‘असर’ लख़नवी शेर बहुत से हैं और गजलें ढेर सारी, बस वक्त ही कम है वर्ना ‘ज़िगर’ क्या हम भी किसी से कम हैं? तो सफ़र की कायमी के लिए ही सही, अब हम तो सफ़र करते हैं। खान बहादुर मिर्ज़ा जाफ़र अली खाँ ‘असर’ लखनऊ के एक नामाचीन खानदान में जन्मे और अच्छे तालीम याफ़्ता शायर बने। आपने डिप्टी कलक्टरी, कलक्टरी, कमिश्नरी सब देखी और एक बार तो चंद साल कश्मीर में मंत्री पद पर भी रहे। किस्मत के सितारे बुलंद थे और सरस्वती का भी आशीर्वाद था अतः खूब चमके। मीर और ग़ालिब दोनों पर आपने उम्दा लेख लिखे। मीर के कलाम को ‘मज़ामीर’ के नाम से इकट्ठा कर प्रकाशित करवाया। एक दो नमूने पेशे खिदमत हैं। ज़िन्दगी और जिन्दगी की यादगार। परदा और परदे पै कुछ परछाईयाँ।। मरने का भी न सलीका1 आया। यह तो दुश्वार2 कोई काम न था।। खुद लिपटती रही दुनिया उससे। जिसको दुनिया से कोई काम न था।। आप मीर के प्रशंसक ही नहीं शार्गिद भी रहे और मीर ही की तरह लिखने का प्रयास किया। आप इनके कलाम में मीर का अंदाज हमेशा देख पायेंगे। जैसे- हम ने रो-रो के रात काटी है। आँसुओं पर ये रंग तब आया।। साँस भी ले सँभल के ऐ नादां ! सख़्त मुश्किल है रिश्ता उल्फ़त का।। 1. सलीका- तरीका, हुनर; 2. दुश्वार- मुश्किल। ख़ूगरे-दर्द1 हो अगर इंसान। रंज में भी मज़ा है राहत का।। नाम अलबत्ता सुनते आये हैं। हम नहीं जानते खुशी क्या है ?? मेरा हँसना है जख़्म की सूरत। रंज मुझे देखता है रोता है।। लख़नवी शायर और ख़ारजी शायरी एक दूसरे के पर्याय रहे हैं। असर लख़नवी साहब ने भी अपनी कलम इस पर चलाई है। परन्तु इन्होंने अपने क़लाम में मर्यादा और तहज़ीब का पूरा ख़याल रखा है। अब मैं समझा मुराद2 जन्नत से। आप जिस राह से गुजर जायें।। इनका माशूक लाजो-हया वाला महजबीं है। उसकी जवानी कातिल नहीं एक हसीन ख्वाब जैसी है और उसकी आमद3 एक शीतल सुगंधित बयार जैसी है। गुलों की गोद में जैसे नसीम4 आकर मचल जाये। उसी अंदाज से उन पुऱखुमार आँख़ों में ख़्वाब आया।। इस माशूक़ की खूबसूरती ऐसी कि खुद अपनी ही नज़र लगे- देखो न आँख भर के किसी की तरफ कभी। तुमको ख़बर नहीं जो तुम्हारी नज़र में है।। और ऐसे हसीन माशूक के हुस्न का बयान देखिये- फूल सजदे में गिरे शाखें झुकी। देख गुलशन में तुझको बेनकाब।। वोह लचक ऐसी कहाँ से लायेगी। शाख़े-गुल कद से तेरे शरमायेगी।। वोह तेरा शबाब कि अलहज़र5। वोह तेरा ख़िराम कि अलअमाँ 6।। न ये रंग झलके बहार में। न ये कैफ टपके शराब से।। इश्क़ के हो जाने की मज़बूरी का बयान देखिये- इश्क़ से लोग मनअ करते हैं। जैसे कुछ अख़्तियार है अपना।। 1. खूगरे दर्द - दर्द सहने का आदी; 2. मुराद- इच्छा, मतलब; 3. आमद- आना; 4. नसीम- सुबह की हवा; 5. अलहजर- खुदा की पनाह; 6. अलअमाँ- खुदा की पनाह; 7. अख़्तियार- बस, सामर्थ्य। जो इश्क़ के फ़न के माहिर हैं, उनसे पूछो तुम क्या जानो ? कब अश्क़ बहाना मुश्किल है, और कब पी जाना मुश्किल है।। असर का इश्क़ भी पाकीज़ा इश्क़ है और आदमी को इंसान तथा इंसान को खुदा बना देता है। इंसान को बे इश्क़ सलीका1 नहीं आता। जीना तो बड़ी चीज़ है, मरना नहीं आता।। दिल में है दर्द, दर्द में एक लज़्ज़ते-ख़लिश2। आज़ारे-इश्क़3 ने मुझे इंसाँ बना दिया।। इश्क़ में जुदाई का और इंतजार का बयान देखिये- फिर न आये वो वादा करके जो गये। आज का दिन है और वो दिन है।। हर साँस एक ताजा राहत का है पयाम। नश्तर4 बनी हुई है, रगेजाँ तेरे बगैर।। कुछ रोज़ यह भी रंग रहा इन्तज़ार का। आँख उठ गई जिधर बस उधार देखते रहे।। अपने हबीब का रूत्बा ख़ुदा के बराबर कर देना पाकिया-इश्क़ की पहचान बन गई। असर साहब ने इस शेर में यही किया है- तुम्हीं हो रौनके-गुलशन5 तुम्हीं हो रंगे-बहार। मगर किसी को तुम्हारा गुमाँ नहीं होता।। और ख़ुदा के बारे में असर साहब का कहना है कि- हम उसी को ख़ुदा समझते हैं। जो मुसीबत में याद आ जाये।। उनका यह मानना था कि खुदा को खोजने के लिए मंदिर-मस्ज़िदों में भटकना बेकार है। वह वनों और पर्वतों में भटकने से भी नहीं मिलता। अगर वह कभी मिल भी जाता है तो पहचान में नहीं आता। वह तो दिल ही में बसता है, वहीं मिलता है। बहक के नशे में मस्ज़िद को समझा मैख़ाना। गज़ब हुआ था मेरा सर ही झुक गया होता।। 1. सलीका- तरीका, हुनर; 2. लज़्ज़ते खलिश- चुभन का आनंद; 3. आज़ारे इश्क- प्रेम रोग; 4. नश्तर- चाकू; 5. रौनके गुलशन- बागीचे की रौनक। मस्ज़िदों और ख़ानक़ाहों1 का तमाशा देखकर। मैं फिरा दिल की तरफ़ शुक्रे-खुदा करता हुआ।। असर साहब के कलाम में तसव्वुफ और फ़लसफ़ा भी काफी पाया जाता है और उनका अन्दाज कुछ ऐसा है कि नसीहत दे रहे हों ऐसा नहीं लगता पर बात दिल में उतर जाती है। कभी-कभी तो वे अपने आप ही को नसीहत देते हुए शेर कह देते थे जैसे- तुमको है फ़िक्रे-तन-आसानी2 ‘असर’। जिंदगी कुर्बानियों का नाम है।। न हौसला, न तमन्ना न वलवला3 न उमंग। यह बेहिसी नहीं ऐ दिल ! तो बेहिसी4 क्या है ?? अहले-हिम्मत5 ने हसूले-मुद्दआ6 में जान दी। और हम बैठे हुए रोया किये तक़दीर को।। चन्द और अशआर फ़लसफ़े पर पेशे-खिदमत हैं। किसी के काम न आये तो आदमी क्या है ? जो अपनी फ़िक्र में गुज़रे वोह जिन्दगी क्या है ?? जो दर्द से वाक़िफ़ हैं, वोह खूब समझते हैं। राहत में तुझे रोया, तकलीफ़ में पाया है।। हुई ख़िदमते-ख़ल्क़7 जिन जिन का मज़हब। ख़ुदा के वही बन्दे मक़बूल8 निकले।। टुक तूफ़ान की मौजों से उलझ। नाखुदा9 कौन ? सफ़ीना10 कैसा ?? ये सोचते ही रहे और बहार खत्म हुई। कहाँ चमन में नशेमन11 बने कहाँ न बने।। असर ने भारत पाकिस्तान के विभाजन के दौर को देखा और मुसलमान होने से नये हिन्दोस्तां में जो घुटन हुई उसे भी झेला। इस घुटन को उन्होंने कुछ इस तरह से व्यक्त किया- 1. खानकाहों- मज़ारों, दरगाहों, मठों; 2. फ़िक्रे तन आसानी- बदन के आराम की फ़िक्र; 3. वलवला- जोश; 4. बेहिसी- चेतन शून्यता; 5. अहले हिम्मत- हिम्मत रखने वाले; 6. हसूले मुद्दआ- लक्ष्य प्राप्ति; 7. खिदमते खल्क- मानव सेवा; 8. मकबूल- पसंदीदा, प्यारे; 9. नाखुदा- नाविक; 10. सफ़ीना- जहाज़, कश्ती; 11. नशेमन- घर। गुलशन में जब कहीं कोई जा-ए-अमाँ 1 न हो। फिर क्यों बहार अपनी नज़र में खिजाँ न हो।। वोह तायरे-असीर2 कहाँ जाये क्या करे। आजाद हो के जिसको नसीब आशियाँ न हो।। ठुकराये जा रहे हैं खुद अपने दयार में। और इसलिए कि भटकें न राहे-वफ़ा से हम।। लेकिन असर अपनी मुल्क़े-वफ़ा पर कायम रहे और फरमाया कि- यहीं पे उम्र गुज़ारी, यहीं पै मरने दो। तुम्हारे दर के सिवा और दर मैं क्या जानूं ?? असर साहब लख़नवी स्कूल के शायर थे तो जामो-मीना, जाहिदो-नासेह की बातें तो उनकी शायरी में आनी ही है। अब जो जाहिद जन्नत की हूरों का ख्वाहिश्मंद हो उसकी अस्मत और चरित्र का क्या कहना? इस बात का बयान देखिये- ज़ाहिद को एतबार है फिरदौसो-हूर3 का। दुनिया-ए-रंगो बू का तमाशा किये बगैर।। हविस बाहिश्त4 की और इश्तियाक़5 हूरों का। जनाबे-जाहिदे-अस्मत-पनाह6 क्या कहना।। असर साहब का एक दीवान ‘बहाराँ’ नाम से 1936 में छपा। उसमें से लिये गये चन्द अशआर और एक गज़ल पेशे-खिदमत हैं। है इश्क़ जिन्हें, दिल का वो कहना नहीं करते। मर जाएँ मगर अर्ज़े-तमन्ना7 नहीं करते।। बरबाद कर चुके वोह, मैं बर्बाद हो चुका। अब क्या रहा है ? रोऊं और उनको रूलाऊं मैं।। क्या हसरते-दीदार8 है ? हर बार यह समझा। गोया कभी दीदार मयस्सर न हुआ था।। नजरें उठी और उठ के झुकी तमकनत9 के साथ। गोया यही जवाब था मेरे सवाल का।। 1. जा-ए-अमाँ- सुरक्षित जगह; 2. तायरे असीर- पिंजरे का पंछी; 3. फिरदौसो हूर- स्वर्ग तथा अप्सराएं; 4. बाहिश्त- स्वर्ग; 5. इश्तियाक- चाहत; 6. जनाबे जाहिदे अस्मत पनाह- परहेज़गार और इज्ज़त रखने वाला; 7. अर्जे तमन्ना- इच्छा की अभिव्यक्ति; 8. हसरते दीदार- देखने की इच्छा; 9. तमकनत- घमण्ड, गुरूर। थे जो खफ़ा, हैं वोह खफ़ा आज तक। क्यों हैं खफ़ा ? यह न खुला राज़ तक।। रास्ते बन्द हैं किधर जाएँ ? तुम हो पेशे-नज़र1 किधर जाएँ।। हवा में उठके कुछ घुँआ सा फ़ौरन फ़ैल जाता है। क़फ़स में याद जब आता है मेरा आशियाँ मुझको।। हाल पूछा था तो इस तरह न पूछा होता। रह गई अर्जे-तमन्ना की तमन्ना मुझको।। कौन कहता है कि मौत अंजाम होना चाहिए। ज़िंदगी का ज़िदंगी पैग़ाम होना चाहिए।। इक़ रोज़ दिल में तेरी मुहब्बत थी जाँ गुजीं2। अब तूं ही तूं है तेरी मुहब्बत नहीं रही।। और अब गज़ल पेश है- जिधर दिल उट्ठे उस ज़ानिब बिला ख़ौफ़ो-ख़तर3 जाना। यहाँ जिसने यह जाना उसने जीने का हुनर जाना।। मुहब्बत में इसी का नाम है कुछ काम कर जाना। किसी के वास्ते जीना न जी सकना तो मर जाना।। दिलाज़ारी4 की लज़्ज़त के लिए दिल रख भी लेते हैं। सितमगर वादा कर ले फिर तेरी मर्ज़ी, मुकर जाना।। तुम्हीं इंसाफ से कह दो यह आना कोई आना है। न कुछ कहना न कुछ सुनना, इधर आना उधर जाना।। चंद हसीन अशअर और पेशे-खिदमत हैं, रूख़सती से पहले- नज़र उस हुस्ने-ताबाँ 5 तक ब-आसानी6 नहीं जाती। मगर जा कर पलटती है तो पहचानी नहीं जाती।। हुई मुद्दत कि उसने नाज़ से दामन को झटका था। अभी तक मौज़ये-गुल की परेशानी नहीं जाती।। दूर से गाह-गाह7 इक निगाह। उसको भी मुद्दते-मदीद8 हुई।। 1. पेशे नजर- नज़र के सामने; 2. जाँ गुजीं- समाई हुई (पेवस्त); 3. बिला ख़ौफ़ो ख़तर- डर तथा खतरे के बिना; 4. दिलाज़ारी- दिल के रोग; 5. हुस्ने ताबाँ- चमकते हुए सौंदर्य; 6. ब आसानी- आसानी से; 7. गाह गाह- धीमे धीमे; 8. मुद्दते मदीद- दीर्घावधि। दिले-ग़मदीदा काँप-काँप उठा। यास के बाद जब उमीद हुई।। आग़ाज़े मुहब्बत की लज़्ज़त। अंजाम में पाना मुश्किल है।। तब दिल को मसोसे रहते थे। अब हाथ लगाना मुश्किल है।। हाय उनकी शोखियाँ और शौक़ की रूसवाइयाँ। देखते थे वोह हमें हम क्यूं कर उनको देखते।। इक बात भला पूछें, ‘किस तरह मनाओगे ? जैसे कोई रूठा हो और तुमको मनाना हो।। रहम पर गैर की जीना कैसा ? जिंदगी का ये करीना कैसा ?? मज़लिसे-वाज़1 से इक रिंद ये कहता उट्ठा। ‘काफ़िर अच्छे हैं दिलाजार2 मुसलमानों से।’ मज़ाक़े-इश्क़ हो क़ामिल3 तो सूरते-शबनम। कनारे-गुल4 में रहे और पाक़बाज़5 रहे।। हम अपने हाले-परेशाँ पे मुस्कुराये थे। ज़माना हो गया ऐसे भी मुस्कुराये हुए।। अदा है याद तेरे मुस्कुरा के आने की। और उसके बाद वो दामन छुड़ाके जाने की।। जहाँ पै रास्ता भूला है बारहा6 ज़ाहिद। वहीं से राह मुड़ती है शराबख़ाने की।। तुम्हारा हुस्न आराइश7 तुम्हारी सादगी ज़ेवर। तुम्हें कोई जरूरत ही नहीं बनने सँवरने की।। मुझ को अपनी ख़बर नहीं ए दोस्त। हाय ! किस वक्त में तूं आया है।। है तसव्वुर8 की भी निराली शान। जो है नादीदा9 उसको पाया है।। 1. मज़लिसे वाज़- वाइज की महफ़िल, प्रवचन सभा; 2. दिलाजार- दिल दुखाने वाले, ज़ालिम; 3. क़ामिल- पूर्ण; 4. कनारेगुल-फूल की गोद; 5. पाक़बाज़- पवित्र; 6. बारहा- हमेशा, कई बार; 7. आराइश- सजावट; 8. तसव्वुर - ख्याल, कल्पना; 9. नादीदा- न देखा हुआ (अदृश्य)। मैं इधर चुप हूँ वोह उधर चुप है। इक तमाशा हुआ हया न हुई।। उसकी रहमत को नाज़ हो जिस पर। तुझसे ऐसी असर ख़ता न हुई।। जाहिद इधर खड़े हैं ग़ुनहगार उस तरफ। देखें तेरे क़रम का सज़ावार1 कौन है ? वोह तड़पता नहीं कभी जालिम। जिसने भरपूर चोट खाई है।। * 1. सज़ावार - लायक।