हफ़ीज़ मुहम्मद ‘हफ़ीज़’ जालंधरी हफ़ीज़ जालंधरी साहब का जन्म जनवरी 1900 में जालंधर पंजाब में हुआ। खानदान से वे राजपूत चौहान थे पर बुजुर्ग ने इस्लाम अपनाया तो जायदाद खो बैठे और रह गये सिर्फ सूर्यवंशी मुसलमान। बचपन से ही पढ़ने में जहीन थे और छः बरस की उम्र में ही कुरान शरीफ न केवल पढ़ लिया बल्कि उसके बहुत सारे खंड कंठस्थ कर लिये। शेख सादी की लिखी कुछ नज़्में भी मुखज़बानी याद कर लीं। मिशन स्कूल में दाखिले पर दूसरी कक्षा तक पढ़ाई की पर तबीयत उचाट होने पर वहाँ से भाग कर सरकारी मदरसे में दाखिल हुए। वहाँ से फिर चौथी जमात में भागे तो आर्य स्कूल में दाखिल कराए गये और फिर मिशन हाई स्कूल में। गणित में कमजोरी की वजह से रोज पिटते थे और फिर पिटने के डर से भाग छूटते थे। इस तरह आखिर पढ़ाई से अलविदा कह कर सुखन-फहमी के दंगल में तबा आजमाने लगे। छठी ज़मात में बीमारी-ए-इश्क़ के हमले ने इनको शेरो-शायरी के प्रति और खींचा और मुशायरों में आने-जाने लगे। एक तरफ परिवार पर खुदा का कहर तो दूसरी तरफ तबीयत का उचाट होना इनके जीवन को बर्बाद किये देता लेकिन गज़ल-गोई के शौक ने इन्हें बचा लिया। उस्ताद की तलाश में अपने स्कूली मुदर्रिस सरफ़राज खाँ साहब से, हजरत ‘गिरामी’ तक की खिदमत में अपनी गज़लें इस्लाह के लिए भेजीं पर इस्लाह मिली कि वह अपना ही कलाम बार-बार खुद ही नाकिदाना नज़र से देखा करें। यह बात गाँठ में बांध कर आपने अपने ही कलाम पर ग़ौर करने और उसे भरसक सुधारने की आदत डाल ली। धीरे-धीरे बात बनने लगी और हफीज तहे दिल से दर्द के नग्में गाने लगे। आपके कलाम में वह असर था जैसे राग ‘मेघ-मल्हार’ में होता है या ‘दीपक’ में होता है। उन्होंने अपनी नज़्में और गज़लें तरन्नुम से गानी भी शुरू कर दी और गाने के साथ-साथ थोड़ा अभिनय भी कर लेते थे। इससे वे मुशायरों में ऐसे जम जाते थे कि दूसरा कोई भी शायर समा नहीं बाँध पाता था। अपनी भाषा और शैली को सरल बनाया। अपने कलाम में हिन्दी के छन्द भी डाले और उसके विषय भी जीवन से जुड़े हुए रखे। चाहे वह उनकी कविता ‘बसंत’ हो या ‘अभी तो मैं जवान हूँ’ और नज़्में ‘जल्वा-ए-सहर’, ‘तारों भरी रात’ और ‘बरसात’ सब की सब इस तरह से कही गई हैं कि अपने विषय को जीवन्त बना कर सुनने वालों को उस पर यकीन दिलवा कर छोड़े। जन साधारण की शायरी या हमारी-आपकी शायरी का जन्म हफीज साहब के साथ ही हुआ था। उनके पहले उर्दू शायरी में गीत नहीं लिखे जाते थे और गीतों का जन्म भी हफ़ीज साहब के साथ ही उर्दू शायरी में हुआ। उनके कविता, नज़्म, गज़ल और गीतों के कई दीवान छपे हैं जिनमें ‘नगमा-ए-ज़ार’, ‘सोजो-साज’ और ‘तल्खाबा-ए-शीरी’ बहुत प्रसिद्ध हुए हैं। उनकी कहानियों का भी एक संग्रह ‘हफ्त पैकर’ के नाम से छप चुका है। इन सभी में हफ़ीज के दिल से निकली सदाओं को आप जरूर देखेंगे। सही मायने में हफ़ीज जालंधरी साहब ही इस तरह का दावा कर सकते हैं कि- अहले-जबां तो हैं बहुत, कोई नहीं है अहले-दिल। कौन तेरी तरह ‘हफ़ीज’, दर्द के गीत गा सका।। हफ़ीज अपनी बोली मोहब्बत की बोली, न उर्दू, न हिन्दी और न हिन्दोस्तानी। हफ़ीज साहब के एक गीत जिसका नाम है ‘अभी तो मैं जवान हूँ’ के चन्द छन्द पेशे खिदमत हैं- इबादतों का जिक्र है निजात1 की भी फिक्र है। जुनून है सवाब2 का ख़याल है अज़ाब3 का।। मगर सुनो तो शेख़ जी! अजीब शै4 हैं आप भी! भला शबाबो-आशिकी, अलग हुए भी हैं कभी?? हसीन जल्वारेज5 हो, अदायें फितना खेज़6 हों। हवाएँ इत्रबेज़7 हो, तो शौक़ क्यों न तेज़ हों।। निगार-हाए फ़ितनागर,8 कोई इधर कोई उधर। उभारते हों ऐश पर, तो क्या करे कोई बशर9 ?? चलो-जी क़िस्सा मुख़्तसर,10 तुम्हारा नुक्ता-ए-नज़र11। दुरुस्त है तो हो मगर, अभी तो मैं जवान हूँ !! ये गश्त कोहसार की, ये सैर जू-ए-बार12 की। ये बुलबुलों के चहचहे, ये गुलरूखों13 के कहकहे।। किसी से मेल हो गया, तो रंजो-फ़िक्र खो गया। कभी जो बख़्त14 सो गया, ये हँस गया वो रो गया।। 1. निज़ात- पापों से छुटकारा; 2. सवाब- पुण्य; 3. अज़ाब- पाप; 4. शै- चीज़; 5. जल्वारेज़- प्रकट हो; 6. फितना खेज़- फसाद फैलाने वाली; 7. इत्रबेज़- खुशबू से भरी; 8. निगार हाए फितनागर- शोख, हसीनायें; 9. बशर- आदमी; 10. मुख़्तसर- संक्षिप्त; 11. नुक्ता ए नज़र-दृष्टि कोण; 12. जू ए बार- नदियो की सैर; 13. गुलरूखों- फूल से चेहरे वाली; 14. बख़्त- भाग्य। ये इश्क़ की कहानियाँ, ये रस भरी जवानियाँ। उधर से मेहरबानियाँ, इधर से लनतरानियाँ1।। ये आस्मान ये जमीं, नज़्ज़ारा-हाए दिलनशीं। इन्हें हयात-आफ़रीं,2 भला मैं छोड़ दूँ यहीं।। है मौत इस तरह क़रीं,3 मुझे न आयेगा यकीं। नहीं, नहीं अभी नहीं, अभी तो मैं जवान हूँ !! इसके बाद अब देखते हैं कि हफीज़ साहब का आज़ादी के बारे में क्या कहना है। उनकी नज़्म ‘फरेबे-आज़ादी’ के चन्द शेर पेश हैं- शेरों को आज़ादी है आज़ादी के पाबन्द रहें। जिसको चाहें चीरें-फाड़ें, खायें-पीयें आनन्द रहें।। साँपों को आज़ादी है हर बसते घर में बसने की। इनके सिर में ज़हर भी है और आदत भी है डसने की।। शाहीं को आज़ादी है आज़ादी से परवाज़4 करे। नन्ही-मुन्नी चिड़ियों पर जब चाहें मश्के-नाज़5 करे।। पानी में आज़ादी है, घड़ियालों और नहंगो को। जैसे चाहें पालें-पोसें, अपनी तुन्द उमंगों को।। इन्सान ने भी शोखी सीखी, वहशत6 के इन रंगों से। शेरों, सांपों, शाहीनों, घड़ियालों और नहंगों से।। इंसानों में भी शेर हैं कुछ, बाकी भेड़ों की आबादी है। भेड़ें तो सब पाबंद हैं लेकिन शेरों को आज़ादी है।। इंसानों में साँप बहुत हैं, कातिल भी ज़हरीले भी। इनसे बचना मुश्किल है आज़ाद भी हैं फुर्तीले भी।। शाहीं भी है चिड़याँ भी हैं, इंसानों की बस्ती में। उनको नाज़ बुलन्दी पर, ये नालां अपनी पस्ती में।। बहरे-जहाँ7 में जाहिर-ओ-पिनहां,8 इन्सानी घड़ियाल भी हैं। तालिबे-जानो-जिस्म9 भी हैं, शैदा-ए-जाहो-माल10 भी हैं।। पेट फटे पड़तें हैं इनके, ये मुँह फाड़े बैठें हैं। हर बाजार में हर मंडी में झंडे गाड़े बैठें हैं।। खा जाने का कौनसा गुर है जो इन सब को याद नहीं। जब तक इन को आजादी है कोई भी आजाद नहीं।। इनकी आज़ादी की बातें, सारी झूठी बातें हैं। खा जाने की तरकीबें हैं, पी जाने की घातें हैं।। 1. लनतरानियाँ- लम्बी चौड़ी हांकना; 2. हयात आफ़रीं- जीवन दायक; 3. क़रीं- करीब, निकट; 4. परवाज़- उड़ान; 5. मश्के नाज़- झपट पड़े; 6. वहशत- दीवानगी; 7. बहरे जहाँ- संसार रूपी समुद्र में; 8. पिनहां- छिपे हुए; 9. तालिबे जानो जिस्म- जान और शरीर को खत्म करने वाले; 10. शैदा ए जाहो माल- माल और रूतबा चाहने वाले। और तसव्वुफ की बात करें, फ़लसफ़े की बात करें तो क्या बात करें। जुबान ऐसी सरल और मर्म इतना गहरा। यह केवल हफीज ही कर सकते हैं। इनकी बानगी देखिये उनका (या गीत) ‘झूठा सब संसार’ के चन्द छन्दों में। इनमें आपको कभी कबीर नज़र आयेगा तो कभी रहीम- प्यारे झूठा सब संसार मोह का दरिया लोभ की नैय्या कामी खेवन हार मौज के बल पर चल निकले थे आन फँसे मझधार प्यारे झूठा सब संसार! तन के उजले मन के मैले धन की धुन है सवार ऊपर-ऊपर राह बतायें अन्दर से बटमार प्यारे झूठा सब संसार ! चोले धारे दीन धरम के निकले चोर-चकार इन चोलों की आड़ में चमके दो धारी तलवार प्यारे झूठा सब संसार ! ज्ञान-ध्यान के पत्तर1 बाँचें बेचे सुरग उधार ज्ञानी पातर2 बनकर नाचें नकद करें ब्योपार प्यारे झूठा सब संसार ! नज़्मों और गीतों के बाद अब उनकी गज़लों पर आते हैं। एक से एक बेहतरीन गज़लें आपने लिखीं जिनमें से छाँट कर दो गजलें पेशे-खिदमत हैं- 1. पत्तर- पत्र; 2. पातर- पात्र। क्यों हिज्र के शिकवे करता है, क्यों दर्द के रोने रोता है। जब इश्क किया तो सब्र भी कर, इसमें तो यही कुछ होता है।। आगाज़े-मुसीबत1 होता है, अपने ही दिल की शरारत से। आँखों में फूल खिलाता है, तलवों में काँटे बोता है।। अहबाब2 का शिकवा क्या कीजे, खुद जाहिरो-बातिन3 एक नहीं। लब ऊपर-ऊपर हँसते हैं, दिल अन्दर-अन्दर रोता है।। मल्लाहों को इल्ज़ाम न दो, तुम साहिल4 वाले क्या जानो। ये तूफां कौन उठाता है, ये कश्ती कौन डुबोता है।। क्या जानिये ये क्या खोयेगा, क्या जानिये ये क्या पायेगा। मन्दिर का पुजारी जागता है, मस्ज़िद का नमाज़ी सोता है।। दूसरी गज़ल इस प्रकार है - दो रोज़ में शबाब का आलम गुज़र गया। बदनाम करने आया था बरबाद कर गया।। बीमारे-गम मसीह5 को हैरान कर गया। उठ्ठा, झुका, सलाम किया, गिर के मर गया।। गुजरे हुए जमाने का अब तज़किरा6 ही क्या। अच्छा गुज़र गया बहुत अच्छा गुज़र गया।। देखो ये दिल्लगी कि सरे-रह-गुजरे-हुस्न7। इक-इक से पूछता हूँ कि मेरा दिल किधर गया।। ऐ चारागर8 मना मेरे तेग-आज़मा9 की खैर। अब दर्दे-सर की फिक्र न कर, दर्दे-सर गया।। अब मेरे रोने वालों खुदारा जवाब दो। वो बार-बार पूछते हैं कि कौन मर गया।। शायद समझ गया मेरे तूले-मरज10 का राज। अब चारागर न आयेगा, अब चारागर गया।। अब इब्तिदा-ए-इश्क11 का आलम12 कहाँ ‘हफीज’। कश्ती मेरी डुबो के वो साहिल उतर गया।। 1. आगाज़े मुसीबत- मुसीबत का आरम्भ; 2. अहबाब- रिश्तेदारों; 3. ज़ाहिरो बातिन- छुपा/ प्रकट; 4. साहिल- किनारे; 5. मसीह-जो फूंक मार कर मुर्दे को ज़िन्दा कर दें; 6. तज़किरा-ज़िक्र; 7. सरे रह गुजरे हुस्न- हसीनों के गुज़रने का रास्ता; 8. चारागर- चिकित्सक; 9. तेग आज़मा- तलवार का वार; 10. तूले मरज- लम्बी बीमारी; 11. इब्तिदा ए इश्क- इश्क का आरंभ; 12. आलम- हालत। आपके द्वारा कहे गये फुटकर शेरों, कत्आत में भी गज़ब की रवानियत और फ़लसफ़ा पाया जाता है। आप जरा इन अशआर को देखें- है अज़ल1 की इस गलत-बक्शी पे हैरानी मुझे। इश्क़ लाफ़ानी2 मिला है, जिन्दगी फ़ानी3 मुझे।। मैं वो बस्ती हूँ कि यादे-रफ्तगाँ4 के भेस में। देखने आती है अब मेरी ही वीरानी मुझे।। थी यही तमहीद5 मेरे मातमी अंदाज की। फूल हँसते हैं तो होती है परेशानी मुझे।। पूछता फिरता था दानाओं6 से उल्फ़त के रमूज7। याद रह-रह के आती है वो नादानी मुझे।। जब कोई ताजा मुसीबत टूटती है ऐ ‘हफीज़’। एक आदत है खुदा को याद कर लेता हूँ मैं।। बज़ाहिर सादगी से मुस्कुरा कर देखने वालों । कोई कम्बख़्त नावाकिफ8 अगर दीवाना हो जाए !! इरादे बाँधता हूँ, सोचता हूँ, तोड़ देता हूँ। कहीं ऐसा न हो जाए, कहीं ऐसा न हो जाए !! तक़ाज़ा मौत का है और मैं हूँ। बुजुर्गों की दुआ है और मैं हूँ।। उधर दुनिया है और दुनिया के बंदे। इधर मेरा खुद़ा है और मैं हूँ।। कोई दवा न दे सके, मश्वरा-ए-दुआ दिया। चारागरों9 ने और भी दर्द दिल का बढ़ा दिया।। ज़ौके-निगाह10 के सिवा, शौके-गुनाह11 के सिवा। मुझको बुतों12 से क्या मिला, मुझको खुद़ा ने क्या दिया? हफीज़ साहब ने अपने कलाम के लिये कहा कि ‘मेरा-कलामे-बेहतरीं’ क्योंकि उनका कलाम वास्तव में बेहतरीन है। आप इसको सुनकर या पढ़कर बज़्म से कहीं जा नहीं सकते। आपको उनके साथ वफ़ा निभानी ही होगी। नहीं तो वे खुद आ जायेंगे आपके पीछे ये कहते हुए कि- 1. अज़ल- पैदाइश का दिन; 2. लाफ़ानी- कभी खत्म न होने वाला; 3. फ़ानी- खत्म होने वाली; 4. यादे रफ्तगाँ- मरे हुए लोगों की याद; 5. तमहीद- प्रस्तावना; 6. दानाओं- समझदार; 7. रमूज- पहेलियाँ; 8. नावाकिफ- अंजान; 9. चारागरों- चिकित्सकों; 10. ज़ौके निगाह- देखने का शौक; 11. शौके गुनाह- पाप करने का शौक; 12. बुतों - हसीनों। मेरी बज्मे-वफ़ा से जाने वालों। ठहर जाओ कि मैं भी आ रहा हूँ।। बुतों को कौल1 देता हूँ वफ़ा का। कसम अपने खुदा की खा रहा हूँ।। वफ़ा का लाजमी था इक नतीजा। सजा अपने किये की पा रह हूँ।। नये काबे की बुनियादों से पूछो। पुराने बुत कदे क्यूं ढा रहा हूँ।। नहीं काँटे भी क्या उजड़े चमन में। कोई रोके मुझे मैं जा रहा हूँ।। नहीं ‘हफीज़’ साहब आप कहीं नहीं जाइये। और हम भी नहीं जायेंगे आप अपना ‘कलामे-बेहतरीन’ जारी रखें! ऐसा कहके हमने जब उनको रोका तो उन्होंने फरमाया - जहाँ कतरे को तरसाया गया हूँ। वहीं डूबा हुआ पाया गया हूँ।। बला काफी न थी इक जिन्दगी की। दोबारा याद फ़रमाया गया हूँ।। फरिश्ते को न मैंने शैतान समझा। नतीजा ये कि बहकाया गया हूँ।। मुझे तो इस खबर ने खो दिया है। सुना है कि मैं कहीं पाया गया हूँ।। ‘हफ़ीज;’ अहले-जबाँ2 कब मानते थे। बड़े ज़ोरों3 से मनवाया गया हूँ।। तो अब तो उर्दू के अहले जबाँ ने भी हफ़ीज की धाख मान ली। हम तो क्या चीज हैं उनके सामने। यहाँ से अब आगे बढ़ने में ही सार है। * 1. कौल- वचन; 2. अहले जबाँ- उर्दू ज़बान के ज्ञाता; 3. ज़ोरों- ज़बरदस्ती।