हाफ़िज़ मुहम्मद अली ‘हफ़ीज’ जौनपुरी हाफ़िज़ मुहम्मद अली ‘हफ़ीज’ जौनपुर उ.प्र. के बाशिन्दे होने से ‘हफ़ीज’ जौनपुरी के नाम से जाने जाते हैं। आप पहले ‘वसीम’ अज़ीमाबादी साहब से इस्लाह लेते रहे और फिर ‘अमीर’ मीनाई साहब से। आप कभी मीर-तकी-मीर और आतिश के रंग में लिखते थे तो कभी दाग देहलवी साहब के रंग में। अपने बारे में आपका फरमाना था कि - शेर हर रंग में कहना है तेरा काम हफ़ीज। आज हम मान गये, मान गये, मान गये।। जब ‘आतिश’ के अन्दाज में लिखा तो तबीयत फ़कीराना हो गई। चन्द नमूने पेश हैं- देखिये तो हर इक जगह है वोह। ढूँढ़िये तो कहीं नहीं मिलता।। अजब नहीं है कि छोटी ताअतें1 मक़बूल2। कनीज़ें होती हैं शाहों को ख़ुर्द-साल3 पसंद।। हफ़ीज ! जाहो-हशम4 से किसी के क्या मतलब ? फ़क़ीर मस्त हूँ अपना है मुझको माल पसंद।। जहादे-नफ़्स5 की सर हो मुहिम तो क्या कहना ? ज़हे-नसीब मिले मर्तबा जो ग़ाज़ी का। रहके दुनियाँ में कोई काम न उक़बा6 का किया।। यूँ सफ़र में हैं कि कुछ ज़ादे-सफ़र7 पास नहीं।। (अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेने की मुहिम में सफलता मिले तभी मज़ा है। नसीब अच्छा तभी हो जब ग़ाज़ी का मर्तबा हासिल हो। दुनिया में रह कर तो परलोक सुधारने के लिए कुछ न कर पाये और सफ़र ऐसे काट दिया जैसे सफ़र में खर्चे के लिये कुछ न हों।) 1. ताअतें- पूजायें; 2. मकबूल- कुबूल, स्वीकृत; 3. खुर्द साल- कम उम्र; 4. जाहो हशम- शान शौकत; 5. जहादे नफ़्स- इच्छाओं से लड़ाई; 6. उक़बा- परलोक; 7. ज़ादे सफ़र- यात्रा में साथ ले जाने वाला सामान। दुनिया का कारखाना है इक तिलिस्मे-इबरत1। दौलत जहाँ गड़ी थी-मुर्दे वहाँ गड़े हैं।। जब ‘दाग’ के अन्दाज में लिखा तो सोज़ो-गुदाज़ आ गया, रवानी आ गई। नमूने के तौर पर- ‘‘मेरा दिल आ गया इक हसीं पर।’’ ये सुनना था कि वोह बोले हमीं पर।। ये फ़िक़रे, ये चालें, ये बातें ये घातें। तुझे ओ दग़ाबाज ! हम जानते हैं।। अदा परियों की, सूरत हूर की, आँखें ग़ज़ालों2 की। ग़रज़ माँगे की हर इक चीज़ है, इन हुस्न वालों की।। या तो बिगड़े हुए तेवर मेरे पहचान गये। या कुछ बात ही ऐसी थी कि झट मान गये।। यह आज आते ही जाने की तुमने ख़ूब कही। हँसे न थे कि रूलाने की तुमने खूब कही।। शेख बरसात में जाकर लबे-जू3 पीते हैं। क़िब्ला-रू4 बैठते हैं, करके व़जू पीते हैं।। मेरे शबाब ? की तौबा पे जा न ऐ वाइज़ ! नशे की बात नहीं एतबार के काबिल।। कभी ‘मीर’ के अदांज को हासिल करना चाहा पर बात न बनी! बैठे-बैठे रास्ता कासिद का दिन भर देखना। तारे गिनना शाम से या जानिबे-दर देखना।। जिस रोज़ रूका नामा-औ-पैगाम तुम्हारा। मर जायेगा ले-ले के कोई नाम तुम्हारा।। हम कब के मर चुके थे जुदाई में ऐ अजल5 ! जीना पड़ा कुछ और तेरे इन्तज़ार में।। इसीलिए कह बैठे कि- ‘मीर’ के अंदाज़ पर किसने गज़ल लिखी ‘हफ़ीज़’! मुझे ज़ेबा6 है अगर इस बात का दावा मैं करूँ।। 1. तिलिस्मे इबरत- नसीहत, ज्ञान का तिलिस्म; 2. गज़ालों- हिरणों; 3. लबे जू- नदी के किनारे; 4. किब्ला रू- पश्चिम मुखी (काबे की तरफ मुँह); 5. अजल- मृत्यु; 6. ज़ेबा- शोभा नहीं देना। लेकिन इनका कलाम लख़नवी अंदाज के कलामों में से यादगार कलाम कहा जा सकता है। चंद अशआर पेशे-खिदमत हैं- दुश्मन न था शबाब तो नादान दोस्त था। बदनाम कर गया मुझे, बदनाम हो गया।। मसरूफ1 कब हुए हैं वोह फ़िक्रे-इलाज़ में। जब दागे-दिल कलेजे का नासूर2 हो गया।। दमे-रूख़सत3 तो मिल लेते गले आप। तड़पता छोड़ कर मुझको क्यों चले आप।। आदमी से मुहब्बत में जो न हो थोड़ा है। इतनी सी जान पै हिम्मत है यह परवाने की।। शम्अ सर धुनती है, यह रोती है खड़ी बाली4 पर। जिंदगी से कहीं मौत अच्छी है परवाने की।। हम भूले हुए हैं राह! ऐ काबानशीनों5 ! जाते थे कहीं और, निकल आये कहीं और।। जाते हैं मिटाते हुए वोह नक़्शे-क़दम को। कहदे कोई उनसे कि है इक खाकनशीं6 और।। उनकी नज़रों में जँची कुछ भी न यूसुफ़ की शबीह7। मुंह बनाकर यह कहा-‘‘हाँ ख़तोख़ाल8 अच्छा है’’।। दर्दे-दिल सुनके मेरा समझे फ़साना है कोई। बोले-‘रूकिये न, कहे जाइये, हाल अच्छा है’।। आहो-फ़ुगा9 से बन गई बुलबुल की जान पर। और गुल वोह है कि जूँ कभी रेंगी न कान पर।। इंकार का गुमाँ है न इकरार का यक़ीन। यह बात खत्म हो गई, उनकी ज़बान पर।। कयामत का मुझे डर क्या, जो कल आती है आज आये। तुम्हारे साथ की खेली है, मेरी देखी-भाली है।। 1. मसरूफ- व्यस्त; 2. नासूर- न भरने वाला घाव; 3. दमे रूख़सत- बिदाई के वक्त; 4. बाली- सिरहाने पर; 5. काबानशीनों- काबे में बैठने वाले; 6. खाकनशीं- खाक पर बैठने वाला; 7. शबीह- तस्वीर; 8. ख़तोख़ाल- चेहरा मोहरा; 9. आहो फुगा- रोना चिल्लाना और आहें भरना। मुख़्तसर1 हाले-जिन्दगी यह है। लाख सौदा था और इक सर था।। उनकी रूखसत का तो दिन याद नहीं। यह समझिये कि रोज़े-महशर था।। खाक बनती तेरे-मेरे दिल में। एक शीशा था एक पत्थर था।। गर्मी का जमाना हो कि जाड़े का जमाना। हमने कभी छोटी, शबे-फुर्कत2 नहीं देखी।। नासेह मेरा ज़ी होश है, दीवाना नहीं है। बात इतनी है उसने तेरी सूरत नहीं देखी।। उठ गया कैस जो सहरा से तो आई आवाज। ’अपने घर को तो न वीराना बनाया होता’। मैं अपने होश में ऐ फ़ित्नागर3 नहीं, न सही। तेरी खबर तो है, अपनी खबर नहीं, न सही।। न खुशी अच्छी है ऐ दिल ! न मलाल4 अच्छा है। यार जिस हाल में रक्खे वही हाल अच्छा हैं।। * 1. मुख़्तसर- संक्षेप; 2. शबे फुर्कत- जुदाई की रात; 3. फ़ित्नागर- उपद्रवी; 4. मलाल- अफसोस।