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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:40 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
सैयद अकबर हुसैन ‘अकबर’ इलाहाबादी अब हम ‘अकबर’ इलाहाबादी साहब का जिक्र करेंगे। जब अकबर साहब ने शायरी शुरू की उस समय अँग्रेजी शासन और पाश्चात्य संस्कृति हमारी जमीन और समाज पर प्रभावी हो रहा था। अकबर इन दोनों ही के खिलाफ़ थे और इसी कश्मकश की गूँज उनकी शायरी में मिलती है। अकबर हिन्दोस्तान के नैतिक मूल्यों के हिमायती थे और जन-मानस की भावनाओं के साथ खिलवाड़ भी उन्हें ना पसन्द था। अपनी शायरी के जरिये उन्होंने यहाँ के नैतिक मूल्यों और भावनाओं की रक्षा करनी चाही। उन्होंने अँग्रेजों के द्वारा भारत की राजनैतिक और आर्थिक लूट खसोट के षड्यंत्र को भली प्रकार से समझ लिया था। अकबर की शायरी का अंदाज मजाकिया था परन्तु बात वे दर्द की करते थे। वे शायद अपने मन की पीड़ा को मुस्कान में छिपाना चाहते थे। उन्होंने उर्दू के साथ अँग्रेजी, फ़ारसी, अरबी और हिन्दी शब्दों का प्रयोग करके अपना एक नया भाषाई अंदाज बनाया। उन्होंने औरतों की बेपर्दगी, फैशन और नये वैज्ञानिक आविष्कारों पर तंज कसे। उस समय में विद्यमान परिस्थितियों को परिलक्षित करती उनकी एक रचना पेशे-खिदमत है। है क्षत्तिरी1 भी चुप कि न पट्टा, न बाँक2 है ! पूरी भी ख़ुश्क़ लब है कि घी छः छटाँक है।। गो हर तरफ़ हैं खेत फलों से भरे हुए ! थाली में ख़रबूज़े की फ़कत एक फाँक है !! कपड़ा-गराँ3 हैं, सत्र4 है औरत का आशकार5। कुछ बस नहीं जबाँ पे फ़कत ढाँक ढाँक है !! भगवान का करम हो स्वदेशी के बैल पर ! लीडर की खींच खाँच है, गाँधी की हाँक है! अकबर पे बार है यह तमाशाए-दिलशिकन6। उसकी तो आख़िरात7 की तरफ ताँक झाँक है।। 1. क्षत्तिरी- क्षत्रिय; 2. बाँक- सजधज; 3. कपड़ा गराँ- कपड़ा बोझ है; 4. सत्र- अंग; 5. आशकार- जाहिर; 6. तमाशाए दिलशिकन- दिल तोड़ने वाले नजारे; 7. आख़िरत- मृत्यु, अन्त की और। अकबर को अपने सोच अपने नज़रिये को जाहिर करने हेतु एक माध्यम की तलाश रहती थी। यह माध्यम शेरो-शायरी बनी। लेकिन देखिये उन्होंने खुद क्या कहा इस बाबत- हुक्काम से नियाज़1 न गाँधी से रब्त2 है। अकबर को सिर्फ़ नज़्मे-मजाज़ी3 का ख़ब्त है।। हँसता नहीं वह देख के इस कूद फाँद को। दिल में तो कहकहे हैं, मगर लब पे ज़ब्त है।। अकबर साहब के शेर ही नहीं गजलें भी फड़कती हुई होती थी, एक ऐसी ही गज़ल पेश है- हस्ती-के-शज़र4 में जो यह चाहो कि चमक जाओ। कच्चे न रहो बल्कि किसी रंग में पक जाओ।। मैंने कहा कायल मैं तसव्वुफ का नहीं हूँ। कहने लगे इस बज़्म में जाओ तो थिरक जाओ।। मैंने कहा कुछ ख़ौफ़ कलेक्टर का नहीं है। कहने लगे आ जाएँ अभी वह तो दुबक जाओ।। मैंने कहा वर्जिश की कोई हद भी है आख़िर। कहने लगे बस इसकी यही हद है कि थक जाओ।। मैंने कहा अफ़कार5 से पीछा नहीं छुटता। कहने लगे तुम जानिबे-मयख़ाना6 लपक जाओ।। मैंने कहा ‘अकबर’ में कोई रंग नहीं है। कहने लगे शेर उसके जो सुन लो तो फड़क जाओ।। हिंदू-मुस्लिम कौमों को आपस में लड़ाकर अंग्रेजों ने बाँटो और राज करो की नीति का प्रचलन किया। ‘अकबर’ ने इस रणनीति को समझ कर यह नसीहत दी कि- जिस बात को मुफ़ीद7 समझते हो ख़ुद करो। औरों पे उसका बार न इसरार8 से धारो।। हालात मुख़्तलिफ़9 हैं, जरा सोच लो ये बात। दुश्मन तो चाहते हैं कि आपस में लड़ मरो।। 1. नियाज- मुलाकात; 2. रब्त - लगाव; 3. नज़्मे मजाज़ी- वास्तविकता बयान करने वाली नज़्म; 4. हस्ती का शजर- अस्तित्व का पेड़; 5. अफ़कार- चिन्ताएं, फिकर; 6. ज़ानिबे मयखाना- मयखाने की तरफ; 7. मुफ़ीद- फायदे मंद; 8. इसरार- जबर दस्ती; 9. मुख़्तलिफ़- अलग। बिजली की रोशनी और उसके लैम्पों की चका-चौंध से आँखों को परेशानी न हो, इस बात के डर का खुलासा करता अकबर का शेर पेश है- बर्क1 के लैम्प से आँखों को बचाए अल्लाह। रोशनी आती है और नूर चला जाता है।। महात्मा गाँधी के आजादी और स्वराज आंदोलनों ने भी अकबर के जेहन को खूब झकझोरा। गाँधी के स्वदेशी आंदोलन पर अकबर का लिखा कतआ पेश है- किया तलब जो स्वराज भाई गाँधी ने। मची यह धूम कि ऐसे ख़याल की क्या बात।। कमाले-प्यार से अँग्रेज़ ने कहा उनसे। हमीं तुम्हारे हैं, फिर मुल्क-ओ-माल की क्या बात।। उस समय ‘गाँधी’ का नाम आजादी की लड़ाई में तेजी के साथ उभर रहा था और वे अंग्रेजों के लिये एक सर दर्द बन रहे थे। अँग्रेज उनको गिरफ़्तार करते थे और छोड़ देते थे। अस्ल में वो आजादी के आंदोलन में भी दो फाँक कर देना चाहते थे। अकबर ने इस मौजू पर कहा कि- पूछता हूँ ‘‘आप गाँधी को पकड़ते क्यूं नहीं’’? कहते हैं ‘‘आपस ही में तुम लोग लड़ते क्यूं नहीं’’?? पेच किस्मत के तुम्हारे जब दिखायेंगे कभी। ‘‘आदिलाना2 रंग में उठ कर करेंगे हम जजी’’ ।। उनकी शायरी का दौर सियासत में गाँधी और अँग्रेजों का दौर था और सब आँख बंदकर गाँधी की आँधी में बह रहे थे। इस बात का बयान देखिये- नहीं हरगिज़ मुनासिब पेश-बीनी3 दौरे-गाँधी में। जो चलता है वह आँखें बन्द कर लेता है आँधी में।। इस दौर में आम आदमी अँग्रेज सरकार में क्लर्की करने ही को सफलता मान लेता था। वह पढ़ लिखकर, अँग्रेजी तालीम हासिल करता, बी.ए. की डिग्री हासिल करता, फिर नौकरी पा लेता और पेन्शन याफ़्ता होकर मर जाता। इस बात को बयां करता शेर पेश है- हम क्या कहें अहबाब4 क्या कारे-नुमायाँ5 कर गए। बी.ए.किया, नौकर हुए, पेन्शन मिली, फिर मर गए।। 1. बर्क- बिजली; 2. आदिलाना- न्याय संगत; 3. पेशबीनी- आगे देखना; 4. अहबाब- रिश्तेदार; 5. कारे नुमायाँ- बड़ा काम कारनामा। अँग्रेजी सरकार में सेवारत ये बाबू लोग अंत पंत यही नतीजा निकालते कि अंग्रेजों ने उन्हें बेवकूफ बनाया है। अकबर ने उनकी भावनाओं को समझ कर फरमाया कि- हमें भगवान की कृपा ने तो बाबू बनाया है। मगर योरप के शाला लोग ने उल्लू बनाया है।। मगर उस समय का आम हिन्दोस्तानी इसी बाबूगिरी में अपनी किस्मत मानता था- चार दिन की जिन्दगी है कोफ़्त से क्या फायदा। खा डबल रोटी, क्लर्की कर, खुशी से फूल जा।। उर्दू शायरी में अंग्रेजी शब्दों का चलन सबसे पहले अकबर साहब ही ने आरंभ किया। यद्यपि अंग्रेजी में काफ़िये मिलाने का काम किन्हीं दूसरे शायर साहब ने किया। अँग्रेजी के शब्दों के काम में लेने के पीछे अकबर साहब का खास मतलब शेरों में तंज डालना होता था। चन्द अशआर पेशे-खिदमत हैं। ‘कान्फ्रेंस’ अहबाब से पुर है, जो सफ़ है वह सिल्के-दुर1 है। सब को याद उस्ताद का गुर है, दिलकश हर ‘इस्पीच’ का सफ़र है।। शेख को उल्फ़त हो गई ‘मिस’ की, खूब पिये अब शौक़ से ‘व्हिस्की’। अगली दुनिया दह्र से खिसकी, बैठा कौन है शर्म है किसकी।। छोड़ ‘लिट्रेचर’ को अपनी ‘हिस्ट्री’ को भूल जा। शेखो-मस्जिद से तअल्लुक़2 तर्क3 कर, ‘स्कूल’ जा।। ‘एग्ज़िबीशन’ की शान अनोखी, हर राय उम्दा हर शय चोखी। ‘ओक्लीदस’ की नापी-जोखी, मन भर सोने की लागत सोखी।। हर चन्द कि ‘कोट’ भी है ‘पतलून’ भी है। ‘बँगला’ भी है ‘पॉट’ भी है साबुन भी है।। लेकिन यह मैं तुझसे पूछता हूँ हिन्दी। ‘योरोप’ का तेरी रगों में कुछ खून भी है।। ‘नेटिव’ नहीं हो सकते जो गोरे हैं तो है क्या ग़म। गोरे भी तो बन्दे से खुदा हो नहीं सकते।। हम हों जो ‘कलेक्टर’ तो वह हो जाएं ‘कमिश्नर’। हम उनसे कभी ओहदाबरां4 हो नहीं सकते।। 1. सिल्के दुर- मोतियों की लड़ी; 2. तअल्लुक- सम्बन्ध; 3. तर्क- खत्म; 4. ओहदाबरां- ऊँचे ओहदे वाला। मयख़ानये ‘रिफ़ार्म’ की चिकनी जमीन पर। वायज़ का ख़ानदान भी आख़िर फिसल गया।। कैसी नमाज़ ‘बाल’ में नाचो जनाबे-शेख़। तुमको ख़बर नहीं कि ज़माना बदल गया।। न कुछ इन्तज़ारे-गज़ट कीजिए। जो ‘अफसर’ कहे बस वह झट कीजिए।। बहुत शौक है अँग्रेज़ बनने का। तो चेहर पे अपने गिलट कीजिए।। अजल1 आई ‘अकबर’ गया वक़्ते बहस। अब ‘इफ’ कीजिए और न ‘बट’ कीजिए।। समाज में अँग्रेज़ियत आने की मुख़ालफ़त2 भी अकबर साहब ने बहुत जोरों से की। खासकर मुस्लिम समाज में जो बे-पर्दगी का आलम आया वह उन्हें नागवार था। इस बेहयाई के लिए उनका लिखा कतआ पेशे-ख़िदमत है। बे-पर्दा कल जो आईं नज़र चन्द बीबियाँ। ‘अकबर’ ज़मीं में ग़ैरते-क़ौमी3 से गड़ गया।। पूछा जो उनसे आपका पर्दा वह क्या हुआ। कहने लगी कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया।। मगरिबी तालीम ने जो देश की हवा खराब की उस पर लिखा एक तंज पेशे ख़िदमत है। नज़्द4 में भी मग़रिबी तालीम जारी हो गई। लैला-ओ-मजनूँ में आखिर फ़ौज़दारी हो गई।। मगरिब में औद्योगिक क्रांति आई तो भाप का आविष्कार हुआ, बिजली की खोज़ हुई और इन चीजों की सामाजिक अहमियत लोगों को समझ आई। लेकिन अकबर को इन आविष्कारों से डर ज्यादा लगता था क्योंकि ये कल-कारखाने इंसानियत को ख़तरे में डाल रहे थे। इस विचार को प्रकट करते उनके कुछ कतआत पेश हैं। भूलता जाता है योरप आसमानी बाप को। बस ख़ुदा समझा है उसने बर्क़ को और भाप को।। बर्क गिर जाएगी इक दिन और उड़ जायेगी भाप। देखना ‘अकबर’ बचाए रखना अपने आपको।। 1. अजल- मृत्यु; 2. मुख़ालफत- विरोध; 3. गैरते कौमी- जातिगत लज़्ज़ा, शर्म; 4. नज्द- वह शहर जहाँ लैला तथा मज़नू रहते थे। इंजन आया निकल गया ज़न से, सुन लिया नाम आग पानी का। बात इतनी और इसपे यह तूमार1, गुल है योरप में जाँफ़शानी2 का।। शेख-दरगोर-औ-क़ौम-दर-कालेज3, रंग है दौरे-आस्मानी का। कत्ल से पहले दी ‘क्लोरोफ़ार्म’, शुक्र है उनकी मेहरबानी का।। अजानों से सिवा बेदार-कुन4 इंजन की सीटी है। इसी पर शेख़ बेचारे ने छाती अपनी पीटी है।। गए शरबत के दिन यारों के आगे अब तो ए ‘अकबर’। कभी ‘सोडा’ कभी ‘लिमनेड’ कभी ‘व्हिस्की’ कभी ‘टी’ है।। आपकी एक खूबसूरत गज़ल पेशे-खिदमत है। आँखें मुझे तलवों से वह मलने नहीं देते। अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते।। खातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते। सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते।। किस नाज़ से कहते हैं वह झुंझला के शबे-वस्ल। तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते।। पर्वानों ने फ़ानूस को देखा तो यह बोले। क्यों हमको जलाते हो कि जलने नहीं देते।। हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्जे-तमन्ना5। दुश्मन को तो पहलू से वह टलने नहीं देते।। दिल वह है कि फरियाद से लबरेज है हर वक्त। हम वह हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते।। गर्मीए-मुहब्बत में वह हैं आह से माने। पंखा नफ़से-सर्द6 का झलने नहीं देते।। अब चन्द नसीहती अशआर जिनमें अकबर साहब का दुनियावी तजुर्बा झलकता है पेश करता हूँ। अंदाज कभी कभी मज़ाकिया है पर बातें सटीक हैं। आप ग़ौर करें। तरकीबो-तकल्लुफ़7 लाख करो फितरत नहीं छुपती ऐ ‘अकबर’। जो मिट्टी है वह मिट्टी है, जो सोना है वह सोना है।। 1. तूमार- झूठी बातें, बढ़ी-चढ़ी बातें; 2. जाँफशानी- बड़ी मेहनत; 3. शेख दरगोर औ कौम दर कालेज- शेखजी कब्र में और कौम कॉलेज में; 4. बेदार कुन- जगाने वाली; 5. अर्जे तमन्ना- इच्छा की अभिव्यक्ति; 6. नफस ए सर्द- ठंडी साँसों; 7. तरकीबो-तकल्लुफ़- दिखावट की तरकीबें। काम कोई मुझे बाक़ी नहीं मरने के सिवा। कुछ भी करना नहीं अब कुछ भी न करने के सिवा।। हसरतों का भी मेरी तुम कभी करते हो ख़याल। तुमको कुछ और भी आता है सँवरने के सिवा।। फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी। ये वफ़ा कैसी थी, साहब ये मुरव्वत कैसी।। है जो किस्मत में वही होगा, न कुछ कम न सिवा। आरजू कहते हैं किस चीज़ को, हसरत कैसी।। इनायत1 मुझपे फ़रमाते हैं शेख़-ओ-बिरहमन दोनों। मवाफ़िक2 अपने-अपने पाते हैं मेरा चलन दोनों।। मुझे होटल भी खुश आता है और ठाकुर द्वारा भी। तबर्रूक3 है मेरे नज़दीक परशाद-ओ-‘मटन’ दोनों।। सिधारें शेख काबे को, हम ‘इंगलिस्तान’ देखेंगे। वह देखें घर खुदा का, हम खुदा की शान देखेंगे।। तेरी दीवानगी पर रह्म आता है हमें ‘अकबर’। कोई दिन वह भी होगा हम तुझे इंसान देखेंगे।। मुल्क में मुझको जलीलो-ख़्वार4 रहने दीजिए। आप अपनी इज़्ज़ते-दरबार5 रहने दीजिए।। ‘टेम्ज’ में मुमकिन नहीं नज़्ज़ारा-ए-मौज़े-फ़रात6। ऐसी ख़्वाहिश को समुन्दर पार रहने दीजिए।। दीन-ओ-मिल्लत की तरक्की का ख़्याल अच्छा है। अस्ल मजबूत हो जिसकी वह निहाल अच्छा है।। बखुदा हिन्द के पुर्जें भी गज़ब ढ़ाते हैं। यह गलत है कि विलायत ही का माल अच्छा है।। अपना रंग उनसे मिलाना चाहिए। आज-कल पीना-पिलाना चाहिए।। 1. इनायत- कृपा, रहम, मेहरबानी; 2. मवाफिक- अनुसार; 3. तबर्रूक- बरकत, प्रसाद; 4. जलीलो ख्वार- बे-इज़्ज़त और पीड़ित; 5. इज़्ज़ते दरबार- दरबार की इज़्ज़त; 6. नज़्ज़ारा ए मौजे फरात- फरात नदी की मौज (लहरों) का नज़ारा। खूब वह दिखला रहें हैं सब्ज़-बाग। हम को भी कुछ गुल खिलाना चाहिए।। कुछ न हाथ आए मगर इज़्ज़त तो है। हाथ उस मिस से मिलाना चाहिए।। अकबर एक अलग अंदाज में लिखते थे। एकदम साफ गोई पसन्द ! जो मन में आया कह दिया। अपने लिये खुद उनका कहना था कि- आप क्या पूछते हैं मेरा मिज़ाज़। शुक्र अल्लाह का है, मरता हूँ।। यह बड़ा ऐब मुझ में है ‘अकबर’। दिल में जो आये कह गुज़रता हूँ।। लेकिन इस बात का भी उनको पूरा अहसास था कि दुनिया पर उनकी बातों का कुछ खास असर नहीं होता। इसीलिए उन्होंने फर्माया कि- फ़ारसी उठ गई, उर्दू की वह इज़्ज़त न रही। है जुबाँ मुँह में मगर उसकी वह कुव्वत न रही।। बन्द कर अपनी ज़ुबाँ, तर्के-सुखन1 कर ‘अकबर’। अब तेरी बात की दुनिया को ज़रूरत न रही।। अपनी जुबान को वह इसी बात पर राज़ी करने की कोशिश करते रहे कि वह ज्यादातर चुप ही रहे। उन्हीं की ज़ुबानी- ज़क़-ज़क़-ओ बक़-बक़ में दुनिया के न हो ‘अकबर’ शरीक। चुप ही रहने पर ज़बाने-तेज़ को राज़ी करो।। पर शेर कहना बदस्तूर जारी रहा क्यों कि शेरों पर दाद भी तो बहुत मिलती थी- ताने सुनते हैं मगर शेर कहे जाते हैं। दाद के शौक़ में बेदाद2 सहे जाते हैं।। आप फ़रमाते हैं हो लह्र तरक्की की तो आ। मौजें कहती हैं कि यह खुद ही बहे जाते हैं।। हर आदमी अपने नाम के लिये जीता है। शायर भी शायद दाद पाने के लिए शायरी करते हैं। कुछ खुद को अमर करने के लिए दीवान छपवाते हैं परन्तु अंत-पंत सब मर खप जाते हैं। इस पर ‘अकबर’ ने कहा कि- 1. तर्के सुखन- शेरो शायरी को खत्म; 2. बेदाद - जुल्मोसितम। हुलिया बदली, घर को छोड़ा, कागजों में छप गये। चन्द रोजा खेल था आखिर को सब मर खप गये।। अकबर साहब को कौम के अनपढ़ होने का भी गम था। उन्होंने तत्कालीन जूता बनाने वाली कम्पनी से तुलना करके इस अंदाज में अपना दर्द जाहिर किया। बूट डासन ने बनाया, मैंने एक मजमूँ लिखा। मुल्क में मज़मूँ न फैला और जूता चल गया।। इसके साथ ‘अकबर’ साहब को खुदा हाफिज़ कह हम अपना सफ़र आगे बढ़ाते हैं। *
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