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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:46 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
उर्दू शायरी का सफरनामा-V कुछ लोगों का यह भी मानना है कि गोलकुंडा के शासक और सुल्तान, मुहम्मद कुली कुतुब शाह जो कि हैदराबाद शहर के संस्थापक माने जाते हैं ने उर्दू जुबान में शायरी की शुरुआत करी। यह मुगलिया सल्तनत के अमर बादशाह जलाल्लुद्दीन अकबर के समकालीन थे और उन्हीं की तरह कलाओं के क़द्रदान थे। उन्होंने तकरीबन 50,000 अशअर लिखे जिनमें गज़लें, नज़्में, मसनवियाँ, कसीदे, रूबाईयाँ और किते सभी शामिल थे। पहले हम शम्सुद्दीन ‘वली’ (दक्कनी) को उर्दू ज़ुबान में शायरी का जन्मदाता बता चुके हैं। लेकिन वे दिल्ली के शासक मुहम्मद शाह रंगीला के समकालीन थे जो अट्ठारहवीं शताब्दी में हुए थे। अतः कुली कुतुब शाह ही हकीकत में पहले उर्दू शायर कहे जा सकते हैं। उर्दू का नाम उस समय ‘रेख़्ता’ हुआ करता था और यह हिन्दी, फ़ारसी, अरबी, पंज़ाबी और दक़्कन की कुछ स्थानीय बोलियों के शब्दों के मिलन से बनी थी। इस ज़ुबान की विशेषता यह थी कि यह आम आदमी के समझ में आ जाती थी। कुली कुतुब शाह रंगीन तबीयत के इन्सान थे और प्रेम तथा शृंगार के विषयों पर कविता लिखते थे। और जैसा कि आप देख चुके हैं ऐसी कविताएँ ‘गज़लें’ कहलाती हैं। लेकिन इन्होंने सामाजिक विषयों जैसे मौसम, त्यौहार आदि पर भी कविताएँ लिखीं जो ‘नज़्म’ की श्रेणी में रखी जा सकती हैं। बहुत सारी कविताओं में इन्होंने अपनी बारह उप पत्नियों के सौन्दर्य का ही वर्णन किया है और बेगमों के नाम से ही इन गज़लों के नाम रक्खे जैसे, पियारी, गौरी, नन्ही, साँवली, छबीली आदि। कुली कुतुबशाह ने अपनी माशूक़ा ‘भागमती’ के नाम से ‘भाग-नगर’ की स्थापना की जो हैदराबाद के नाम से मशहूर हुआ। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम त्यौहारों जैसे होली, दीवाली, ईद तथा ऋतुओं जैसे बसन्त, बरसात आदि पर भी कविताएँ लिखीं जिन्हें नज़्म कहा जा सकता है। लेकिन उन्होंने सभी कविताओं को धार्मिक रंग देते हुए अन्त में हज़रत मुहम्मद का जरूर जिक्र किया है। कुली कुतुब शाह 47 वर्ष की अवस्था में परलोक सिधारे (1565-1611) लेकिन एक ऐसी ज़ुबान की शुरुआत कर गये जिसमें बाद में न केवल आला दर्जे की शायरी हुई बल्कि जो प्रशासन और कचहरियों की भाषा भी बनी। उनकी कुछ कविताओं के अंश यहाँ पर लिखना उचित रहेगा- प्यारी न कर तूँ सजन सों मानम। जो जागी जवानी तो फिर होगी कम।। यकीं जान जग में यह बात है सच। कि गौहर1 फुटे पर होता मोल है कम।।..... ......नबी सदके क़ुत्बा है तुझमें थे मस्त। सुहे सब बुतों में तूं उसका सनम।। तूं रंग रस के बाग की है कली। चूता है जीवन का तुुझ मुख से आब2।। रसीले अधर है तेरे मद-भरे। सो करते हैं उश्शाक़3 दिल को क़बाब।। कहूँ जुल्फ या ताजा सम्बल सुही। औ मुख फूल पर ज्यूं कि चाँद पर शबाब।। तिरि चाल थी मद मस्त लजे-गज4। नहीं उनमें यह भेद और यह शताब5।। नबी सद़के कुत्बा से गौरी मिली। तू गल बांदे उस सों पीवें शराब।। उर्दु शायरी का हमारा सफ़रनामा आगे भी चलता रहेगा और साथ ही साथ हम तरह तरह के अशआरों के बारे में जानकारी भी हासिल करते जाएँगे। अब हम देखेंगे कि ‘क़सीदा’ किसे कहते हैं और ‘मर्सिया’ क्या है। किसी व्यक्ति या वस्तु की तारीफ़ में जो कोई कविता लिखी गई हो उसे क़सीदा कहते हैं। राजाओं और सामन्तों के व्यक्तित्व तथा चरित्र की प्रशंसा में उनके चारण और भाट विरदावलियाँ कहा करते थे वैसी ही गज़लें, नज्में, शेर और अशअर उर्दू के शायर भी बादशाहों और नवाबों के लिये लिखा करते थे जिन्हें कसीदे कहा जाता था। इन कसीदों में अमूमन बढ़ा चढ़ा कर लिखा जाता था ताकि वह प्रसन्न हो जाये जिसकी तारीफ़ में कसीदा लिखा गया हो। ज़ौक और ग़ालिब दोनों ही बहादुरशाह ‘जफ़र’ के समय के अज़ीम6 शायर थे लेकिन ज़ौक को उस्तादे-शहंशाह का मर्तबा मिला था जब कि ग़ालिब को यह मर्तबा न मिल सका। 1. गौहर- मोती; 2. आब- चमक, पानी; 3. उश्शाक़- आशिकों; 4. लजे गज- हाथी की तरह; 5. शताब- जल्दबाजी; 6. अज़ीम- महान। लेकिन इसी मर्तबे ने ज़ौक़ की प्रतिभा का गला घोंट दिया क्योंकि उनको शहंशाह के लिए शायरी करनी पड़ती थी और उनकी चाह के अनुकूल शायरी करनी पड़ती थी। उसी समय एक और शायर हुए जनाब ‘मोमिन’। मोमिन एक ख़ालिस कलाकार थे, फ़नकार थे और किसी की तारीफ़ में कसीदा कहना उनके लिये मौत के समान था। ग़ालिब भी खालिस फ़नकार थे लेकिन ज़ौक़ से प्रतिस्पर्घा के चलते उन्होंने न केवल ‘सेहरा’ लिखा बल्कि उस्तादे-शहंशाह को ललकारने के बाद शहंशाह के डर से माफ़ीनामा भी लिखा। क़सीदे अमूमन वही शायर लिखते थे जो या तो फ़रमाबरदार1 थे या वजीफ़ा-खोर2 थे। ख़ालिस फ़नकार तो कसीदे लिखने अपनी शान के ख़िलाफ़ मानते थे। ज़ौक़ पूरी तरह से एक दरबारी शायर थे और कसीदे लिखने में जो महारत उन्होंने हासिल की वह कोई और शायर न कर सका। कसीदे भी मौजूं के हिसाब से अलग अलग तरह के हो सकते हैं। ख़ुदा की शान में लिखा गया क़सीदा, इबादत (भजन) का रूप धारण कर लेता है तो मुल्क़ की शान में लिखा गया क़सीदा ‘वतन-परस्ती’ की कविता बन जाता है। वीरता का बरवान करता क़सीदा प्रेरणात्मक कविता बन जाता है तो धर्म की महानता बरवानता क़सीदा धर्म प्रचार-प्रसार का साधन बन जाता है। इसी तरह ‘नूहा’ भी उर्दू शायरी की एक शाखा है। किसी व्यक्ति की मृत्यु पर शोक व्यक्त करने को कही गई शायरी नूहा कहलाती है ‘मर्सिया’ भी एक नूहा है जो हज़रत इमाम हुसैन (पैगम्बर मोहम्मद साहब के भतीजे) और उनके साथियों की हिम्मत, वीरता और शहादत3 की शान में कहा जाता है। वे करबला की लड़ाई में शहीद हुए और उनकी शहादत को शिया मुसलमान धर्म के लिए दी गई कुर्बानी मानते हैं। मर्सियों में अमूमन छः मिसरे होते हैं जिनमें चार मिसरों की एक तर्ज में बंदिश होती है तो अन्तिम दो मिसरों की एक अलग तर्ज होती है। ऐसे छह मिसरों की बंदिशों की माला का नाम ही मर्सिया पड़ा है। लेकिन यह बंदिशें केवल इमाम हसन और इमाम हुसैन से तथा कर्बला में उनकी शहादत से सम्बधित होनी चाहिए। सलामत अली ‘दबीर’ और बाबर अली ‘अनीस’ मर्सिया लिखने में सबसे आगे कहे जा सकते हैं। सलामत अली ‘दबीर’, मीर मुज़फ़्फ़र ‘ज़मीर’ के शार्गिद थे और ‘मर्सिया-रव्वानी’ के फ़न में अपने उस्ताद से भी आगे थे। वे ‘रूबाई’ लिखने में भी बहुत माहिर थे। रूबाई के बारे में अभी सिर्फ इतना कहना काफ़ी होगा कि यह एक चार मिसरों का छन्द है जो एक विशेष तर्ज़ (रज़ाज़) में लिखी और कही जाती है। 1. फ़रमाबरदार- आज्ञाकारी नौकर; 2. वजीफ़ाखोर- पेंशन पाने वाले; 3. शहादत- वीरता की मौत। उमर खय्याम को रूबाईयाँ लिखने में जो महारत हासिल थी वोह किसी शायर को नहीं हासिल हुई और इनका नाम रूबाईयों का पर्याय बन गया है। मर्सियों को तर्ज़ में पढ़ने के फ़न को मर्सियारव़्वानी कहा जाता है। इस फ़न में माहिर व्यक्ति मर्सिये के मौजूं में इतना डूब जाता है कि जैसे वह खुद कर्बला की लड़ाई में शामिल हो। इमाम हसन और हुसैन की शहादत को मुहर्रम के रूप में मनाया जाता है, जिसमें ताज़िये निकालने का और मर्सिये पढ़ने का रिवाज है। ‘दबीर’ मर्सिये पढ़ने में बहुत मसरूफ़1 थे। 1875 के मुहर्रम के रोज़ मर्सिया पढ़ते-पढ़ते ही वे फ़ौत हो गये। मसनवी के आला दर्जे के फ़नकार मीर हसन (सहरूलबयाँ नामक यादगार मसनवी के रचने वाले) के पोते बाबर अली ‘अनीस’ मर्सिया लिखने वाले दूसरे अज़ीम शायर थे। वे मीर ख़ालिक के बेटे और मौलवी हैदर अली लख़नवी और नजफ़ अली फैज़ाबादी के शार्गिद थे। वे नासिख़ के भी शार्गिद रहे और गज़लों से ही शायरी की शुरूआत की लेकिन अब्बा की सलाह पर मर्सियों को अपनाया और खूब शोहरत हासिल की। उन्होंने मर्सियों में कर्बला की लड़ाई की हकीकत को दर्शाया और उसके सूरमाओं की वीरता का नख-शिख वर्णन किया। वह उनकी मनः स्थिति उनके हाव-भाव आदि का ऐसा सजीव चित्रण करते थे कि सुनने वाला रोमांचित हो उठता था। ऐसा लगता था मानो कर्बला में पहुँच गये हों और वहाँ की लड़ाई में शामिल हो गये हों। वे मर्सिया-रव़्वानी में भी उतने ही माहिर थे जितने उसको लिखने तथा उसकी तर्जमंदी करने में थे। दबीर और अनीस ने मर्सियों के फ़न को अंजाम तक पहुँचाया। बाबर अली ‘अनीस’ के एक मर्सिये के दो छन्द पेशे खिदमत हैं‒ गर्मी का रोज़े-जंग की क्यूं कर करूं बयान। डर है कि मिस्ले-शमा2 ना जल उठे जुबां।। वोह लू के अल हजर3 ! वो हरारत के अलअमां4। रण की जमीं तो सुर्ख थी और जर्द 5 आसमां।। आबे- खुनक6 को खल्क तरसती थी ख़ाक पर। गोया हवा से आग बरसती थी ख़ाक पर।। वोह लू वो आफ़ताब की हिद्दत,7 वोह तबओताब। काला था रंग घूप से दिन का मिसाले-शब8।। 1. मसरूफ़- व्यस्त, डूबा होना; 2. मिस्ले शमा- शमा की तरह; 3. अल हजर- अल्लाह की पनाह; 4. अलअमां- अल्लाह की पनाह; 5. जर्द- पीला; 6. आबे खुनक- ठण्डा पानी; 7. हिद्दत- गर्मी; 8. मिसाले शब- रात की तरह; खुद नहरे-अलकमा1 के भी सूखे हुए थे लब। खेमे जो थे हबाबों 2 के तपते थे सब के सब।। उड़ती थी खाक, खुश्क़ था चश्मा हयात का। खौला हुआ था घूप से पानी फरात का।। और अब सलामत अली ‘दबीर’ के मर्सिये के दो छन्द पेश हैं। पहुँचे करीबे-फौज़ तो घबरा के रह गये। चाहा करें सवाल, पे शरमा के रह गये।। गैरत से रंग फक हुआ, थर्रा के रह गये। चादर पिसर3 की चहरे से सरका के रह गये।। आँखें झुका बोले के यह हम को लाये हैं। असग़र तुम्हारे पास गर्ज़ लेके आये हैं।। गर मैं बकौले-उमर-ओ-सिमार,4 हूँ गुनहगार। यह तो नहीं किसी के भी आगे कसूरवार।। शशमहा,5 बेजुबान, नबी-ज़ादा, शीर-ऱव्वार। हफ़तम6 से सब के साथ प्यासा है बे-करार।। सिन है जो कम प्यास का सदमा जियादा है। मज़लूम खुद है और यह मज़लूम7-जादा है।। अब आप खुद देख लें दोनों मर्सियारव़्वाहों के फर्क को और मज़ा ले लें मर्सियारव़्वानी का ! अब थोड़ी बात उर्दु की शायरी के व्याकरण की। उर्दु शायरी में जिन शब्दों के आखिर में ‘न’ आता है उसको अनुस्वार में लिख दिया जाता है। इसलिये बागबान और मकान, बागबाँ और मकाँ बन जाते हैं। हिन्दोंस्तान, हिन्दोस्ताँ और जुबान, जुबाँ बन जाते हैं। इसी तरह के अन्य शब्द है मेहरबाँ, मेहमाँ, बयाँ, पासबाँ, नातवाँ, नादाँ आदि। ऐसे शब्दों को यदि दूसरे शब्दों के साथ जोड़ दिया जाय तो जुड़ने वाले पहले शब्द के आखिरी अक्षर पर ए की मात्र लग जाती है। जैसे नादाँ शब्द यदि दिल के साथ जोड़ दिया जाये तो दिले-नादाँ बन जाता है, जिसका मायना है नादान दिल। इस सन्धि को ‘इज़ाफत’ कहा जाता है। यह इज़ाफत दूसरे शब्दों को जोड़ने के भी काम आती है उदाहरण के लिये- 1. नहरे अलकमा-नहर का नाम; 2. हबाबों- दोस्तों; 3. पिसर- बेटा; 4. बकौले उमर ओ सिमार- उमर और सिमार के कहे अनुसार; 5. शशमहा- छः माह का; 6. हफ़तम- सात दिन; 7. मज़लूम- जिस पर ज़ुल्म किया गया, पीड़ित। इजाफत में यदि पहला शब्द संज्ञा हो और दूसरा विशेषण तो उसमें विशेषण को पहले रख कर संज्ञा को आगे लिख दिया जाय तो मिश्रित शब्द का मायना समझ में आ जाता है। जैसे- जब इज़ाफत में पहला शब्द आकारान्त हो जैसे वफा और वादा तो उसमें ‘आ’ की मात्र हटा कर अक्षर के आगे (ए) जोड़ देते है। जैसे- वादा + करम वाद-ए-करम वफा + सनम वफा-ए-सनम इसी तरह यदि पहला शब्द ईकारान्त हो जैसे बेचारगी, दीवानगी आदि तो ई की मात्र को ह्स्व कर उसके आगे ए जोड़ देते हैं। जैसे- इज़ाफत के अलावा सन्धि का नाम है ‘अत्फ़’। उदाहरण के लये जब हमें गुल और बुलबुल लिखना हो तो और के स्थान पर पहले शब्द के अन्तिम अक्षर पर ओ की मात्रा लगा देने से गुलो-बुलबुल लिखा जा सकता है। अत्फ़ के और उदाहरण- कभी-कभी दो से अधिक शब्दों को भी जोड़ दिया जाता है तथा संधि के लिए इज़ाफत और अत्फ़ दोनों को काम में लेते हैं। जैसे, कैद+हयात+बंद+गम कैदेहयातोबंदेगम शब्दों को जोड़ने से न केवल मिसरे की लम्बाई कम हो जाती है बल्कि उसे बोलने में एक लय भी आ जाती है और शेर या गज़ल की तर्ज़ मंदी भी आसान हो जाती है। इस चीज को समझ लेने से अशआर के मायने समझने में बहुत मदद मिलती है। आइए अब देखें कि ‘रदीफ़’ और ‘काफ़िये’ क्या हैं और उर्दू शायरी में इनका क्या महत्व है। अगर किसी शायर की सुख़न फ़हमी की काबलियत की तुलना दूसरे शायरों की काबलियत से करना हो तो उन्हें एक ही विषय (जमीन) पर और एक ही रदिफ़ो-काफ़िये में अशआर कहने को कहा जाता है। रदीफ़ वह शब्द है जो गज़ल के शेरों के अन्त में काफ़िये के पीछे बार बार आता है। काफ़िया का मतलब है ‘तुक’ और काफ़िये को मिलाने से मतलब है तुक बन्दी करना ताकि गज़ल में एक तर्ज़ आ जाये। कवि और शायर अक्सर काफ़िया बंदी यानि तुकबंदी करते हैं अतः शायरों को ‘काफ़िया-संज’ भी कहा जाता है। मुशायरों में एक ही रदीफ़ और काफ़िये में जब कई शायर, अशआर, शेर या गज़लें पेश करते हैं तो इसे काफ़िया-लड़ाना कहा जाता है। इस काफ़िये की लड़ाई में शायरों की हुनरमंदी की परीक्षा हो जाती है। इस बात को हम कुछ मिसाल दे कर समझेंगे। तीन शायर हुए हैं और हमने उनके कलाम भी देखे हैं परन्तु एक साथ नहीं, तुलना करके नहीं, अलग अलग। ये शायर हैं, मिर्जा दाग देहलवी, अमीर मीनाई और ज़लाल। तीनों नामाचीन शायर हैं पर दाग के शेरों में जो सोज़ोगुदाज़ आता है वह बाकी दोनों शायरों के कलाम में कहाँ ? आइये देखें कि कैसे ? एक ज़मीन है ‘आह में, चाह में’। इसमें ‘निगाह में’ रदिफ़ ओ काफ़िये के साथ मिला के तीनों ने शेर कहे हैं। आइये देखें कि ये शेर क्या हैं। आँख अपनी फ़ित्ना-हाए-कयामत1 पे क्या पड़े। जिसके ये फ़ित्ने2 हैं, वोह हैं अपनी निगाह में।। (अमीर-मीनाई) शोख़ी, फ़रेब, सहर, फुसूँ,3 लाग, शोब्दा4। कितने करिश्मे देखे तेरी इक निगाह में।। (ज़लाल) दिल में समा गईं हैं, कयामत की शोख़ियाँ। दो चार दिन रहा था किसी की निगाह में।। (दाग) 1. फ़ित्ना हाए कयामत- कयामत के दंगे फसाद; 2. फ़ित्ने- झगड़े, दंगे, अशांति; 3. फुसूँ- मकर; 4. शोब्दा- जादू का खेल। पहले वाले शेर में दूसरे मिसरे में हैं और हैं के समीप आने से लुत्फ़ नहीं रहा है तो दूसरे शेर में तकल्लुफ़ ज़्यादा है और उसे पढ़ना तथा समझना दोनों मुश्किल काम है। लेकिन मिर्ज़ा दाग का काफ़िये को निभाने का नज़रिया निहायत ही अलग और काबिले-तारीफ है। अब हम ‘राहमें’ रदीफ़ो-काफ़िये में तीनों शायरों के लिखे शेर देखते हैं‒ उठता नहीं है अब तो क़दम मुझ ग़रीब का। मंजिल से कह दो दौड़ के ले मुझ को राह में।। (अमीर मीनाई) अमीर साहब का ‘राहमें’ काफ़िये को निभाने का नज़रिया नया तो ज़रूर है लेकिन यह हक़ीक़त में सही तथा संभव नहीं होने से पचता नहीं। अब दाग साहब को देखिये- आती है बात-बात मुझे याद बार-बार। कहता हूँ दौड़-दौड़ के कासिद से राह में।। (दाग़-देहलवी) यह शेर पूरा साँचे में ढला है और मायने रखता है। हक़ीक़त के वाकये का बयान लगाता है और इसमें शायर का तजुर्बा भी झलकता है। अमीर मीनाई ने कभी हक़ीक़त में मुहब्बत नहीं की और दाग़ ने घाट-घाट का पानी पिया। इसी बात से दाग़ के शेरों में जो सोज़ो-गुदाज़ दिखता है वोह और किसी शायर के अशआर में नहीं। दो एक और उदाहरण देकर रदीफ़ और काफ़िये की बात खत्म करता हूँ। इस बार काफ़िया है ‘रख दिया’। शौक़ से मैंने जो खंजर के तले सर रख दिया। छेड़ने को हाथ से क़ातिल ने खंजर रख दिया।। (अमीर-मीनाई) (अच्छा शेर है और मायने भी रखता है पर जो बात आनी चाहिए वो आई नहीं है। पहले मिसरे में समर्पण है तो दूसरे में छेड़छाड़।) दौड़ कर जो हमने उनके पाँव पर सर रख दिया। बोले ठुकराकर, ‘कहाँ फूटा मुकद्दर रख दिया’।। (शेर बहुत अच्छा है और खूब कहा गया है। मायने भी रखता है लेकिन दोनों मिसरों में फिर विरोधा-भास है। पहले में समर्पण है ता दूसरे में ठुकराना।) हमने उनके सामने अव्वल तो खंजर रख दिया। फिर कलेज़ा रख दिया, दिल रख दिया, सर रख दिया।। (शेर कयामत बरपा है, अलंकार से पूर्ण है, मायने रखता है तथा दोनों मिसरों में समर्पण का भाव है। काफ़िया मिलाने का नज़रिया अनूठा है।) दूसरा उदाहरण है- घबरा न हिज्र में बहुत ऐ जाने-मुज्त़रिब1 ! थोड़ी-सी रह गई है, उसे भी गुज़ार दे।। (अमीर-मीनाई) 1. जाने मुज्तरिब- बेचैन ज़िन्दगी। दिल दे तो इस मिज़ाज़ का परवर्दिगार दे ! जो रंज की घड़ी भी खुशी से गुज़ार दे।। (दाग़ देहलवी) अब तक आपकी नज़र से बहुत सारे अज़ीम शायरों के क़लाम गुज़र चुकें हैं और आप समझने लगे होंगे कि उर्दू जुबाँ में अब आपका भी थोड़ा दखल हो चला है। लेकिन खुदाये-सुखन मीर-तकी-मीर ने हज़ारों शेर कहने के बाद भी यही कहा था कि उनके कलाम को किसी भी व्यक्ति ने इस संसार में सही नहीं समझा- किस-किस अदा से रेरव़्ते मैं ने कहे वलेक1। समझा न कोई मेरी जबाँ इस दयार2 में।। वास्तव में किसी भी शेर, गज़ल अथवा नज़्म को समझने के लिये दिलो-दमाग़ तथा माहौल का उसके अनुकूूल होना जरूरी होता है। शायर ने किस माहौल में, दिमाग की स्थिति में और किस उद्देश्य या लक्ष्य को लेकर वह शेर कहा है या गज़ल अथवा नज़्म कही है इस बात की जानकारी भी इनको समझने में मददगार होती है क्योंकि यदि शेर पढ़ते समय पाठक की मनोदशा और उसके आस पास का माहौल भी यदि वैसा ही होगा जैसा शायर का शेर की रचना के समय था, तो शेर की बुलंदी पूरी आबोताब3 के साथ जलवागर4 हो जाएगी। अन्यथा पाठक शेर को सिर्फ पढ़ेगा और बिना उसका भावार्थ समझे केवल शब्दार्थ समझ कर आगे बढ़ जायेगा। उदाहरण के लिये गालिब का एक शेर देखिये- गो हाथ में जुम्बिश5 नहीं आँखों में तो दम है। रहने दो अभी सागरो-मीना6 मेरे आगे।। (उस मनः स्थिति को सामने रख कर कहा गया शेर है जिसमें किसी व्यक्ति के हाथों में इतनी शक्ति नहीं रहती कि बढ़कर जाम उठाले। तो साकी उसकी हालत देखकर सागरो-मीना उठाकर जाने लगती है। तब वह यह कहता है कि अगर मेरे हाथों में शक्ति नहीं है तो क्या हुआ, आँखों में तो दम है। अभी अगर मैं जाम उठा कर पी नहीं सकता तो क्या हुआ आँखों से उसे देखकर तो लुत्फ़ ले सकता हूँ। इसलिये अभी सागरो-मीना को मेरे सामने रखे रहने दो उन्हें उठाओ मत।) 1. वलेक- लेकिन; 2. दयार- जगह; 3. आबोताब-चमक दमक; 4. जलवागर- उजागर; 5.जुम्बिश- हरकत; 7. सागरो मीना- सुराही और गिलास। जो इस मनः स्थिति में है जैसे बादशाह शाहजहाँ तब था जब उसे आगरे के लाल किले में क़ैद कर दिया गया था और वह ताज़महल को फ़कत देख भर सकता था, तो उसे इस शेर का पूरा मर्तबा और बलंदी समझ में आ जायेगी वरना वह यही समझेगा कि गालिब एक महान बेवड़ा था जो कभी सागरो-मीना से जुदा नहीं होना चाहता था। इसीलिये शायद अक़्सर ऐसा होता है कि पढ़ते समय पाठक जैसी मनः स्थिति में होता है उसी मनः स्थिति पर बनाये गये शेरों से उसकी आँखें चमकने लगती हैं। यह उचित मनः स्थिति की दशा ही लेखक और पाठक के बीच तारतम्यता पैदा करती है। इस बात को यदि अशआर पढ़ते वक्त आप ध्यान में रखेंगे तो आपका मज़ा कई गुना बढ़ जायेगा। ऐसा हो सके और आपको लाभ मिले इसी उद्देश्य से यह बात प्रामाणिक रूप से यहाँ पर लिखी गई है। इसीलिये कहा गया है कि-‘हीरे की कद्र सिर्फ जौहरी ही समझ सकता है’। जिस प्रकार मोती पिरोकर उनकी माला बनाना हर एक के बस की बात नहीं वैसे ही गज़ल या नज़्म बना लेना भी हर एक के बस की बात नहीं। अध्ययन और अभ्यास से यह कला सीखी जा सकती है लेकिन फिर इसमें सहजता और भाव परायणता नहीं आ पायेगी। गजलों में अस्ल भावों की अभिव्यक्ति परदे में की जाती है सीधे-सीधे नहीं। जब तक आप उसमें निहित संकेतों को न समझेंगे तब तक उसका भाव आप को स्पष्ट नहीं हो पायेगा। इन संकेतों को समझ सकने की ताब या तो गज़ल के भाव में डूब कर प्राप्त हो सकती है या फिर अनुभवों के द्वारा। इसलिए धीरे-धीरे अपने को सुख़न फहमी के लिए तैयार करें और रफ़्ता रफ़्ता आगे बढ़ें। मुंह बोलती तसवीर बनाने के लिये सिर्फ रंग और तूलिका से काम नहीं चलता, चित्रकार को स्वयं तस्वीर के भावों में डूबना पड़ता है। कला पारखी को भी कला के भाव में पारंगत होना पड़ता है। हृदय यदि प्रेम से ओत-प्रोत हो तभी प्रेम की कविता लिखी जा सकती है और उसे समझा जा सकता है। जब दर्द का अहसास हुआ हो तभी दर्द को समझा सकता है। ‘हुस्नो-इश्क’-‘हुस्नो-ज़माल’, ‘शेखो-वाइज’, ‘गुलो-बुलबुल’, ‘जामो-मीना’, ‘आशिको-माशूक’, ‘बुलबुलो-सैयाद’, ‘रंजो-अज़ल’, ‘दर्दो-ग़म,’ ‘अंज़ुमनेयार,’ ‘नालाओफुँगा’, ‘आहोज़ारी’, ‘वस्लो-हिज्र’, ‘मौते-हयात’ आदि रूपकों पर गज़ल बनाई जाती है। यह रूपक गज़ल की जान होते हैं। इनकी गहरी समझ गज़लगोई के लिए आवश्यक है। इन्हीं रूपकों से गज़लों में सोज़ो-गुदाज़ आता है। इनको समझने से ही आप भी गज़लों और उनके अशआर का लुत्फ़ उठा सकते हैं। एक गुलो-बुलबुल रूपक के कई पात्र हैं जैसे गुल, बुलबुल, सेैयाद,चमन, गुलशन, बागबाँ, गुलचीं, कफ़स, बिजली, आशियाँ आदि-आदि। हुस्नो-इश्क़ के रूपक के भी कई पात्र हैं जैसे हसीनाएँ (बुत), आशिक, माशूक, ख़तो-क़िताबात, क़ासिद, दरबान, कैद, आहोज़ारी, नाले-शिक़वे आदि-आदि। इन पात्रों को भी रूपक का दर्जा मिल जाता है जैसे ख़तो-किताबात, आहोज़ारी आदि को मिला हुआ है। साक़ी, जाम ओ मीना रूपक की एक पात्र है और दूसरे पात्र है रिंद, मयखाना (मैखाना), मै (मय, शराब), शेखजी, वाइज़, मस्ज़िद, पैमाना, सुराही, गिलास आदि जिनमें साकी-ओ-रिंद एक अलग रूपक बन सकने का मर्तबा रखते हैं। ‘दैरो-हरम’ भी ऐसा मर्तबा रखते हैं और ‘वाइज’ भी। काबा-ओ-बुतखाना भी फ़लसफ़े की शायरी में ऐसा मर्तबा रखते हैं। इश्के-हक़ीक़ी में खुदा प्रेयसी का दर्जा अख्तियार कर लेता है और माशूक की तरह नज़र आता है और शायर खुद आशिक बन जाता है या फिर इसका उल्टा हो जाता है। आहो-ज़ारी, रोना-बिसूरना, वस्लो-हिज्र आदि सब गज़ल के ही रूपक हैं और इन रूपकों की विविधता के कारण से ही गज़ल केवल एक विषय इश्क़-मुहब्बत पर लिखी जाने और लम्बे समय तक लिखी जाने के बावजूद आज भी उसी विषय पर लिखी जाती है और खूब दाद पाती है। उसका सोज़ोगु
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