शौकत अली खाँ ‘फ़ानी’ बदायूनी जिन्दगी में निराशा के गर्त में डूबा इक इंसान तंग आकर यह फरमाता है कि- देख ‘फ़ानी’ वोह तेरी तद्बीर की मैयत न हो। इक ज़नाजा जा रहा है, दोश1 पर तकदीर के।। यह तद्बीर से हारा हुआ सख़्श था ‘फानी’ बदायूनी। उन्होंने हर संभव प्रयास किया पर कहीं भी सफलता न मिली। खुदा की रहमत ने भी जब ‘फ़ानी’ से किनारा कर लिया तो उन्होंने फर्माया कि - या रब ! तेरी रहमत से मायूस नहीं ‘फ़ानी’। लेकिन तेरी रहमत की ताख़ीर2 को क्या कहिये।। फानी को यासयात3 का इमाम कहा जाता है, जो हमेशा दुखी रहता है, दर्द की बातें करता है, और मौत का रहनुमा होता है। उनकी शायरी मे कफ़न, मैयत, जनाज़ा, मज़ार आदि शब्दों की भरमार है जो उनमें मौजूद गहन निराशा के द्योतक हैं। जिंदगी के लिये उनका रवैया था कि - एक मुअम्मा4 है, समझने का न समझाने का। जिन्दगी काहे को है ? एक ख़्बाब है दीवाने का।। वे अपने आप को मनहूस मानते थे और समझते थे कि उनके आने भर से वीराना आबाद हो जाता है। उन्होंने कहा कि - याँ मेरे कदम से है वीराने की आबादी। वाँ घर में खुदा रक़्खे आबाद है वीरानी।। और‒ तामीरे-आशियाँ5 की हविस का नाम है बर्क6। जब हमने कोई शाख चुनी शाख जल गई।। 1. दोश - कंधा; 2. ताख़ीर- देर विलंब; 3. यासयात- मायूसियाँ, निराशायें; 4. मुअम्मा- पहेली; 5. तामीरे आशियाँ- मकान बनाना; 6. बर्क- बिजली। ग़ालिब को भी ताजिन्दगी सफलता ना मिली पर वे उससे निराश नहीं हुये। उनके घर की दीवारों पर काई जम गई तो उन्होंने तंज करते हुये कहा कि मेरे घर में बहार आ गई है - उग रहा है दरो-दीवार से सब्जा1 ग़ालिब। हम बयाबाँ में है और घर में बहार आई है।। लेकिन ‘फ़ानी’ साहब ने अपनी सारी उम्र गमों की निराशा में ही गुज़ार दी। अपनी तो सारी उम्र ही ‘फ़ानी’ गुज़ार दी। इक मर्गे-नागहाँ2 के गमे-इन्तज़ार में।। रोते-बिसूरते जिन्दगी काटने वालों को खुदा खुशी देता भी नहीं। एक कहावत है कि जो ‘रोते हुए जाता है वो मरे की खबर लाता है’। फ़ानी ऐसे ही रोने-बिसूरने वाले शायर थे। उनके इस गमज़दा अन्दाज़ के चन्द शेर पेशे-ख़िदमत हैं- आया है बादे-मुद्दत बिछड़े हुए मिले हैं। दिल से लिपट लिपट कर ग़म बार-बार रोया।। नाज़ुक है आज शायद, हालत मरीजे ग़म की। क्या चारागर ने समझा क्यों बार-बार रोया।। दिल में जौक़े-वस्ल3 और यादे-यार तक बाकी नहीं। आग इस घर को ऐसी लगी कि जो था जल गया।। किससे महरूमिये-क़िस्मत4 की शिकायत कीजे। हमने चाहा था कि मरा जाये, सो वह भी न हुआ।। ‘फ़ानी’ का जन्म बदायूँ में 1776 में हुआ। उनके परदादा बदायूँ के गर्वनर थे और उनकी 200 गाँवों की जागीर थी। परन्तु जागीर जाती रही और उनके पिता को मुलाज़मत करनी पड़ी। ‘फ़ानी’ ने बी. ए., एल. एल. बी. पास किया लेकिन उनकी वकालत कहीं भी न चल पाई। हैदराबाद के प्रधान किशन प्रसाद ‘शाद’ ने हैदराबाद बुलाया तो वहाँ पर भी उन्हें हाई स्कूल की हेडमास्टरी से ज्यादा कुछ नसीब न हुआ। वहाँ उनकी पत्नी और पुत्री चल बसी और जीवन रो रो कर ही बीता। दो दीवान शायरी के लिखे तो दोनों गुम हो गये। काफ़ी दिनों तक शायरी से दूर रहने के बाद में जाकर उनके तीन दीवान छपे जिनमें दो के नाम थे ‘वाकियाते-फ़ानी’ और ‘वजदानियाते फ़ानी’। वे इतने निराश हो गये थे कि कश्मीर की रंगीं वादियाँ भी उनका जी नहीं बहला सकी और निशात बाग में भी उन्हें निराशा की तस्वीर ऩजर आई। 1. सब्जा - हरियाली; 2. मर्गे नागहां- बे वक्त मौत; 3. ज़ौक़े वस्ल- मिलन की चाहत; 4. महरूमिये किस्मत- किस्मत की कमी। इस बाग में जो कली नज़र आती है। तसवीरे-फसुर्दगी1 नज़र आती है।। कश्मीर में हर हसीन सूरत ‘फ़ानी’। मिट्टी में मिली हुई नज़र आती है।। फूलों की नज़र-नवाज़2 रंगत देखी। मख़लूक3 की दिल-गुदाज़ हालत देखी।। कुदरत का करिश्मा नज़र आया कश्मीर। दोज़ख में समोई4 हुई ज़न्नत देखी।। यानि कश्मीर में भी उनको दोज़ख ही नजर आई और वहाँ की हर हसीन सूरत भी मिट्टी में मिली ही दिखाई दी। इंसान अपने ही नजरिये से दुनिया को देखता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने दर्द के सिवा शायरी न की हो। इश्क़िया रंग में भी उनकी शायरी है और तसव्वुफ में भी। उनकी शायरी में कहीं मीर का सोजो-गुदाज है तो कहीं गालिब का फ़लसफ़ा। इश्क़ के बारे में उनका फर्माना था कि - इश्क़ है परतवे-हुस्ने-महबूब5। आप अपनी ही तमन्ना क्या खूब।। माशूक की याद के बारे में उन्होंने कहा कि - अब लब पै वोह हंगामये-फरियाद नहीं है। अल्लाह रे तेरी याद कि कुछ याद नहीं है।। उसको भूले हुए तो हो ‘फ़ानी’। क्या करोगे अगर वोह याद आया।। गिले और करम पर उन्होंने फर्माया कि - निगाहे-क़हर ख़ास है मुझ पर। यह तो अहसाँ हुआ सितम न हुआ।। अब करम है तो ये गिला है मुझे। कि मुझी पर तेरा करम न हुआ।। 1. तस्वीरे फसुर्दगी- उदासी की सूरत; 2. नज़र नवाज- नज़र को खुश करने वाली; 3. मख़लूक- दुनिया; 4. समोई- डूबी हुई; 5. परतवे हुस्ने महबूब- माशूक के हुस्न का अक्स (बिंब)। और दीदबाज़ी पर उनका कहना था कि - यूं मिली हर निगाह से वो निगाह। एक की एक को ख़बर न हुई।। आज तस्कीने-दर्दे-दिल1 ‘फ़ानी’। वह भी चाहा किये, मगर न हुई।। निगाहे-नाज़ और उसपे तबस्सुम, हुस्न का यह जलवा और फ़ानी का बयान- लो तबस्सुम2 भी शरीके-निगाहे-नाज़3 हुआ। आज कुछ और बढ़ा दी गई कीमत मेरी।। जफ़ा के शिकवे और आहोज़ारी पर उन्होंने कहा कि - हर राह से गुज़रकर दिल की तरफ़ चला हूँ। क्या हो जो उनके घर की यह राह भी न निकले।। शिकवा न कर फुगां का, वह दिन खुदा न लाये। तेरी जफ़ा4 पै दिल से जब आह भी न निकले।। और खुशी के बारे में उनका फर्माना था कि - गुल दिये थे तो काश फस्ले-बहार। तूने काँटे भी चुन लिये होते।। और अब चन्द शेर तसव्वुफ तथा फ़लसफ़े के - तू कहाँ है कि तेरी राह में यह काबा-ओ-दैर। नक़्श बन जाते हैं मंजिलें नहीं होने पाते।। जिंदगी की दूसरी करवट थी मौत। जिन्दगी करवट बदल कर रह गई।। मिज़ाजे-दहर5 में उनका इशारा पाये जा। जो होसके तो बहर-हाल6 मुस्कुराये जा।। बहार लाई है पैग़ामे-इन्कलाबे-बहार7। समझ रहा हूँ मैं कलियों के मुस्कुराने को।। निगाहें ढूँढ़ती हैं दोस्तों को और नहीं पाती। नज़र उठती है जब जिस दोस्त पर पड़ती है दुश्मन पर।। 1. तस्कीने दर्दे दिल - दिल के दर्द की तसल्ली; 2. तबस्सुम- हँसी, मुस्कान; 3. शरीके निगाहे नाज- नाज भरी निगाह में शामिल; 4. जफ़ा- बेवफाई; 5. मिज़ाजे दहर- ज़माने का स्वभाव; 6. बहर हाल- हर हाल में; 7. पैगामे इन्कलाबे बहार- बहार के आगमन की सूचना। यूं सब को भुला दे कि कोई तुझे न भूले। दुनियाँ में ही रहना है तो दुनिया से गुज़र जा।। चाहे फलसफा हो या तसव्वुफ फ़ानी के अन्दाज़ हमेशा निराशा के ही रहे। बानगी देखिये- न इब्तिदा की खबर है न इन्तहा मालूम। रहा यह वहम कि हम हैं, सो वह भी क्या मालूम ?? यह जिन्दगी की है रूदादे-मुख़्तसर1 ‘फ़ानी’। वजूदे-दर्दे-मुसल्लिम2, इलाज़ ना मालूम।। वे हमेशा ही गमों को अपनाने के हिमायती रहे क्योंकि- ग़म भी गुज़श्तनी3 है, खुशी भी गुज़श्तनी। कर ग़म को अख़्तियार कि गुज़रे तो गम न हो।। मौत के बाद भी उनको गम से निज़ात नज़र नहीं आती थी। मर के टूटा है कहीं सिलसिलाये-कैदे-हयात्4। फ़र्क इतना है कि जंजीर बदल जाती है।। अपनी जिन्दगी के बारे में वे खुद ही फर्मा गये हैं कि - किसी के गम की कहानी है ज़िन्दगी-ए-फ़ानी। जमाना इक फ़साना है मेरे नालों का।। फ़ानी की ज़िन्दगी भी क्या ज़िन्दगी थी या रब। मौत और ज़िन्दगी में कुछ फ़र्क चाहिए था।। * 1. रूदादे मुख़्तसर- संक्षेप में माजरा; 2. वजूदे दर्दे मुसल्लिम- कायम रहने वाला दर्द, दर्द का स्थायित्व; 3. गुजश्तनी- गुजर जाने वाली, नापायेदार; 4. सिलसिलाये कैदे हयात्- जीवन बंधन की निरंतरता।