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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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9:48 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
नवाब मिर्ज़ा खां ‘दाग’ देहलवी नवाब मिर्ज़ा खां ‘दाग’ का जन्म दिल्ली में हुआ और इसी वास्ते उन्होंने अपना तख़ल्लुस ‘देहलवी’ रखा। दाग के पिता शमशुद्दीन खां साहब जो लुहारू रियासत के नवाब के बड़े भाई थे की मौत तब हो गई जब दाग छः वर्ष के थे। इनकी माता ने फिर बहादुरशाह ‘ज़फर’ बादशाह के बेटे मिर्ज़ा मुहम्मद सफलतान उर्फ फख़रू से निकाह कर लिया और बेगम शौकत महल के नाम से जाने जानी लगी। मां के साथ मिर्ज़ा दाग ने भी लालकिले में रहना आंरभ कर दिया और अच्छी से अच्छी तालीम प्राप्त की। 10 वर्ष के होते ही वह शेरो शायरी करने लगे लेकिन 1857 की गदर ने इनके दिन फेर दिये और देहली छोड़ कर इन्हें रामपुर जाना पड़ा। ये पहले रामपुर के नवाब के बेटे कल्ब अली खां के मुसाहिब रखे गये और बाद में उनके नवाब बनने पर अस्तबल और फराश खाने के दरोगा मुकर्रर हुए। दाग रामपुर को आरामपुर कहा करते थे और नवाब की मेहरबानियों के बारे में उन्होंने कहा कि- रईसे-मुस्तफा-आबाद1 के नौकर हुए जब से। बताएं दाग क्या, आराम किस कदर पाया।। 1886 में एक बार फिर उनकी किस्मत ने पलटा खाया और दो वर्ष के समय में दसियों जगह की ठोकरें खाईं। 1888 में वे निज़ाम हैदराबाद के उस्ताद बने और 450 रुपये मासिक तनख़्वाह मिली जिसमें पिछला 2 वर्ष का समय भी शामिल था। फिर 550 रुपये का इज़ाफ़ा मिला और वोह भी हैदराबाद पहुंचने की तारीख से। कुल 80-81 हजार रुपये मिले और तनखा हो गई 1000 रुपये मासिक। इस पर खुश होकर दाग ने फरमाया कि‒ हो गया मेरा इज़ाफ़ा2 आज दूने से सिवा। यह करम अल्लाह का है, यह इनायत शाह की।। इस इज़ाफ़े की कहो ऐ दाग ! यह तारीख तुम। इब्तदा से अपनी साढ़े पान सौ नकदी बढ़ी।। 1. रइसे मुस्तफा आबाद- पाक जगहँ पर रहने वाले रईस; 2. इज़ाफ़ा- बढ़ोतरी। लेकिन दाग देहलवी बड़े खुशकिस्मत शायर थे। ज़ौक़ शहंशाहे-हिन्दोस्तां के उस्ताद थे, पाते थे सिर्फ 30 रु. माहवार। गालिब को तो यह भी नसीब नहीं हुआ। मिर्ज़ा दाग खुश मिज़ाज और नफ़ीस इंसान थे, हर किसी से मज़ाक कर लेते थे। वे आशिक मिज़ाज और एय्याश तो थे लेकिन बादाख़्वार नहीं थे। वे अपने साथ वाले शायरों से कभी नहीं उलझे बल्कि उन्होंने हमेशा उनकी कद्र की। उन्होंने इस्लाह के लिये बाकायदा एक दफ़्तर खोला जिसमें उनके शार्गिद और मुंशी काम करते थे। इससे रोजाना तकरीबन 15-20 गजलें इस्लाह की जाती थीं। निज़ाम हैदराबाद की गजलें मिर्ज़ा साहब खुद देखते थे और जल्द इस्लाह कर वापस भेजे देते थे। ‘अमीर’ मीनाई साहब कीे बहुत कद्र करते थे, जबकि वे इनके मुकाबले-बाज समझे जाते हैं। इनके शर्गिदों में खास नामचीन है अल्लामा इकबाल, ‘बेखुद’ देहलवी, ‘अहसन’ माहरवी, ‘नूह’ नारवी, ‘सीमाब’ अकबराबादी और ‘जिगर’ मुरादाबादी। अपने लिये दाग का कहना था कि‒ ‘‘जिसे दाग कहते हैं दोस्तों! इसी रूसियाह1 का नाम है।’’ रामपुर में दाग की हैसियत उनके दुश्मनों के मुताबिक वह नहीं थी जो उनके शार्गिद बयान करते थे। शुरू में वे वहां महज 50 रुपये माहवार पर अस्तबल के दरोगा बनाए गये थे। और उनके एक रकीब ने उनकी इस समय की हैसियत पर यह शेर भी कहा कि- आया दिल्ली से एक नया मुश्क़ी2। आते ही अस्तबल में दाग हुआ।। दाग ने चार दीवान लिखे ‘गुलजारे दाग’, ‘आफताबे दाग’, ‘महताबे दाग’ और ‘यादगारे-दाग’। उनके ये चारों दीवान बाज़ारी इश्क़ के कलाम से भरे पड़े हैं। दाग का माशूक बाज़ारी माशूक है और उनका इश्क़ हविस से अटा होता है। इस बात के हक में उनके चंद शेर पेश हैं - इलाही क्यूं नहीं उठती कयामत माज़रा3 क्या है। हमारे सामने पहलू में वो दुश्मन के बैठे हैं।। खुमार-आलूदा4 आंखें बल जबीं5 पर दर्द है सर में। रहे तुम रात भर बेचैन किस कम्बख्त के घर में।। आपकी ही बज़्म6 मुहब्बत की अदालत ठहरी। रोज दो चार के इज़हार हुआ करते हैं।। घर से निकले न कभी पूछ न ले वोह जब तक। जमा दस बीस खरीददार हुए हैं कि नहीं।। 1. रूसियाह-कलमुंहा, कमबख़्त, गुनहगार; 2. मुश्क़ी- घोड़ा; 3. माज़रा- मामला, हाल; 4. खुमार आलूदा- नशीली; 5. जबीं- ललाट; 6. बज़्म- महफिल। न केवल उनका माशूक बाज़ारी था बल्कि आशिक भी हरज़ाई होता था। इलाही अशिकी में हम बड़ी तकदीर वाले हैं। सुने हैं खुशगुलू क्या क्या चुने हैं खूबरू क्या क्या।। हाय वह दिन कि मय्यसर1 थी हमें रात नई। रोज़ माशूक़ नया रोज़ मुलाकात नई।। दाग़ ने देखे हजारों हैं हसीं। आपने किस शख़्स से दावा किया।। दाग़ की शायरी इस तरह के शेरों से भरी पड़ी है इसलिए शायद उन्हें लोग एय्याशाना शायर कहते हैं। जब कभी तसव्वुफ इसमें शामिल हुआ उनका अन्दाज़े-बयाँ ऐसा रहा कि वो बात आ ही नहीं पाई जो गालिब में थी, आतिश में थी। बानगी देखिए‒ पिन्दे-वाइज2 सुनते सुनते कान अपने भर गये। क्या इबादत को हमीं है सब फरिश्ते मर गये। यह तसव्वुफ नहीं बग़ावते तसव्वुफ है परन्तु दाग़ का कलाम पूरा का पूरा उनकी तबीयत के कुदरती रंग में डूबा हुआ था। दाग़ एक खास अंदाज के मालिक थे जैसे ग़ालिब का एक खास अंदाज था। उनकी शायरी मौज़-शौक़ की शायरी है। फिर भी कभी कभी कहीं न कहीं तसव्वुफ और पाक़ीज़गी आ ही जाती है। चन्द नमूने पेशे खिदमत हैं- अशिकी से मिलेगा ऐ ज़ाहिद। बंदगी से नहीं खुदा मिलता।। तकलीद3 से जाहिद की हासिल हमें क्या होता। इंसाँ न मालिक बनता, बन्दा न खुदा होता।। न बदले आदमी जन्नत से भी बेतुल-हज़न4 अपना। कि अपना घर है अपना, और है अपना वतन अपना।। यह काम नहीं आसाँ इन्सान को, मुश्किल है। दुनिया में भला होना, दुनिया का भला करना।। फ़लक5 देता है जिनको ऐश उनको ग़म भी होते हैं। जहां बजते हैं नक्कारे वहां मातम भी होते हैं।। 1. मय्यसर- हासिल, उपलब्ध; 2. पिन्दे वाइज- वाइज की सीख; 3. तकलीद- नकल, अनुसरण; 4. बेतुल हजन- ग़म कदा, परेशानी वाला घर; 5. फ़लक- आसमान, किस्मत। दिल दे तो इस मिज़ाज़ का परवर-दिगार1 दे। जो रंज की घड़ी भी खुशी से गुज़ार दे।। न इतराइये, देर लगती है क्या ? ज़माने को करवट बदलते हुए।। क्या गज़ब है कि नहीं इंसान को इंसान की कद्र। हर फ़रिश्ते को यह हसरत है कि वो इंसाँ होता।। गुज़र गये हैं जो दिन फिर न आयेंगे हरगिज़। कि एक चाल फ़लक हर बरस नहीं चलता।। कहा गुंचे से मुरझाकर यह गुल ने। हमेशा कब रहा जोबन, किसी का।। वे उर्दू में फ़ारसी के कठिन शब्दों को मिलाने के सख़्त खिलाफ थे। इसलिए फर्माते थे- कहते हैं उसे ज़बाने-उर्दू, जिसमें न रंग हो फारसी का। और अपनी इस जुबाँ पर उनको निहायत ही नाज़ भी था। उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं दाग़। सारे जहां में धूम हमारी जबाँ की है।। मिर्ज़ा दाग़ के कुछ यादगार अशआर पेशे-खिदमत हैं- दुश्मन के आगे सर न झुकेगा किसी तरह। ये आस्मां जमीं से मिलाया न जाएगा।। ऐ दाग़ ! तुमको रिज़्क3 की ख़्वाहिश है चखऱ्4 से। इतना ये ग़म खिलायेगा, खाया न जाएगा।। न रोना है तरीके का न हंसना है सलीक़े का। परेशानी में कोई काम जी से हो नहीं सकता।। तेरी उल्फ़त की चिंगारी ने ज़ालिम इक जहाँ फूँका। इधार चमकी उधर सुलगी यहाँ फूँका वहाँ फूँका।। क्या कहूँ तेरे तगाफुल ने, हया ने, क्या किया। इस अदा ने क्या किया, उस अदा ने क्या किया।। दुनिया में मज़ा इश्क़ से बेहतर नहीं होता। यह ज़ायका4 वो है कि मयस्सर नहीं होता।। 1. परवर दिगार- खुदा, पालनहार; 2. रिज्क- भोजन, जीविका; 3. चर्ख- आसमान; 4. ज़ायका- स्वाद। बेदाद1 तेरी देख के ये हाल हुआ है। आशिक़ कोई दुनिया में किसी पर नहीं होता।। गज़ब किया तेरे वादे का एतबार2 किया। तमाम रात कयामत का इंतज़ार किया।। ज़िबह3 करते ही मुझे कातिल ने धाोये अपने हाथ। और खूं-आलूदा4 खंजर गैर के घर रख दिया।। शाम से ही लौटना है, मुझको अंगारों पै आज। इसलिए मैंने अलग तह करके बिस्तर रख दिया।। ले लिया हाथों में मुझको देखकर बे-अख़्तियार5। आज इनका पासबां6 मेरा निगहबां7 हो गया।। ईमान कुछ वजू तो नहीं है जो टूट जाए। ऐ शेख ! क्या हुआ जो मैं तौबा शिकन हुआ।। मेरे ही दम से जिन्दा है आज़ार8 इश्क़ का। मैं मर गया अगर तो यह आज़ार मर गया।। शौक़ है ऐसा कि तेरी राह में मरकर भी चलूं। ज़ौफ़ है ऐसा कि नहीं जान से जाया जाता।। तौबा के बाद भी खाली-खाली कोई सागर नहीं देखा जाता। मुख़्तसर9 ये है कि अब दाग का हाल बन्दापरवर नहीं देखा जाता।। तुम्हारे खत में एक नया सलाम किस का था । न था रक़ीब तो आखिर वो नाम किसका था ।। वोह कत्ल करके मुझे हर किसी से पूछते हैं। ये काम किसने किया, ये काम किस का था ।। ‘‘वफ़ा करेंगे, निबाहेगें बात मानेगें’’। तुम्हें भी याद है कुछ, यह कलाम किसका था ।। इधर देख लेना उधर देख लेना। कनखियों से उसको मगर देख लेना।। कहीं ऐसे बिगड़े संवरते भी देखे हैं। न आएंगे वो राह पर देख लेना।। 1. बेदाद- जुल्मो सितम; 2. एतबार- यकीन; 3. जिबह- कत्ल; 4. खूं आलूदा- खून से भरा; 5. बेअख़्तियार- बेसाख़्ता, खुद ब खुद; 6. पासबाँ- रक्षा करने वाला; 7. निगहबाँ- चौकीदार; 8. आज़ार- रोग; 9. मुख़्तसर- संक्षेप में। अपनी तस्वीर वोह खिंचवायें यह मुमकिन ही नहीं। जिसने आईने में भी अक़्स न ड़ाला अपना।। ख़ाक किस किस की खुदा जाने हुई दामनगीर1। तुमने चलते हुए दामन न संभाला अपना।। हंसी आती है अपने रोने पर। और रोना है जग हंसाई का।। खुशबू वही, वही है नज़ाकत, वही है रंग। माशूक क्या है फूल है तू भी गुलाब का।। रोज़ा रखें, नमाज़ पढ़ें हज़ अदा करें। अल्लाह ये सवाब2 भी है किस अज़ाब3 का।। मैं जब सवाल करूं तो कहते हैं चुप रहो। क्या बात है ! जवाब नहीं, इस जवाब का।। तुम्हारा दिल मेरे दिल के बराबर हो नहीं सकता। वो शीशा हो नहीं सकता, ये पत्थर हो नहीं सकता।। जफाएँ4 दाग़ पर करते हैं वोह यह भी समझते हैं। कि ऐसा आदमी मुझको मयस्सर5 हो नहीं सकता।। आंसू गिरा जो आंख से तकदीर ने कहा। मिलते हैं देख ख़ाक में यूं आबरू पसंद।। मेरे दिल को देखकर मेरी वफ़ा को देखकर। बन्दापरवर मुंसिफी6 करना, खुदा को देखकर।। दिलरूबा है शर्म भी, शोखी भी दिल किस किसको को दूं।। इस अदा को देखकर या, उस अदा को देखकर।। भवें तनती है खंजर हाथ में है तनके बैठे हैं। किसी से आज बिगड़ी है जो वह यूं बन के बैठे हैं।। ये उठना बैठना महफ़िल में उनका रंग लाएगा। कयामत बन के उठ्ठेंगे भभूका7 बन के बैठे हैं।। 1. दामनगीर- दामन से चिपकना; 2. सवाब-पुण्य; 3. अज़ाब- पाप की सज़ा, कष्ट, कठिनाई; 4. जफाएँ- सितम, जुल्म; 5. मयस्सर- हासिल, उपलब्ध; 6. मुंसिफी- न्याय; 7. भभूका- क्रोध से आग बबूला होकर। मैंने मरकर हिज्र में पाई शफ़ा1। ऐसे अच्छे का वो मातम क्या करे।। एक सागर पर है अपनी जिंदगी। रफ़्ता-रफ़्ता2 इससे भी कम क्या करे।। साफ़ कब इम्तिहान लेते हैं। वोह तो दम देके जान लेते हैं।। अपने बिस्मिल3 का सर है जानू4 पर। किस मोहब्बत से जान लेते हैं।। इन सब अशआरों में दाग़ की तबीयत साफ़ झलकती है और कोई भी सुखन फहम इनको पढ़कर यह कहेगा कि यह वही दाग है जिसने अपने लिये कहा था कि‒ यह क्या कहा कि दाग़ को पहचानते नहीं। वोह एक ही तो शख़्स है तुम जानते नहीं।। और अपने दिल के बारे में कहा था कि- कब किसी दर की जिबीं-साईं5 की। शेख़ साहब नमाज़ क्या जाने।। जिनको अपनी ख़बर नहीं अब तक। वोह मेरे दिल का राज़ क्या जाने।। जो गुज़रते हैं दाग पर सदमे। आप बंदा-नवाज़6 क्या जाने।। क्या लिखूँ, कितना लिखूँ, जितना लिखूँ उतना ही कम। हज़रते दाग़ के कलाम में, मैं क्या कहूं कितना है दम।। यह मेरी तरफ से सलाम है मिर्ज़ा दाग़ और उनकी शायरी को। फिर भी रूख़सत लेने से पहले चंद बूंदे इस आबे-हयात की और भी पी लूं तो सही‒ पड़ा फ़लक को अभी दिलजलों से काम नहीं। अगर न आग लगा दूँ तो दाग़ नाम नहीं।। उड़ गई यूँ वफ़ा जमाने से। कभी गोया किसी में थी ही नहीं।। 1. शफा- आरोग्य; 2. रफ़्ता-रफ़्ता- धीरे-धीरे; 3. बिस्मिल- घायल, आशिक; 4. जानू- रान्, जाँघ; 5. जिबी साईं- सिर को नवाना; 6. बंदा नवाज- परवाह करने वाले। दिल लगी दिल्लगी नहीं नासेह1। तेरे दिल को अभी लगी ही नहीं।। नहीं जानते इश्क़ का अंजाम क्या है। वो मरना मेरा दिल्लगी2 जानते हैं।। समझता है तो दाग़ को रिंद ज़ाहिद। मगर रिंद उसको वली जानते हैं।। मेरे मरने की ख़बर सुनकर कहा। ‘‘वाकई कुछ भी नहीं इंसान में’’।। जिसने दिल खोया उसी को कुछ मिला। फ़ायदा देखा इसी नुकसान में।। कुछ न पूछो जो मयख़ाने से सदा आती है। कभी मस्ज़िद से जो हम पढ़कर नमाज़ आते हैं।। सब लोग जिधर हैं उधर देख रहे हैं। हम तो बस देखने वालों की नज़र देख रहे हैं।। खत ग़ैर का पढ़ते थे जो टोका तो वह बोले। अख़बार का पर्चा है ख़बर देख रहे हैं।। बात करते हैं खुशी की भी तो एक रंज के साथ। वो हंसाते भी हैं ऐसा कि रूला देते हैं।। मैने जो मांगा कभी दूर से दिल डर-डर कर। उसने धमका के कहा ‘‘पास तो आ देते हैं’’।। * 1. नासेह- नसीहत देने वाला; 2. दिल्लगी- हँसी उड़ना।
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