे ही दो शेर मीर तकी ‘मीर’ साहब के अर्ज़ करता हूँ- बारे-दुनिया में रहो ग़मज़दा या शाद रहो। ऐसा कुछ करके चलो, याँ कि बहुत याद रहो।। कहता है कौन तुझको याँ यह न कर तू वोहकर। पर हो सके तो प्यारे टुक दिल में भी जगह कर।। दूसरे शेर के आखिरी मिसरे में ‘प्यारे’ शब्द डाल कर मीर साहब ने वो रंगो तगज़्ज़ुल पैदा किया है कि उनकी बात मानने को हर कोई तैयार हो जाये। अस्ल में वर्तमान काल में गज़ल में काफी सारे बदलाव आए हैं और बाज़ारी इश्क़, हरज़ाई माशूक, बुलहविस आशिक, आदि रूपक बीते समय की बात हो गई है। लौंडेबाजी (अरमद परस्ती) से अब इसका कोई सरोकार नहीं है। नये-नये मज़मून गज़लगोई में शामिल हुए हैं और गज़ल गो शायरों ने एक से एक बेदाग