अली सिकन्दर ‘ज़िगर’ मुरादाबादी ‘कोई अच्छा इंसान ही एक अच्छा शायर हो सकता है।’ यह बात कहने वाला इंसान था अली सिकन्दर ‘ज़िगर’ मुरादाबादी। इनके पिता मौलवी अली ‘नज़र’ स्वयं भी एक अच्छे शायर थे और ख़्वाजा वज़ीर देहलवी के शागिर्द थे। इनके एक पूर्वज मौलवी ‘समीअ’ देहली में रहते थे और बादशाह शाहजहान के उस्ताद थे। अतः शायरी इनकी रगों में बहती थी। शायरी तेरह बरस की उम्र में शुरू की तो वालिद साहब से इस्लाह लेने लगे। उसके बाद जनाब दाग देहलवी साहब से इस्लाह ली। आपके कलाम में इसीलिए दाग साहब का रंग छलकता है। अन्त में ‘असगर’ गौण्डवी साहब की सोहबत1 में रहे तो सूफियाना रंग भी आपकी शायरी में आ गया। शक्ल से खूबसूरत नहीं और उस पर रहन सहन की बेतरतीबी ने उन्हें एक अलग पहचान दिलवा दी। उनका शेर पढ़ने का तरीका कुछ ऐसा दिलकश था कि वह नये शायरों में बहुत पसंदीदा हो गया था और वे जिगर के अंदाज की नकल किया करते थे। जिगर बेतहाशा2 शराब पिया करते थे। उनकी इस आदत से उनकी बीवी जो ‘असगर’ गौण्डवी साहब की साली थी बहुत परेशान रहती थी। शराबखोरी ने जब घर उजाड़ दिया तो पत्नी भी इन्हें छोड़कर अपने जीजा असगर के साथ रहने लगी। पीने का यह आलम था कि यदि दस आदमी भी पिये तो उतनी न पी पायें जितनी कुछ सालों में ये पी गये थे। लेकिन इतना पीने पर भी आपके शेरों की बुलन्दी में कोई कमी नहीं आती थी। पीने-पिलाने पर ही एक शेर पेशे-खिदमत है‒ मुझे उठाने को आया है वाइज़े-नादाँ। जो उठ सके तो मेरा साग़रे-शराब3 उठा।। किधर से बर्क़ चमकती है देखें ए बाइज़। मैं अपना जाम उठाता हूँ तूं किताब उठा।। जब इन्होंने शराब पीनी छोड़ी तो फिर कभी मुड़कर नहीं देखा। ऐसा माना जाता है कि असगर गौंडवी साहब के देहान्त पर इन्होंने वापस अपनी बीवी से शादी कर ली और उसी ने इनका पीना छुड़ाया। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि भारत की आजादी के आन्दोलन में क्रान्तिकारियों की भूमिका से ज़िगर साहब काफी प्रभावित हो गये और उन्होंने ये कहते हुए पीना छोड़ दिया कि- 1. सोहबत- संपर्क, साथ; 2. बेतहाशा- बहुत ज्यादा; 3. सागरे शराब- जाम, शराब का प्याला। सलामत तूं, तेरा मयख़ाना, तेरी अंजुमन साकी। मुझे करनी है अब कुछ ख़िदमते-दारो-रसन1 साक़ी।। रगों पै कभी-कभी सहबा2 ही सहबा रक़्स करती थी। मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मौजज़न3 साकी।। शराब से जो तौबा की तो इरादा इतना पुख़्ता कर लिया कि डाक्टर के यह कहने पर भी कि यदि वे शराब फिर पीनी शुरू कर दें तो उनकी तबीयत सुधर सकती है, उन्होंने शराब न पी। शराब छोड़ी तो बेतहाशा सिगरेट पीने लगे। फिर सिगरेट छोड़ी तो ताश-पत्ती में रम गये। यानी कि इक न इक शगल चाहिये जिन्दगी काटने को। जिन्होंने आपको करीब से देखा है उनका मानना है कि ज़िगर खुश-मिजाज़ और खुले-दिल के इंसान थे और दूसरे नये शायरों को काफ़ी हिम्मत और दाद बख्शा करते थे। इनके मुशायरों में वे अपने खर्चे पर शिरकत4 करते थे। बातें बड़ी मजेदार करते थे लेकिन बातों में तारतम्य बहुत कम होता था। फ़लसफे पर बात करते थे पर शीघ्र ही विषय से भटक जाते थे। लेकिन जब शेर कहते थे तो फिर वही आला दर्जे की शायरी- यही हुस्नो-इश्क का राज़ है, कोई राज इसके सिवा नहीं। कि खुदा नहीं तो ख़ुदी नहीं, जो खुदी नहीं तो खुदा नहीं। खुद गज़लगो शायर थे और गज़ल को ही शायरी की इंतिहा मानते थे। इसमें उनको इतनी महारत हासिल थी कि ‘गज़ल का बादशाह’ माने जाते थे। नज़्म का विरोध तो करते थे पर उस समय में जो घटनाएं घटित हुईं उनसे वे प्रभावित हुए बिना न रह सके और खुद को अपने ज़ज़्बात लिखने से न रोक सके। बंगाल में पड़े अकाल पर उन्होंने लिखा कि- बंगाल की मैं शामो-सहर5 देख रहा हूँ। हरचंद कि हूँ दूर मगर देख रहा हूँ।। इंसान के होते हुए इंसान का ये हश्र। देखा नहीं जाता है मगर देख रहा हूँ।। 1. खिदमते दारो रसन- खुदा की सेवा; 2. सहबा- लाल रंग की शराब; 3. मौजज़न - लहराती हुई; 4. शिरकत- शामिल होना; 5. शामो सहर- शाम और सुब्ह। जब देश का विभाजन हुआ और मज़हबी जूनून के चलते मार काट होने लगी तो आप बेचैन हो कर कह बैठे कि- फ़िक्रे-ज़मील1 ख्वाबे-परेशां2 है आजकल। शायर नहीं है वो जो गज़ल-ख्वाँ3 है आजकल।। नज़्म की ऐसी तरफदारी और वह भी एक ऐसे शायर के मुँह से जो कि खुद गजलों का बादशाह कहलाता हो! वक़्त, वक़्त की बात नहीं तो और क्या कहें इसे! ज़िगर साहब को भूल जाने की भी बहुत खराब आदत थी। इस आदत से बाज आ कर याद रखने के लिए डायरी में लिखना शुरू किया लेकिन किसी रोज उस डायरी को भी कहीं रखकर भूल गये। लोगों की आफ़त के समय में मदद इमदाद करते और फिर उसको बेतहाशा ऐसा भूल जाते कि याद दिलाओ तो भी न याद आये। मज़ाक भी अच्छा कर लेते थे अतः बेहद दिलचस्प इंसान बन गये थे। आपका एक दीवान ‘दागे-ज़िगर’ 1921 में और दूसरा ‘शोला-ए-तूर’ 1923 में प्रकाशित हुआ। एक और दीवान ‘आतिशे-गुल’ नाम से 1958 में प्रकाशित हुआ और वर्ष 1959 की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में सम्मानित हुआ। सितम्बर 1960 में आपका गौण्डा में स्वर्गवास हो गया पर आपका पैगामे-मुहब्बत तो आपको अमर कर गया- उनका जो फर्ज़ है अरबाबे-सियासत4 जानें। मेरा पैगाम मोहब्बत है, जहाँ तक पहुँचे।। जिगर का इश्क़ बाजारू नहीं हो कर पाकिया इश्क़ है। इश्क़ की शायरी में सब से जियादह अच्छी परिभाषा ज़िगर मुरादाबादी साहब ही ने दी है। यह इश्क़ नहीं आसाँ, इतना ही समझ लीजे। इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।। उनके लिये इश्क़ परवाने की तरह फना हो जाना है, वे इश्क़ में कोई भी तरह की रहम नहीं देखते‒ इश्क़ फ़ना5 का नाम है इश्क़ में जिंदगी न देख। जलवये-आफ़ताब6 बन, जर्रे7 में रोशनी न देख।। होके रहेगा हमनवा8 वोह भी तेरे ही साथ-साथ। नग़्मये-शौक़9 गाये जा इश्क़ की बरहमी10 न देख।। 1. फ़िक्रे जमील- सुन्दरता की फ़िक्र; 2. ख्वाबे परीशां- आतुरता, बेचैनी, विकलता का स्वप्न; 3. गज़ल ख्वाँ- गज़ल लिखने वाला; 4. अरबाबे सियासत- राजनीति करने वाले,; 5. फ़ना- नाश, मौत; 6. जलवये आफताब-सूर्य का प्रकाश; 7. जर्रे- कण, छोटी वस्तु; 8. हमनवां- हमकदम, हमसफ़र; 9. नग़्मये शौक- इश्क के नग्मे; 10. बरहमी- अस्तव्यस्तता, नाराज़गी। इश्क़ में मजबूरियाँ है, महरूमियाँ है नाकामियाँ है परन्तु फिर इश्क़ तो बस इश्क़ है! हाय यह मजबूरियाँ, महरूमियाँ1, नाकामियाँ। इश्क़ आखिर इश्क़ है, तुम क्या करो हम क्या करें।। प्यार में अगर परेशानियाँ आती हैं तो वे उससे घबराते नहीं बल्कि उन्हें माशूक की रहमत समझ कर कुबूल करते हैं और मानते हैं कि मुहब्बत को भी इन पर नाज़ रहेगा। तेरी अमानते-ग़म का तो, हक अदा कर लूँ। खुदा करे शबे-फुरकत अभी दराज़2 रहे।। तेरे निसार अताकरदा3 एक लतीफ4 ख़लिश। तमाम उम्र मुहब्बत को जिस पै नाज़ रहे।। जिगर का माशूक भी हरजाई और बाजारू नहीं। वह भी एक हया परवर महजबीं है। प्रेम में वह जमाने की रूसवाई नहीं चाहती इसीलिये जुदाई में जलते वक्त भी एक आह तक नहीं लेती। और खुद भी माशूक की इस हालत का ख़याल करके कोई शिकवा नहीं करते। दोनों तरफ ये आलम है कि- इधर से भी है सिवा, कुछ उधर की मजबूरी। कि हमने तो की, उनसे आह भी ना हुई।। इस तरह का इश्क-ए-मज़ाजी धीरे-धीरे इश्क-ए-हक़ीक़ी में बदल जाता है और आशिक हर तरफ अपने माशूक (खुदा) का ही जलवा देखने लगता है। जिस रंग में देखा उसे वह परदानशीं है। और उस पै ये परदा है कि परदा ही नहीं है।। हर एक मकाँ में कोई इस तरह मकीं5 है। पूछो तो कहीं भी नहीं, देखो तो यहीं है।। फिर तो बहुत दूर हो कर भी वह पास नज़र आता है, माशूक आशिक की रग-रग में रम जाता है। मुझी में रहे मुझ से मस्तूर6 होकर। बहुत पास निकले बहुत दूर होकर।। आँखों में नूर, जिस्म में बनकर वो जाँ रहे। यानी हमीं में रह के, वो हमसे निहाँ7 रहे।। 1. महरूमियाँ - कमियाँ, वंचनाएं; 2. दराज़- लम्बी, जारी; 3. अताकरदा-दी हुई; 4. लतीफ- अनोखी, आनंददायक; 5. मकीं-रहने वाला; 6. मस्तूर- छिपा हुआ; 7. निहाँ- छुपे हुये रहे। न फिर वह काबे में रहता है ओर न बुतखाने में वह तो बस आशिक के दिल में ही रहने लगता है। जो न काबे में है महदूद1 न बुतखाने में। हाय वोह और एक उजड़े हुए काशाने2 में।। ऐसे पाकीज़ा इश्क़ में रोने-बिसूरने का कहाँ सवाल उठता है। इश्क़ की अज़मत3 न हरगिज़ जीते-जी कम कीजिए। जान दे दीजे मगर, आँखें न पुरनम कीजिए।। तौहीने-इश्क़ न हो देख ए जिगर ! न हो। हो जाये दिल का खून मगर आँख तर न हो।। यार के ग़म से ग़म और यार की खुशी से खुशी। यही तो मुहब्बत की जिन्दगी है। तेरी खुशी से अगर ग़म में भी खुशी न हुई। वोह जिन्दगी तो मुहब्बत की जिन्दगी न हुई।। ज़िगर के इश्क़, आशिक़ और माशूक़ की ख़बर लेकर अब हम गज़ल गोई के एक और विषय सागरो-मीना का जिक्र करेंगे। ज़िगर एक समय बहुत गहरे रिन्द रहे ऐसा हमने देखा। वे मुशायरों में भी पी कर ही शरीक होते थे और कभी-कभी तो वहाँ पर भी पीने से बाज नहीं आते थे। देखते हैं वोह खुद क्या फ़रमाते हैं इस बाबत- रिन्द जो मुझको समझते हैं उन्हें होश नहीं। मैकदा-साज4 हूँ मैं मैकदा-बरदोश5 नहीं।। पाँव रुकते नहीं मंजिले-जानाँ के खिलाफ़। और अगर होश की पूछो तो मुझे होश नहीं।। इश्क़ की शराब जब तक मुकम्मिल हो आशिक़ के लिये पानी भी शराब और हवा भी शराब- जब तक शबाबे-इश्क़6, मुकम्मल-शबाब7 है। पानी भी है शराब, हवा भी शराब है।। आशिक़ तो यदि अश्क़ पर भी नज़र डाल दे तो जोश खा कर वह भी शराब बन जाता है। तूने जिस अश्क़ पर नज़र डाली। जोश खा कर वही शराब हुआ।। 1. महदूद - सीमित; 2. काशाने - घर, जगह; 3. अजमत- गौरव, आनबान; 4. मैकदा साज- मैकदे के अनुकूल; 5. मैकदा बरदोश- मैकदे को कंधों पर लादे हुए; 6. शबाबे इश्क़- इश्क का यौवन, तेजा; 7. मुकम्मिल शबाब- संपूर्ण यौवन। उन्होंने ‘साकी की हर निगाह पे’ नामक एक गज़ल मैनोशी पर लिखी है जो बहुत ही दिल कश बन पड़ी है। आपकी सेवा में पेश है- साकी की हर निगाह पे बल खा के पी गया। लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया।। बेकैफ़ियत1 के कैफ़2 से घबरा के पी गया। तौबा को तोड़-ताड़ के थर्रा के पी गया।। जाहिद ! ये मेरी शोखी-ए-रिंदाना3 देखना। रहमत4 को बातों-बातों में बहला के पी गया।। सरमस्ती-ए-अज़ल5 मुझे जब याद आ गई। दुनिया-ए-एतबार को ठुकरा के पी गया।। आजुर्दगी-ए-खातिरे-साकी6 को देखकर। मुझको वो शर्म आई कि शरमा के पी गया।। ऐ रहमते-तमाम7 ! मेरी हर ख़ता मुआफ़। मैं इन्तिहा-ए-शोैक़ में घबरा के पी गया।। पीता बगैर इज़्न8 ये कब थी मेरी मज़ाल। दर पर्दा चश्मे-यार की शह पा के पी गया।। उस जाने-मेैकदा9 की कसम बारहा ‘जिगर’। कुल आलमे-बिसात10 पे मैं छा के पी गया।। तो आप देखें कि मयखोर ज़िगर की मैनोशी क्या है? अज़ीम से अज़ीम शायर भी अपने होशो-हवास में रहकर जो लिख न पाये वोह ज़िगर शराब के नशे में कह दिया करते थे। क्या मज़ाल कि पी कर वो बहक जायें? और नशे में होकर भी जुबाँ फ़िसल जाये? यह मैकशी है तो फिर शाने-मैकशी क्या है ? बहक न जाये जो पीकर, वो रिन्द ही क्या है ?? (शायरी में रिन्द उसी को बताया जो पीकर बहक जाये पर खुद कभी पीकर न बहके! वाह!) अब कोई मिर्ज़ा दाग़ से इस्लाह ले तो फिर उसकी शायरी में सोज़ो-गुदाज़ तो आना ही है। ज़िगर मुरादा बादी साहब की एक और गज़ल पेशे-खिदमत है जिसमें भाषा का सोजो-गुदाज़ देखा जा सकता हैै और गज़ल का तरन्नुम और विकास भी- 1. बेकैफ़ियत-बेहोशी की हालत; 2. कैफ-नशा, सुरूर; 3. शोखिये रिंदाना-पीने वाले की शोखी; 4. रहमत-कृपा, मेहरबानी; 5. सरमस्तीये अज़ल-संसार की शुरुआत के समय की मस्ती; 6. आजुर्दगी ए खातिरे साकी-साकी की खातिरदारी की अधिकता; 7. रहमते तमाम-सारी मेहरबानियाँ; 8. इज्न-इजाज़त, सहमति; 9. जाने मैकदा- शराब खाने की रौनक; 10. आलमे बिसात- संसार के विस्तार। दिल में किसी की राह किये जा रहा हूँ मैं। कितना हँसी गुनाह किये जा रहा हूँ मैं।। फर्दे-अमल-सी1 वा किये जा रहा हूँ मैं। रहमत को बेपनाह किये जा रहा हूँ मैं।। मुझ से लगे हैं इश्क़ की अज़मत2 को चार चाँद। खुद हुस्न को गवाह किये जा रहा हूँ मैं।। आगे कदम बढ़ायें जिन्हें सूझता नहीं। रोशन चिराग़े-राह किये जा रहा हूँ मैं।। उठती नहीं है आँख मगर उसके रूबरू3। नादीदा4 इक निगाह किये जा रहा हूँ मैं।। गुलशन परस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़। काँटों से भी निबाह किये जा रहा हूँ मैं।। यूं जिन्दगी गुजार रहा हूँ तेरे बगैर। जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं।। मुझसे अदा हुआ है ज़िगर जुस्तज़ू5 का हक़। हर जर्रे को गवाह किये जा रहा हूँ मैं।। यह गज़ल इतनी खूबसूरत है कि जिगर साहब को अकेले अपने दम पर कायम मकाम दे दे। परन्तु ऐसी तो कितनी ही गज़लें उन्होंने लिख दीं जो आस्माने-शायरी में तारों की तरह चमकती हैं। आपका फ़लसफ़ा और तसव्वुफ भी देखते ही बनता था। आपने मौत के लिए लिखा कि- दिल को सुकून रूह को आराम आ गया। मौत आ गई कि दोस्त का पैगाम आ गया।। इस भरी दुनिया में कौन अपना है और कौन पराया? इस प्रश्न का उत्तर दिया कि- दीवानगी हो, अक़्ल हो, उम्मीद हो कि यास6। अपना वही है वक्त पे जो काम आ गया।। खुदा से जिन्हें हो निस्बते-खास7 उनके लिये जन्नत क्या और जहन्नुम क्या? वहाँ भी आहें भरा करेंगे, वहाँ भी नाले किया करेंगे। जिन्हें है सिर्फ तुझसे निस्बत, वो तेरी जन्नतका क्या करेंगे।। 1. फर्दे अमल सी- उम्मीद की चादर; 2. अज़मत- शानो शौकत; 3. रूबरू- आमने सामने; 4. नादीदा- न देखने वाली; 5. जुस्तजू- खोज; 6. यास- नाउम्मीदी, निराशा; 7. निस्बते खास- विशेष प्रेम। इंसान पर जब बुरा समय आता है तो मित्र क्या, शत्रु क्या वह खुद अपना दुश्मन बन जाता है। जफ़ा करने वालों को क्या हो गया है। वफ़ा करके भी हम तो शरमा रहे हैं।। वो आलम है अब यारो-अगियार1 कैसे। हमीं अपने दुश्मन हुए जा रहें हैं।। सिर्फ़ शिकायत करने और पशेमाँ होने से काम नहीं चलता। जब तूफ़ान के बादल चारों तरफ घिरते हैं तो उनसे हिम्मत के साथ आगे बढ़ कर मुकाबला करना पड़ता है। मंडलाये हुए जब हर जानिब2 तूफां ही तूफां होते हैं। दीवाने आगे बढ़ते हैं और दस्तो-गिरेबाँ3 होते हैं।। इस जहदो-तलब4 की दुनिया में क्या कारे-नुमाया5 होते हैं। हम सिर्फ़ शिकायत करते हैं वो सिर्फ़ पशेमाँ6 होते हैं।। इंसान अपने गुरूर के चलते हकीकत को सामने होते हुए भी नहीं देख पाता। इस झूँठे अहंकार की बाबत उनका फरमाना था कि- आँखों का था कुसूर न दिल का कुसूर था। आया जो मेरे सामने मेरा गुरूर था।। वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था। आता न था नज़र तो ये किसका कुसूर था।। ज़िगर के समय हिन्दू और मुसलमाँ दोनों कौमें पतन की तरफ बढ़ रहीं थी। उनकी लायकियत जो किसी समय अपने अर्श7 पर रही होगी अब अन्देशे8 से गुजर रही थी। वे अपने गौरवशाली अतीत को भूल गये थे, अपनी ताकत को भूल गये थे। तो ज़िगर उनको अपनी ग़ैरत कुछ इस तरह से याद दिलाते हैं। जो साज़ कि खुद नग्मये-हिरमां9 था उसी को। अन्देशये-मिज़राब10 है मालूम नहीं क्यों ?? उसी कश्ती को नहीं ताबे-तलातुम11 सद-हैफ़12। जिसने मुँह फेर दिये थे कभी तूफ़ानों के।। * 1. यारो अगियार-दोस्त और दुश्मन; 2. जानिब- तरफ; 3. दस्तो गिरेबाँ-झगड़ा करना, गरेबान तक पहुँचने वाले हाथ; 4. जहदोतलब- इच्छा पूर्ति हेतु कार्य; 5. कारे नुमाया- बड़े कारनामें; 6. पशेमाँ- शर्मिन्दा; 7. अर्श- आकाश; 8. अन्देशा- शंका; 9. नग्मये हिरमा- मायूसी का गीत; 10. अन्देशये मिजराब- बजने की शंका; 11. ताबे तलातुम- तूफान से लड़ने की ताकत; 12. सद हैफ- सख़्त अफसोस।