skip to main |
skip to sidebar
RSS Feeds
A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
![]() |
![]() |
8:30 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
अब्दुल हमीद ‘अदम’ एक शायर जिन्हें ‘अदम’ के नाम से जाना जाता है का जन्म जून 1909 ई. में पाकिस्तान के सरहद प्रान्त में कस्बा मूसा खाँ, तलवंडी में हुआ।आपने बी. ए. तक तालीम हासिल करने के बाद पाकिस्तान सरकार के ऑडिट और लेखा विभाग में अफ़सरी की। अपनी अधिकतर उम्र आपने रावलपिंडी, लाहौर और कराची शहरों में गुजारी। अख़्तर ‘शीरानी’ साहब से आपकी दाँत कटी रोटी का नाता था। दोनों को ही शराब नोशी की आदत थी। दोनों मिलकर बेइंतिहा पीते थे और बहक जाते थे। अपनी बादाख़्वारी को जायज ठहराने के लिए आपने एक नज़्म लिखी, जिसका शीर्षक था ‘जबाज’। इस नज़्म के चन्द शेर पेश करता हूं। वो हौलनाक सियाही है मुन्तशिर1 हर सू2। वुफ़र्रे-कर्ब3 से कोनेन4 फड़फड़ाते हैं।। कि अब तो ख़ल्क5 के ईमान डगमाते हैं।। तेरे जहान में जब तक कोई निज़ाम नहीं। फ़कीर के लिए बादाकशी6 हराम नहीं।। (इन शेरों में आपने दुनिया में हो रहीं बदइन्तजामी तथा अन्याय और उसके कारण से पनपी भयानक पीड़ा और आर्तनाद को अपनी बादाख़्वारी का सबब बताया है।) उनका ये मानना था कि जीवन में इच्छाओं की अतृप्ति तथा कुछ न कर पाने की असफलता ही आदमी को मैखाने की राह दिखाती है- मैकदे के मोड़ पर रुकती हुई। मुद्दतों की तिश्नगी थी, मैं न था।। अदम की शायरी कोई भी एक फ़लसफ़े को नहीं झलकाती। उनका कोई जीवन के प्रति एक नज़रिया भी नहीं। जैसा जब उनका अनुभव रहा, सोच रहा वैसा ही लिख दिया। वह कभी नास्तिक नज़र आते हैं तो कभी कट्टरता की हद तक आस्तिक। कभी मंजिल से भटके राही नज़र आते हैं तो कभी मंजिल पर पहुँच रहनुमा को कोसते नज़र आते हैं। कभी संसार के ग़मों से जूझते नज़र आते हैं तो कभी पालायनवादी बन मैकशी में डूबते नजर आते हैं। जब वह फ़लसफ़े की बात करते हैं तो कहते हैं कि- 1. मुन्तशिर- बिखरा हुआ; 2. हर सू- हर तरफ; 3. कुर्रे कर्ब- दर्द की ज़्यादती से; 4. कोनेन- दोनों जहान; 5. ख़ल्क- मनुष्यों; 6. बादाकशीं- शराब पीना। जहने-फितरत1 में थीं कितनी नाकुशादा2 उलझनें। एक मर्कज़3 पर सिमट आईं तो इन्साँ बन गईं।। फिर अपनी हस्ती पर विचार करते हुआ कहते हैं कि- दूसरों से बहुत आसान है मिलना साक़ी। अपनी हस्ती से मुलाक़ात बड़ी मुश्किल है।। वैसे तो मैकश की बेख़याली में रहते होंगे पर जब रूह ज़ोर मारती है तो अपने वजूद के लिए खोज़ भी करते हैं- कभी-कभी तो मुझे भी ख़याल आता है। कि अपनी सूरते-हालात पर निगाह करूं।। लेकिन इस निगाह की बुलन्दी कुछ देर की मेहमां होती है। खोज़ के ये इरादे इतने कमजोर होते हैं कि टूट जाते हैं और वह कहते हैं कि- ये अक़्ल के सहमे हुए बीमार इरादे। क्या चारा-ए-नासाजी-ए-हालात4 करेंगे।। और अपनी मैनोश हस्ती का अहसास कर चुप हो जाते हैं- अभी हवादिसे-दौराँ5 पे कौन ग़ौर करे। अभी तो महफ़िले-हस्ती6 शराब खाना है।। एक मैनोश का सोच कितना बारीक हो सकता है? जब तक जाम में शराब नहीं तब तक तो रहता है और बाद में बस! अदम ही के शब्दों में- खाली है अभी जाम, मैं कुछ सोच रहा हूँ। ए गर्दिशे-अय्याम,7 मैं कुछ सोच रहा हूँ।। साक़ी तुझे इक थोड़ी सी तकलीफ तो होगी। सागर को जरा थाम, मैं कुछ सोच रहा हूँ।। पहले बड़ी रग़बत8 थी तेरे नाम से मुझको। अब सुन के तेरा नाम, मैं कुछ सोच रहा हूँ।। समझ अभी पूरा तआबुन नहीं करता। दे बादा-ए-गुलफ़ाम9, मैं कुछ सोच रहा हूँ।। 1. ज़हने फितरत- ईश्वर की प्रकृति. 2. नाकुशादा- बिना सुलझी हुई; 3. मर्कज़- केन्द्र, बिन्दू; 4. चारा ए नासाजी ए हालात- बिगड़े हालात का उपचार; 5. हवादिसे दौराँ- ज़माने की घटनाओं; 6. महफ़िले हस्ती- जीवन की महफ़िल; 7. गर्दिशे अय्याम- दुर्भाग्य के दिन; 8. रग़बत- लगाव; 9. बादा ए गुलफ़ाम- फूलों की शराब। हल कुछ तो निकल आएगा हालात की जिद का। ऐ कसरते-आलाम1, मैं कुछ सोच रहा हूँ।। जीवन जीने का फ़लसफ़ा कुछ ऐसा था कि जैसे हालात बने उसी के अनुसार चले। जिन्दगी का रास्ता, काटना ही था ‘अदम’। जाग उठे तो चल दिये, थक गये तो सो लिए।। उर्दू शायरी में जामो-मीना विषय पर शेर कहे जाते हैं तो उनमें शेखो-जाहिद की बात ज़रूर आती है। शेख साहब और जाहिद दोनों बादाख़्वारी की सख़्त ख़िलाफत करते हैं और मैकश उनसे तर्क करता है। इस बाबत लिखी अदम की एक गज़ल पेश है। रिंद और तर्के-ख़राबात, बड़ी मुश्किल है। शेख़ साहब ये करामात, बड़ी मुश्किल है।। आप अगर बात पे कुछ ग़ौर करें, बन्दा-नवाज़। बात आसान नहीं, बात बड़ी मुश्किल है।। लाइए कूज़ा-ए-सहबा2 कि कुदूरत3 धोलें। बेवज़ू हमसे मुनाज़ात4, बड़ी मुश्किल है।। दूसरों से बहुत आसान है मिलना साक़ी। अपनी हस्ती से मुलाक़ात, बड़ी मुश्किल है।। गो हर इक रात है तकलीफ़ से लबरेज़ ‘अदम’। लोग कहते हैं कि इक रात बड़ी मुश्क़िल है।। ‘अदम’ की शायरी में फ़लसफ़े के बीच भी मय और मयखाना, जाम और साक़ी आदि रूपकों का जिक्र आ जाता है। इस अनोखे सामंजस्य की एक नमूना गज़ल पेश करता हूँ- मयखाना-ए-हस्ती में अक़्सर हम अपना ठिकाना भूल गये। या होश से जाना भूल गये, या होश में आना भूल गये।। असबाब5 तो बन ही जाते हैं तक़दीर की जिद को क्या कहिये। इक जाम तो पहुँचा था हम तक, हम जाम उठाना भूल गये।। आए थे बिखेरे जुल्फ़ों को, इक रोज हमारे मरक़द6 पर। दो अश्क तो टूटे आंखों से, दो फूल चढ़ाना भूल गये।। तस्वीर बनाने वालों ने, जब उसकी निगाहों को देखा। तस्वीर मुरत्तिब7 क्या करते, तस्वीर बनाना भूल गये।। 1. कसरते आलाम- दुखों की बहुलता; 2. कूज़ा-ए-सहबा- शराब का प्याला; 3. कुदूरत- मलीनता 4. मुनाज़ात- ईश्वर से प्रार्थना; 5. असबाब- साधन; 6. मरक़द- कब्र; 7. मुरत्तिब- बनाना, तरतीब देना। चाहा था कि उनकी आँखों से, कुछ रंगे-बहाराँ ले लीजे। तरकीब तो अच्छी थी लेकिन, वो आँख मिलाना भूल गये।। मालूूम नहीं आईने में, चुपके से हँसा था कौन ‘अदम’। हम जाम उठाना भूल गये, वो साज बजाना भूल गये।। अदम साहब के कहे कुछ फुटकर शेर और कतआत भी बेहतरीन मिसाल के तौर पर पेशे-खिदमत हैं। शायद मुझे निकाल कर पछता रहें हों आप। महफ़िल में इस ख़याल से फिर आ गया हूँ मैं।। हम जहाँ जी रहे हैं मरमरकर। बज़्मे-हस्ती है, लोग कहते हैं।। शायद इक बार उजड़ के फिर न बसे। दिल की बस्ती है, लोग कहते हैं।। तेरे बग़ैर किसी चीज़ की कमी तो नहीं। तेरे बग़ैर तबीयत उदास रहती है।। कहानी बड़ी मुख़्तसर हो रही है। कि शब कट चुकी और सहर हो रही है।। नहीं जिंदगी से कोई ख़ास शिकवा। तुम्हारी दुआ से बसर हो रही है।। बड़े नादान थे वो चंद आँसू। जो इतनी सादगी से बह गये।। हम तो राज़ी नहीं थे मरने पर। ग़मगुसारों1 ने मार डाला है।। आप और ग़ैर ! देखा जायेगा। ये सितम खैर ! देखा जायेगा।। शेख जी, आपसे परिंदे और। ख़ुल्द2 की सैर ! देखा जायेगा।। उनके आने का गो यक़ीन नहीं। उनके आने का कुछ ख़याल तो था।। याद इक ज़ख़्म बन गई वर्ना। भूल जाने का कुछ ख़याल तो था।। ज़वाब गर्चे3 मेरे भी नहीं हैं कम दिलकश4। सवाल उनके बड़े लाज़वाब होते हैं।। 1. ग़मगुसारों - गम बंटाने वाले, हमदर्द; 2. ख़ुल्द- स्वर्ग; 3. गर्चे- यद्यपि; 4. दिलकश- चित्ताकर्षक। चुप हो गया हूँ आपकी सूरत को देखकर। करनी थीं आपसे मुझे कितनी शिकायतें।। आपने यूं ही घूर कर देखा। होंट तो यूं भी सिल गये होते।। खुश हूँ कि ज़िन्दगी ने कोई काम कर दिया। मुझको सुपुर्दे-गर्दिशे-अय्याम1 कर दिया।। किस बेतकल्लुफ़ी से फ़साना-निगार ने। आग़ाज2 को बिगाड़ के अंजाम3 कर दिया।। रास्ता कट गया सहूलत से। शुक्र है कोई रहनुमा4 न मिला।। एक हंसती हुई परीशानी। हाय क्या जिंदगी हमारी है।। दिल अभी पूरी तरह टूटा नहीं। दोस्तों की मेहरबानी चाहिए।। पहुँच सका न बरव़क़्त5 अपनी मंजिल पर। कि रास्ते में मुझे रहबरों ने घेर लिया।। सिर्फ़ इक कदम उठा था ग़लत राहे-शौक़6 में। मंजिल तमाम उम्र मुझे ढूँढ़ती रही।। दुआ इक आख़िरी तदबीर7 है झूठी तसल्ली की। दुआ करता हूँ लेकिन ये दुआ तकलीफ़ देती है।। जब भी आता है जाम हाथों में। सैकड़ों नाम याद आते हैं।। मशहर में इत्तिफ़ाक से आया न ज़हन में। वर्ना तमाम उम्र तेरा नाम याद था।। तख़्लीके-कायनात8 के दिलचस्प जुर्म9 पर। हँसता तो होगा आप भी यज़दां कभी-कभी।। आए थे मुझसे मिलने मगर मैं न जब मिला। वो मेरी बेख़ुदी से मुलाक़ात कर गये।। मैं उम्र भर ‘अदम’ न कोई दे सका जवाब। वो इक नज़र में इतने सवालात कर गये।। 1. सुपुर्दे गर्दिशे अय्याम- बुरे दिनों के हवाले; 2. आग़ाज- आदि, आरम्भ; 3. अंजाम- अंत, परिणाम; 4. रहनुमा- मार्ग दर्शक; 5. बरवक्त- समय पर; 6. राहे शौक़- प्रेम के रास्ते; 7. आख़िरी तदबीर- अंतिम कोशिश; 8. तख़्लीके कायनात-संसार के निर्माण; 9. दिलचस्प जुर्म-चित्ताकर्षक अपराध। दिल ख़ुश हुआ है मस्जिदे-वीरान देखकर। मेरी तरह ख़ुदा का भी खाना-ख़राब है।। जब भी निगाहे-साक़ी दिल को टटोलती है। अरमां भी डोलते हैं, नीयत भी डोलती है।। वो आईने में ऐसे महसूस हो रहे हैं। अंगड़ाई लेके जैसे तस्वीर बोलती है।। जाने ये क्या हुआ है दोशीज़ा-ए-ख़िरद1 को। घबरा के देखती है, शर्मा के बोलती है।। अमीरों को एज़ाज़ो-इक़बाल2 दो। गरीबों को फिरदोस3 पर टाल दो।। अब आ ही गया हूँ तो परहेज़ क्या। मेरे ज़ाम में भी ज़रा डाल दो।। कुछ तो मेरा ख़याल करते हैं। रात-दिन पायमाल4 करते हैं।। आँख उनकी अलील5 होती है। लोग मुझसे सवाल करते हैं।। मरने वाले तो खैर बेबस हैं। जीने वाले कमाल करते हैं।। ‘अदम’ की गज़लों में अहसासात भरे होते हैं और उनकी तल्खियाँ दिखाई देती हैं। इनकी भाषा शैली भी बेहतरीन होती है। अब इसी गज़ल को देखिये‒ मै6 में डूबे हुए ज़ज़्बात की बू आती है। मेरे शेरों से ख़राबात7 की बू आती है।। रहबरों को मेरे रस्ते से हटा दो यकलख़्त8। इनसे फ़र्सूदा रिवायात9 की बू आती है।। तेरी रफ़्तार है या सुबहे-अज़ल10 की मस्ती। तेरी रफ़्तार से नग़्मात की बू आती है।। साकिया मुझको तेरी हँसती हुई आँखों से। एक देरीना मुलाक़ात11 की बू आती है।। 1. दोशीज़ा ए ख़िरद-बुद्धि रूपी कन्या; 2. एज़ाज़ो इक़बाल- सम्मान व रूतबा; 3. फ़िर्दौस- स्वर्ग; 4. पायमाल- रोंदना; 5. अलील- बीमार; 6. मै- शराब; 7. ख़राबात- शराब खाना; 8. यकलख़्त- तुरंत; 9. फ़र्सूदा रिवायात- पुराना चलन; 10. सुबहे अज़ल- जब सृष्टि की रचना हुई; 11. देरीना मुलाक़ात- प्राचीन मिलन। ये नहीं इल्म मुहब्बत किसे कहते हैं ‘अदम’। हाँ मगर दिल से किसी बात की बू आती है।। इसी तरह तजुर्बात से भरी एक और ग़जल पेश है। अब शिद्दते-गम में मसनूई1, आराम सहारा देता है। या दोस्त तसल्ली देते हैं, या जाम सहारा देता है।। ऐ दोस्त मुहब्बत के सदमे, तनहा ही उठाने पड़ते हैं। रहबर तो फ़क़त इस रस्ते में, दो गाम सहारा देता है।। बेताब-ए-दिल की कैफ़ियत, इस हाल तक अब आ पहुँची है। जिस हाल में हर मायूसी को, अंज़ाम सहारा देता है।। दो नाम हैं सिर्फ़ इस दुनिया में, इक साक़ी का इक यज़दां2 का। इक नाम परेशां करता है, इक नाम सहारा देता है।। तूफ़ान के चितवन3 तो देखो, साहिल की कोई उम्मीद भी है। मल्लाह की सूरत तो देखो, नाकाम सहारा देता है।। अपने तजुर्बात से सीख कर ही दूसरों को नसीहत दी जाती है। और अदम साहब की नसीहतों का आलम देखिए- जिन्दगी सर्फ़े-आह-आह4 न की। कीमती चीज़ थी तबाह न की।। आप बेशक दुरुस्त कहते हैं। हमने ही आपसे निबाह न की।। अक़्ल तरग़ीब5 दे रही थी मगर। इश्क़ ने जुर्रते-गुनाह6 न की।। फूल क्या उसकी आबरू करते। जिसने काँटों से रस्मो-राह7 न की।। मौत तो इतनी सर्द-मेहर8 न थी। जिन्दगी ने ही कुछ निबाह न की।। ऐ ‘अदम’ उसको कौन बख़्शेगा। जिसने फ़र्दे-अमल9 सियाह न की।। गज़ल के अशआरों में रंगो-रवायत ही ख़ारजी शायरी की शान कही जाती है। काफिया-बन्दी से गज़ल में तरन्नुम भी अच्छा आ जाता है। इस बात की मिसाल बनी अदम साहब की गज़ल पेश है। 1. मसनूई- बनावटी; 2. यज़दां- ईश्वर; 3. चितवन- तेवर; 4. सर्फे आह आह- रोने-धोने में व्यतीत; 5. तरगीब- उकसाना; 6. जुर्रते गुनाह- पाप करने का साहस; 7. रस्मो राह- मिलकर चलना; 8. सर्द मेहर- बेरहम; 9. फ़र्दे अमल- कार्यों का विवरण। हम आह भर चुके हैं, वो मुस्कुरा चुके हैं। दो मुख्तलिफ़ इरादे, तेवर दिखा चुके हैं।। उन गेसुओं के सदके1, उन अंखड़ियों के कुर्बां2। जिन पर बहार के दिन, ईमान ला चुके हैं।। रिंदाने-बादा-पैमां,3 ताख़ीर अब है कैसी? अफ़लाक पर सितारे, शम्मएं जला चुके हैं।। ऐ दास्तां-सरा4 अब, किस्से को ख़त्म कर दे। भटके हुए मुसाफ़िर मंजिल पे आ चुके हैं।। अब क्या उलझ सकेगा, हमसे ग़मे-ज़माना। हम तेरे गेसुओं के, हल्क़े5 में आ चुके हैं।। झूठी मसर्रतों को ये, हादिसा सुना दो। हम ग़म की तल्ख़ियों6 पर, ईमान ला चुके हैं।। ऐ शोरिशे-तलातुम7, अब किसको ढूंढ़ती है। मुद्दत हुई सफ़ीने8, साहिल पे आ चुके हैं।। अब दिल की खल्वतों में, तुम आके क्या करोगे। हम आरजू की शम्मएं, कब के बुझा चुके हैं।। सिर्फ़ इक ‘अदम’ अभी तक, बैठा है मयकदे में। वर्ना तमाम मयकश, पी-पी के जा चुके हैं।। उनकी गज़लों में तसव्वुफ भी काफी मिलता है और फ़लसफ़ा भी कम नहीं। फ़लसफ़ा बखानती एक गज़ल पेशे-खिदमत है- ऐ दोस्त इक गरीब से इतना खफ़ा न हो। शायद तू कल बुलाये तो ये बेनवा न हो।। बैठा है किस ख़याल में ऐ क़ल्बे-नामुराद9। उस घर में कौन आयेगा जिसमें दया न हो।। चलता हूँ मैं भी सैरे-तलातुम10 को ए नदीम। लेकिन ये शर्त है ख़लल-ए-नाखुदा11 न हो।। ऐसी तो बदलिहाज़ न थी वो सितमज़रीफ12। ऐ ज़ीस्त तूने मौत से कुछ कह दिया न हो।। 1. सदक़े-वारी; 2. कुर्बां-न्योछावर; 3. रिंदाने बादा पैमां- हाथ में जाम लिये शराबी; 4. दास्तां सरा- कथावाचक; 5. हल्क़े- घेरे; 6. तल्ख़ियों- कड़वाहटों; 7. शोरिशे तलातुम- तूफान का शोर; 8. सफ़ीने- कश्तियाँ; 9. क़ल्बे नामुराद- अभागा हृदय; 10. सैरे तलातुम- तूफान की सैर; 11. ख़लल ए नाखुदा- नाविक का हस्तक्षेप; 12. सितमज़रीफ- ज़ुल्म करने वाली। देता नहीं ‘अदम’ मैं जवानी को बद्दुआ। इस ख़ौफ़ से कि ये भी किसी की रज़ा न हो।। ऐसी ही एक और गज़ल जिसमें अदम साहब की सोच और समझ झलकती है, पेशे-खिदमत है- कश्ती चला रहा है, मगर किस अदा के साथ। हम भी न डूब जायें कहीं नाखुदा के साथ।। फैली है जबसे ख़िज्रो-सिकंदर1 की दास्ताँ। हर बावफ़ा का रब्त2 है इक बेवफ़ा के साथ।। शेख़ और बहिश्त, कितने तअज्जुब की बात है। या-रब ये जुल्म खुल्द की आबो-हवा के साथ।। कल देखा जायेगा मगर आज उसने ख़ल्क़ को। टाला है ख़ूब वादा-ए-रोजे-ज़ज़ा3 के साथ।। बदतर है गुमराही4 से इताअत5 का एहतिराम। ऐ हम-नफ़स उलझ न पड़ें रहनुमा के साथ।। महशर का खैर कुछ भी नतीज़ा हो ऐ ‘अदम’। कुछ गुफ़्तगू तो खुल के करेंगे खुदा के साथ।। जिन्दगी पर कोई एतबार नहीं कर सकता और काँटे की सुंदरता को समझना मुश्किल होता है, इस बात को किस तरह पेश किया है अदम साहब ने इस कतअ में ज़रा ग़ौर फ़रमायें। मैं तेरा साथ दूंगा जहाँ तक तू चल सके। ऐ जिन्दगी तूं आप ही बे-एतिबार है।। काँटों की दिलकशी6 पे भी थोड़ा सा ग़ौरकर7। ये चीज गुलिस्ताँ की बड़ी पायदार है।। आँधी-सी एक उफ़क8 से उट्ठी तो है ‘अदम’। या कोई काफ़िला है, नहीं तो गुबार है।। जिन्दगी की बेरहमी से इन्सान उदास हो जाता है। ‘अदम’ साहब ने इस गज़ल में उदासी को दूर करने के कई तरीके सुझाये हैं, आप भी आजमा के देखें। साक़ी शराब ला कि तबीयत उदास है। मुतरिब9 रबाब10 उठा कि तबीयत उदास है।। 1. ख़िज्रो सिकंदर- खिज्र वह फरिश्ता जिसे अमृत का पता मालूम है और सिकंदर वह बादशाह जिसने अमृत को पाने का प्रयत्न किया; 2. रब्त- संबंध; 3. वादा ए रोज़े जज़ा- प्रलय उपरांत दिवस पर प्रतिफल का वचन; 4. गुमराही- नास्तिकता; 5. इताअत- बन्दगी; 6. दिलकशी- आकर्षण; 7. ग़ौरकर- विचार कर; 8. उफ़क- आसमान; 9. मुतरिब-गायक; 10. रबाब- सारंगी। चुभती है कल्बो-जां में सितारों की रोशनी। ए चाँद डूब जा कि तबीयत उदास है।। शायद तेरे लबों की चटक से हो जी बहाल। ऐ दोस्त मुस्कुरा कि तबीयत उदास है।। मैंने कभी ये ज़िद तो नहीं की पर आज शब। ए महजबीं1 न जा कि तबीयत उदास है।। तौबा तो कर चुका हूँ मगर फिर भी ऐ ‘अदम’। थोड़ा सा जहर ला कि तबीयत उदास है।। खुदा के लिए आपने फरमाया कि- खुदा मिला तो उसे दाद बरमला2 दूँगा। वगरना दैर3 की चौखट पे सर झुका दूँगा।। ‘अदम’ ही में ऐसा दुस्साहस हो सकता है कि खुदा को दिखाई देने की चेतावनी दे सके। खुदा की बनाई इस दुनिया को तमाशा बताकर खुदा की कार साजी पर हँसने का साहस भी अदम जैसा अज़ीम शायर ही कर सकता है। यह बात कही भी बहुत खूबसूरत तरीके से गई है, इस गज़ल में- मुझको अहवाले-गुलिस्ताँ4 पे हँसी आती है। इस हसीं ख्वाबे-परीशाँ5 पे हँसी आती है।। महजबीनों से ये दर्याफ़्त6 तो कीजे, उनको। क्यों मेरे चाक गिरेबां7 पे हँसी आती है।। है भरम उसका भी कायम तेरी अंगड़ाई तक। वुसअते-आलमे-इमकां8 पे हँसी आती है।। आज फिर उसका बुरा हाल है मेरे बाइस9। आज़ फिर सूरते-दरबां10 पे हँसी आती है।। अक़्ल के बहम ये यूं आता है खंदा जैसे। वहशते-चश्मे-ग़ज़ाला11 पे हँसी आती है।। क्या तमाशा-सा बना डाला है ज़ालिम ने ‘अदम’। बाज़-औक़ात12 तो यज्दाँ पे हँसी आती है।। 1. महजबीं- चन्द्रमुखी; 2. बरमला- मुँह के सामने; 3. दैर- मंदिर, बुतखाना; 4. अहवाले गुलिस्ताँ- बाग के हालात; 5. ख्वाबे परीशाँ- बुरा सपना; 6. दर्याफ़्त- पूछताछ; 7. चाक गिरेबां- फटे कपड़ों; 8. वुसअते आलमे इमकां- संसार की विशालता की संभावना; 9. बाइस- कारण; 10. सूरते दरबां- दरबान की सूरत; 11. वहशते चश्मे ग़ज़ाला- हिरणी जैसी आँखों की घबराहट; 12. बाज़ औक़ात- कभी कभी तो। जिंदगी में कभी खुशी तो कभी ग़म और इन दोनों के बीच चलती लगातार की खींचातानी। आबादी और बर्बादी की इस कहानी में बर्बाद होने में पाबन्दियों से आजादी मिलती है। इस फ़लसफ़े का बयाँ करती ये गज़ल पेश है। पाबंदिये-हयात1 से आजाद हो गये। यानी बड़े खुलूस से बर्बाद हो गये।। थी इतनी-बे-मज़ा मेरी रूदादे-जिन्दगी2। वो रहम खा के शामिले-रूदाद3 हो गये।। मेरी नज़र से बुझ गये जलते हुए चिराग़। तेरी नज़र से मयकदे आबाद हो गये।। दो मुस्तकिल ज़िदों4 की कशाकश5 थी जिन्दगी। आबाद हो गये कभी बर्बाद हो गये।। इस दुनिया में कुछ लोग बीमार हैं, कुछ ग़मगीन हैं, कुछ नाउम्मीद है, कुछ उदास हैं। ये सब लोग सुबह की शम्मा के माफ़िक बुझने वाले हैं। इन पीड़ित इंसानों को तसल्ली की सख़्त जरूरत है। इस तसल्ली के महत्व को उज़ागर करती अदम साहब की यह सुंदर गज़ल पेश है। हँस हँस के यूँही बीमारों को हल्की सी तसल्ली देता जा। ए दोस्त गमों के मारों को हल्की सी तसल्ली देता जा।। बेलौस6 पुराने यारों से यूं रूठ के जाना ठीक नहीं। बेलौस पुराने यारों को हल्की सी तसल्ली देता जा।। काँटों की तपीदा नब्जों7 में उम्मीद की ठंडक भरता जा। फूलों के बुझे रूख़्सारों8 को हल्की सी तसल्ली देता जा।। ये लोग सहर की शम्मएँ9 हैं, नागाह न गुल हों जायें ‘अदम’। हस्ती के सितम-बरदारों10 को हल्की सी तसल्ली देता जा।। अदम साहब ने बहुत ही उम्दा शायरी लिखी। इस शायरी में रंगो-रवायत, फ़लसफ़ा, तसव्वुफ, भाषा की बेहतरीन शैली और तरन्नुम सभी कुछ उपलब्ध है। सफ़र को आगे बढ़ाने के लिये हमें लेकिन उनसे रूखसत लेनी पड़ेगी। और इस रूखसती से पहले चन्द अशआर यहाँ पेश करना लाजमी जान कर पेश करता हूँ- 1. पाबंदिये हयात- जीवन बंधन; 2. रूदादे ज़िंदगी- जीवनी, जीवन कथा; 3. शामिले रूदाद- जीवनी में सम्मिलित; 4. मुस्तकिल ज़िदों-विरोधी जिद, स्थाई विरोधाभास; 5. कशाकश-खेंचतान; 6. बेलौस- निस्वार्थ; 7. तपीदा नब्जों- गर्मनसों; 8. रूख़्सारों- गालों, कपोलों; 9. सहर की शम्मएँ- भोर के दिये; 10. सितम बरदारों- सितम झेलने वाले। पास रहता है, दूर रहता है। कोई दिल में ज़रूर रहता है।। जब से देखा है उनकी आँखों को। हल्का-हल्का सरूर रहता है।। ऐसे रहते हैं वो मेरे दिल में। जैसे जुल्मत में नूर1 रहता है।। अब ‘अदम’ का ये हाल है हर वक्त। मस्त रहता है चूर रहता है।। और, खुदा का नाम लेकर जी रहे हैं। यही इल्ज़ाम लेकर जी रहें है।। दलीले-होश2 है वादा-गुसारी3। खिरद4 से काम लेकर जी रहे हैं।। तुम्हारी बेरूख़ी से मरने वाले। तुम्हारा नाम लेकर जी रहे हैं।। दिले-नाकाम ही तुमने दिया था। दिले-नाकाम लेकर जी रहे हैं।। * 1. ज़ुल्मत में नूर- अंधकार में रोशनी; 2. दलीले होश- होश का साक्ष्य; 3. वादा गुसारी- वचन बद्धता; 4. खिरद- अकल।
![]() |
Post a Comment