शब्बीर हसन खाँ ‘जोश’ मलीहाबादी शब्बीर हसन खाँ ‘जोश’ का जन्म 5 दिसम्बर 1894 ई. को मलीहाबाद उ. प्र. के एक जागीरदार घराने में हुआ। वे सामन्ती वातावरण में पले पोसे और बड़े हुए अतः अहंकार और स्वेच्छाचार उनकी शख्सियत में रच बस गया। लड़कपन से ही बदमिजाज रहा शख़्स धीरे-धीरे सख्त और जिद्दी किस्म का इंसान बन गया। वे अपने प्रति इतने भावुक हो गये कि पिता तक से विद्रोह कर बैठे, परिवार से विद्रोह कर बैठे। उन्होंने हर उस चीज़ का विरोध किया जो उनके स्वभाव अथवा इच्छा के अनुकूल न थी। आत्म-सम्मान इतना ज्यादा था कि खुदा के यहाँ जाने पर भी आव-भगत की आशा रखते थे! उन्हीं की जुबानी अर्ज़ है- हश्र में भी खुसरवाना1 शान से जायेंगे हम। और अगर पुरसिश2 न होगी तो पलट आयेंगे हम।। उनका अपना एक अलग संसार था और बाकी सबसे उनकी जंग। दूसरे आलम में हूँ, दुनिया से मेरी जंग है। वे खुदा को एक ऐसा महा मानव मानते थे जो सभी प्रकार की शक्तियों को उनकी इंतिहा तक हासिल कर चुका है और उसके सामने अन्य सभी व्यक्ति तुच्छ हैं। उन्होंने ईश्वर की सत्ता तक को नकार दिया और अपनी हर रचना से पहले ‘बिस्मिल्लाह’ की जगह ‘बनामे-कुव्वतो-हयात’ (जीवन तथा शक्ति के नाम) लिखना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने घमंड से प्रेरित हो कर जो नज़्में शुरू में लिखीं वे खतरनाक असर रखती थीं और भारत वासियों ने उनसे प्रेरित होकर बगावत का झंडा अंग्रेज-सरकार के खिलाफ खड़ा कर दिया। इसीलिए उनको ‘शायरे-इंकिलाब’ तथा ‘शायरे-बग़ावत’ की उपाधि से नवाजा गया। यह कुछ हद तक सही भी था क्योंकि वे बग़ावत के बारे फरमा गये हैं कि- आँधियों से मेरी उड़ जाता है दुनिया का निज़ाम3। रहम का अहसास है मेरी शरीअत में हराम।। 1. खुसरवाना- राजकीय; 2. पुरसिश- पूछताछ; 3. निज़ाम- व्यवस्था। मौत है खुराक मेरी, मौत पर जीती हूँ मैं। शेर होकर गोश्त खाती हूँ, लहू पीती हूँ मैं।। वे शायरे-बग़ावत कहे जाने के हकदार तो थे लेकिन ‘शायरे-इंक़िलाब’ कहलाने के हकदार नहीं क्योंकि इंक़िलाब शब्द का मतलब बग़ावत नहीं बल्कि सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक परिवर्तन होता है जिसका आधार उनकी किसी नज़्म या गज़ल में नहीं पाया जाता। उनकी नज़्में पढ़ने वाले के मन में एक संघर्ष की और यथा स्थिति से विद्रोह की भावना को तो जन्म देती है लेकिन क्रांति का सूत्रधार नहीं बन सकती। उनकी नज़्में आक्रोश पैदा कर विनाश की भूमिका तो डाल देती है परन्तु दूसरे या किसी आदर्श समाज, राजनैतिक व्यवस्था अथवा अर्थ व्यवस्था के निर्माण की नींव नहीं डाल सकती। जैसे टालस्टॉय ने आपने लेखों तथा कथाओं के माध्यम से रूस में बोल्शेविक-क्राँति की भूमिका बना दी थी वैसी बात ‘जोश’ साहब की शायरी में नहीं पायी जाती। फिर भी उनकी शायरी ने गुलामी, मज़हबी जुनून, अंधविश्वासों तथा परम्परावादी धारणाओं के विरुद्ध एक बिगुल बजाने का काम अवश्य कर डाला। एक सोई कौम को मात्र जगा देना और अच्छे बुरे का ज्ञान करवा देना भी कोई कम काम नहीं होता। और जोश ने यह करके अपने तख़ल्लुस ‘जोश’ के मायने को सार्थक कर दिया। मज़हबी जुनून से हट कर वतन-परस्ती और कौमी एकता की बात करने वाला यह शायर आजादी के बाद भी पाकिस्तान नहीं गया और यहाँ के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री ‘जवाहर लाल नेहरू’ की नाक का बाल बन गया। इस विषय पर उनकी एक नज़्म पेश है- मज़हबी अख़लाक1 के ज़ज़्बे को ठुकराता है जो। आदमी को आदमी का गोश्त खिलवाता है जो।। फर्ज़ भी कर लूँ कि हिन्दू हिन्द की रूसवाई है। लेकिन इसको क्या करूँ फिर भी वो मेरा भाई है।। बाज़ आया मैं तो ऐसे मज़हबी तआव्वुन2 से। भाईयों का हाथ तर हो भाईयों के खून से।। तेरे लब पर हैं इराको-शामो-मिस्त्रे-रोमो चीं। लेकिन अपने ही वतन के नाम से वाक़िफ नहीं।। सबसे पहले मर्द बन हिन्दोस्ताँ के वास्ते। हिन्द जग उठे तो फिर सारे जहाँ के वास्ते।। 1. अख़लाक- मिलनसारी; 2. तआव्वुन- हिमायत, लगाव। रिश्वत खोरी हमारे यहाँ हमेशा से रही है और शायद ही कभी खत्म होगी। जोश साहब ने एक बहुत लम्बी नज़्म जो इस विषय के हर पहलू को उज़ागर करती है लिखी है। इस नज़्म के कुछ बन्द पेश हैं- लोग हमसे रोज कहते हैं ये आदत छोड़िये। ये तिज़ारत1 है ख़िलाफे-आदमीयत छोड़िये।। इससे बदतर लत नहीं हैं कोई, ये लत छोड़िये। रोज अखबारों में छपता है कि रिश्वत छोड़िये।। भूल कर भी जो कोई लेता है रिश्वत, चोर है। आज कौमी पागलों में रात-दिन ये शोर है।। किसको समझायें इसे खो देंगे तो पायेंगे क्या? हम अगर रिश्वत नहीं लेंगे तो खायेंगे क्या? कैद भी कर दें तो हमको राह पर लायेंगे क्या। ये जूनूने-इश्क़ के अंदाज छुट जायेंगे क्या।। मुल्क़ भर को कैद कर दे किसके बस की बात है। ख़ैर से सब हैं, कोई दो चार दस की बात है।। भूख के कानून में ईमानदारी जुर्म है। और बेईमानियों पर शर्मसारी जुर्म है।। डाकुओं के दौर में परहेज़गारी जुर्म है। जब हुकूमत ख़ाम2 हो तो पुख़्ताकारी3 जुर्म है।। लोग अटकाते हैं क्यों रोड़े हमारे काम में। जिसको देखो ख़ैर से नंगा है वो हम्माम4 में।। पत्थरों को तोड़ते हैं आदमी के उस्तख़्वाँ5। संगबारी हों तो बन जाती है हिम्मत सायबाँ6।। पेट में लेती है लेकिन भूख जब अँगड़ाईयाँ। और तो और, बच्चे को चबा जाती है माँ।। क्या बताएँ बाजियाँ हैं किस क़दर हारे हुए। रिश्वतें फिर क्यों न लें हम भूख के मारे हुए।। बादशाह जलाल्लुद्दीन अकबर ने अपना एक अलग मज़हब बनाया, ‘दीन-ए-इलाही’ और उसी तर्ज पर ‘जोश’ साहब ने एक नज़्म लिखी, ‘दीने-आदमीयत’ इस नज़्म के चन्द शेर पेश हैं। ये मुसलमाँ है, वो हिन्दू, ये मसीही, वो यहूद। इस पे ये पाबन्दियाँ हैं, और उसपे ये कयूद7।। 1. तिज़ारत- व्यापार; 2. ख़ाम- अपरिपक्व; 3. पुख़्ताकारी- परिपक्वता; 4. हम्माम- स्नान घर; 5. उस्तख़्वाँ- हड्डियाँ; 6. सायबाँ- छावण, छत्र; 7. कयूद- बन्धन। शेखो-पंडित ने भी क्या अहमक़फ1 बनाया है हमें। छोटे-छोटे तंग ख़ानों में बिठाया है हमें।। कोई इस ज़ुल्मत2 में सूरत ही नहीं है नूर की। मुहर दिल पे लगी है इक न इक दस्तूर की।। काबिले-इबरत3 है यह महदूदियत4 इन्सान की। चिट्ठियाँ चिपकी हुई हैं, मुख़्तलिफ अदयान5 की।। फिर रहा है आदमी भूला हुआ भटका हुआ। इक न इक लेबिल है हर माथे पर लटका हुआ।। आख़िर इंसाँ तंग साचों में ढला जाता है क्यों। आदमी कहते हुए अपने को शर्माता है क्यों।। अपने हम जिन्सों के कीने से भला क्या फ़ायदा। टुकड़े-टुकड़े हो के जीने से भला क्या फ़ायदा।। ‘जोश’ साहब ने नज़्मों तथा गज़लों के अलावा रूबाईयात भी अच्छी लिखीं। इनमें से कुछ चुनी हुई रूबाईयात पेशे-खिदमत हैं। जो चीज़ इकहरी थी वो दुहरी निकली। सुलझी हुई जो बात थी उलझी निकली।। सीपी तोड़ी तो उसमें मोती निकला। मोती तोड़ा तो उसमें सीपी निकली।। जिन्दगी में एक न एक आफ़त जान को लगी ही रहती है। इस बात का बयाँ देखिये- मर-मर के जब इक बला से पीछा छूटा। इक आफ़ते-ताजा-दम ने आकर लूटा।। इक आबला-ए-नौ6 से हुआ सीना दो चार। जैसे ही पुराना कोई छाला फूटा।। ऐसी जिन्दगी जीते-जीते इंसान उकता जाता है। उसका दम टूट जाता है। सर घूम रहा है नाव खेते-खेते। अपने-को फ़रेबे-ऐश देते-देते।। उफ़-जहदे-हयात7 ! थक गया हूँ माबूद8। दम टूट चुका है साँस लेते-लेते।। इस तरह से टूट चुके इंसान को जोश साहब का कहना है कि घबरा मत! ये उम्र तो तूं जैसे गुजारेगा वैसे ही गुज़र जायेगी। 1. अहमक़- बेवकूफ; 2. ज़ुल्मत- अंधकार; 3. काबिले इबरत- शिक्षा देने योग्य; 4. महदूदियत- सीमायें; 5. अदयान- धर्मों; 6. आबला-ए-नौ- नया फफ़ोला; 7. जहदे हयात- जीने की मशक्कत. 8. माबूद- खुदा। तुझसे जो फिरेगी तो किधर जायेगी। ले जायेगा जिस सिम्त1 उधर जायेगी।। दुनियाँ की हवादिस से न घबरा कि ये उम्र। जिस तरह गुज़ारेगा गुज़र जायेगी।। ओछे व्यक्तियों के बीच योग्य होना एक आफ़त है। अच्छे रास्ते पर चलना भी मुसीबत का कारण है। इतिहास यदि देखते हैं तो पता चलता है कि मूर्ख के बीच बुद्धिमान होना एक जुर्म होता है। इक फ़ित्ना2 है नाकिसों3 में कामिल4 होना। इक कहर है वाबस्ता-ए-मंजिल होना।। तारीख़े-औराक5 जो उल्टे तो खुला। इक जुर्म है अहमकों में आक़िल6 होना।। इंसान को खुद पता नहीं कि जिंदगी से वो चाहता क्या है? सब एक उन्माद में जिंदगी बिताते हैं। इस बात को क्या खूब कहा है। हर सुबह है इक अजीब सौदा7 मुझको। हर शाम है इक तरफ़ा तक़ाज़ा मुझको।। जुग बीत गया मगर ये अब तक न खुला। आख़िर किस शै की है तमन्ना मुझको।। अक़्सर ऐसा होता है कि इंसान के दिल की बात नहीं होती और यह भी होता है कि वह खुद अपने व्यवहार को ही समझ नहीं पाता। इस बात को कहने का अंदाज देखिये- जो दिल की है वो बात नहीं होती है। जो दिन न हो वो रात नहीं होती है।। हस्ती है वो तूफ़ान, कि अक़्सर ‘जोश’। अपने से मुलाक़ात नहीं होती है।। इंसान कभी अपने को झूठा दिलासा देता है, कभी बहलाने की कोशिश करता है तो कभी सच को झुठलाने का प्रयत्न करता है। वह जितने धोखे खुद को देता है उतने तो कोई दुश्मन भी उसे नहीं देता। इसका जिक्र देखिये- फित्ने की नदी में नाव खेता हूँ मैं। धोखे की हवा में साँस लेता हूँ मैं।। इतने कोई दुश्मन को भी नहीं देता जुल8। जितने ख़ुद को फ़रेब देता हूँ मैं।। 1. सिम्त- दिशा; 2. फ़ित्ना- मुसीबत; 3. नाकिसों- मूर्खो, बेवकूफों; 4. कामिल- ज्ञानी; 5. तारीखे औराक- इतिहास के पन्ने; 6. आकिल-अकलमंद; 7. सौदा- धुन; 8. जुल- धोखे, फ़रेब। इंसान इंसान नहीं रहा, मजहबी कुनबों में बँट गया है इस बात को इतने असरदार तरीके से जोश साहब के अलावा और कोई कह नहीं सकता। खंजर है कोई तो तेगे-उरियाँ1 कोई। सरसर2 है कोई तो बादे-तूफां3 कोई।। इंसान कहाँ है? किस कुर्रे4 में गुम है। याँ तो कोई हिन्दू है, मुसलमाँ कोई।। आदमी कभी भी जड़ आत्म प्रवंचना से ऊपर नहीं उठता। आठों पहर खुद के बारे में सोचता रहता है। और इसी तरह जिन्दगी बसर करता है। मख़लूक5 तेरी खिदमत से बहुत डरता है। अपने ही लिए आठ पहर मरता है।। अफ़सोस तेरा इना-ए-जामिद6 ऐ शख्स। अपने से तज़ावुज़7 ही नहीं करता है।। फ़लसफ़े के अलावा शेख, बरहमन पर तंज करने से भी ‘जोश’ साहब नहीं चूके। उनके इस अंदाज को देखिये- क्या शेख की ख़ुश्क जिन्दगानी गुज़री। बेचारे की इक शब न सुहानी गुज़री।। दोज़ख के तखय्युल8 में बुढ़ापा बीता। ज़न्नत की दुआओं में ज़वानी गुज़री।। आते नहीं जिनको और धंदे साक़ी। औहाम9 के बुनते हैं वो फंदे साक़ी।। जिस ‘मै’ को छुड़ा न सका अल्लाह अंत तक। उस ‘मै’ को छुड़ा रहे हैं बंदे साक़ी।। क्या मिलेगा शेख गुलफ़िशानी10 करके। क्या पायेगा तौहीने-जवानी करके।। तू आतिशे-दोज़ख से डराता है उन्हें। जो आग को पी-जाते हैं पानी करके।। और पीने वालों से उनका कहना है कि- 1. तेगे उरियाँ- नंगी तलवार; 2. सरसर- लू; 3. बादे तूफाँ- आँधी, तूफानी हवा; 4. कुर्रे- भंवर; 5. मख़लूक- मानव; 6. इना ए जामिद- जड़ आत्मा; 7. तज़ावुज़- आगे बढ़ना; 8. तखय्युल- ख्याल; 9. औहाम- शंकाओं; 10. गुलफ़िशानी- अच्छी बातें। मरने पे नवेद-जाँ1 मिले न मिले। ये कुंज2 ये बोस्ताँ3 मिले न मिले।। पीने में कसर न छोड़ ऐ ख़ाना ख़राब। मालूम नहीं वहाँ मिले न मिले।। और ‘जोश’ साहब को विदा कहने से पहले एक मज़ाक उनका देख लें जो उन्होंने खुदा से कर डाला- मर्ज़ी हो तो सूली पे चढ़ाना यारब। सौ बार जहन्नुम में जलाना यारब।। माशूक कहें ‘आप हैं हमारे बुज़ुर्ग’। नाचीज़ को ये दिन न दिखाना यारब।। * 1. नवेद जाँ- जीवन की खुशखबरी; 2. कुंज- कोना, एकांत; 3. बोस्ताँ- बाग।