गुलाम हमदानी ‘मुसहफ़ी’ गुलाम हमदानी ‘मुसहफ़ी’, पहले शाह आलम के समय दिल्ली गये। धीरे-धीरे उन्होंने वहाँ अपनी शायरी की पहचान बना ली। इनकी शायरी में मीर, दर्द, सौदा तथा सोज की छाप थी। परन्तु मुगलिया सल्तनत के पतन की ओर जाने से यह टाण्डा के नवाब मुहम्मद यार खाँ के दरबार में मुलाजिम1 बने। बाद में टाण्डा से ये लखनऊ आये ओर मिर्जा सुलेमान शिकोह के दरबार में जगह बना ली। मुसहफ़ी ख़ारजी शायर नहीं थे। लेकिन इंशा तथा जुरअत के लखनऊ आने पर मजबूरी में इनको अपना रंग बदलना पड़ा। मुसहफ़ी दिल्ली में दर्द से भरी शायरी किया करते थे। नमूने के लिए चंद शेर पेश हैं‒ तेरे कूचे इस बहाने मुझे दिन से रात करना। कभी इससे बात करना, कभी उससे बात करना।। कभी तक के दर को खड़े रहे, कभी आह भर के चले गये। तेरे कूचे में अगर आए भी तो (ठहरे) ठहर कर चले गये।। वही मुसहफ़ी अब ख़ारजी रंग से खेलने लगे। चन्द ख़ारजी शेर पेश हैं - आया लिये हुए जो वह कल हाथ में छड़ी। आते ही जड़ दी पहली मुलाकात में छड़ी।। पानी भरे है याँ ! किरमिज़ी2 दुशाला। लुंगी की सज दिखा के सक़नी ने मार डाला।। काँधों पै मशक लेकर जब क़द को ख़म करे है। क़ाफिर का नशाये-हुस्न हो जाये है दुबाला।। दरियाये-कद3 में क्यों कर नीमक़द4 न डूबें। लुंगी के रंग में जब वाँ ता-कमर हो लाला।। 1. मुलाजिम- नौकर; 2. किरमिजी- लाल रंग का; 3. दरियाये कद- लंबे कद वाले; 4. नीमकद- छोटे कद वाले। उनके दाखिली शायरी को छोड़ कर खारिजी रंग में डूब जाने के कारण थे इंशा और जुरअत। वह ऐसा समय था जब लखनऊ के नवाब और रईस रंगरेलियों में मस्त थे। शायर भी अपना ज़मीर बेच कर नवाबों तथा रईसों की नज़र में चढ़ना चाहते थे और एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते थे। जुरअत और इंशा की भी मुसहफ़ी से नहीं बनती थी। एक रोज मुसहफ़ी ने सुलेमान शिकोह के एक जल्से में एक गज़ल पढ़ी जिसका मक़्ता था कि- था मुसहफ़ी यह माइलेगिरियाँ1 कि पसअज़मर्ग2। थी उसकी धारी चश्मपै ताबूत में उँगली।। इंशा और उनके साथियों ने इस गज़ल पर एक बहुत अश्लील पैरोडी कही जो पढ़ने सुनने लायक नहीं। इसका मक़्ता यह है कि - था मुसहफ़ी काना, जो छुपाने को पसअज़मर्ग। रक्खे हुए था आँख पै ताबूत में ऊंगली।। इसका जवाब मुसहफ़ी ने बहुत ही करारा दिया। इस जवाब के आख़िरी दो शेरों में इन्होंने इंशा को अजीब गधा बताते हुए कहा कि वह अपने को शायरी का मसीहा मानता है। अशआर पेशे-खिदमत हैं‒ फ़बता3 नहीं है बज़्मेअमीराने4 दहर में। शायर को मेरे सामने गोगा-ए-शायरी5।। इक तुरफ़ा-ख़र6 से काम पड़ा है मुझे कि हाय! समझे है आपको वोह मसीहा-ए-शायरी।। इंशा ने भी मुसहफ़ी के लिये एक ऐसी फ़हाश हिजो कही कि उसका एक-एक मिसरा हज़ार चाबुकों का तड़ाका था। एक बार मुसहफ़ी के शागिर्दों ने शोहदों का स्वांग बना कर इंशा की हिजो पर जुलुस बना कर इंशा के घर पर बवाल मचाया। तो इंशा ने जवाब में एक बारात निकाली जिसमें कुछ लोग डंडे बजाते हिजो कह रहे थे तो कुछ गुड्डे-गुड़ियों को लड़ाते हुए कह रहे थे कि‒ स्वाँग नया लाया है देखना चर्खे-कुहन7। लड़ते हुए आये हैं मुसहफ़ी और मुसहफ़न।। मुसहफ़ी के जवाबी स्वाँग को इंशा ने शहर कोतवाल से कहकर निकलने ही नहीं दिया। सुलेमान शिकोह और उनके ज्यादातर अमीरों ने इंशा का साथ दिया क्योंकि इंशा अपनी रंगीन मिज़ाजी से हर दिल अज़ीज़ बन गये थे। मुसहफ़ी को मजबूर होकर कहना पड़ा‒ 1. माइलेगिरियाँ- रोने को बेताब; 2. पसअज़मर्ग- मौत के बाद भी; 3. फबता- अच्छा लगता, जँचता; 4. बज्मेअमीराने- अमीरों की महफिल; 5. गोगा ए शायरी- हल्की शायरी; 6. तुरफा खर- अजीब गधा; 7. चर्खे कुहन- पुराना चर्खा। जाता हूँ तेरे दर से कि तौकीर1 नहीं याँ। कुछ इसके सिवा अब मेरी तदबीर नहीं याँ।। ए मुसहफ़ी ! बेलुत्फ है इस शहर में रहना। सच है कि कुछ इंसान की तौकीर नहीं याँ।। हक़ीक़त में मुसहफ़ी उर्दू के पहले शायर थे जिन्होंने गज़ल में रंगीन अहसास को ढाला। उनके नग्मों में एक दिल फरेब कैफ़ियत2 है। उनकी इंशा के साथ बराबरी नहीं की जा सकती। बकौल ‘अकबर’ बुलबुल के नग्मों से सारंगी की बराबरी करना बेमानी है। तुमसे उस्तादों में मेरी शायरी बेकार है। साथ सारंगी का बुलबुल के लिए दुश्वार है।। मुसहफ़ी की उम्दा शायरी के चन्द अशआर पेशे-खिदमत हैं - हम तो उस कूचे में घबरा के चले आते हैं। दो कदम जाते हैं, फिर जाके चले आते हैं।। वोह जो मिलता नहीं, हम उसकी गली में दिल को। दरो-दीवार से बहलाके चले आते हैं।। जब कोहो-बयाबाँ3 में जा हमने कदम मारा। फरहाद न कुछ बोला, मजनूँ ने न दम मारा।। हुस्न उसका अब समा कुछ और दिखलाने लगा। चाँदसा परदे से वोह मुखड़ा नज़र आने लगा।। जो हाथ दिलबरों के दामन को खींचते थे। वे खिंचके रह गये हैं, कैसे कफ़न के अन्दर।। अँगड़ाई लेकर अपना मुझ पर खुमार4 डाला। काफ़िर5 की इस अदाने बस मुझको मार डाला।। जमना में कल नहाकर जब उसने बाल बाँधे। हमने भी अपने दिल में क्या क्या ख़्याल बाँधे।। क्या करें जा के गुलिस्ताँ में हम। आग रख आये आशियाँ6 में हम।। छुपाया तुमने मुँह ऐसा कि बस जी ही जला डाला। तगाफ़ुल7 ने तुम्हारे ख़ाक में हमको मिला डाला।। मुहब्बत में सच्चे यह अगयार8 ठहरे। हम इक बात कहकर गुनहगार ठहरे।। 1. तौकीर- प्रतिष्ठा, सम्मान, इज़्ज़त; 2. कैफियत-सुरूर, मस्ती, नशा; 3.कोहो बयाबाँ-पहाड़ों और वीरानों; 4. खुमार-मदहोशी; 5. काफिर- बेईमान; 6. आशियाँ-घर; 7. तगाफुल - उपेक्षा, ध्यान न देना; 8. अगयार- रकीब, दुश्मन।