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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:39 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
अली सरदार ‘जाफ़री’ शायर का दिल भावुक और नज़र दूरगामी होती हैं। उसकी नज़र मनुष्य के भविष्य पर ज़्यादा रहती है। वह परिवर्तन लाने हेतु सदा तत्पर रहता है। वह न तो लकड़हारे की तरह से जंगल साफ कर सकता है और न कुम्हार की तरह से मिट्टी लेकर बर्तन और खिलौने बना सकता है। वह संग तराश की तरह बुत भी नहीं बना सकता। वह तो केवल ज़ज़्बात और अहसासात की तस्वीरें अपने शेरों में ढालता है। वह इंसान के ज़ज़्बात में दाखिल होकर उनमें तब्दीली लाता है और फिर धीरे-धीरे समाज में तब्दीली का माध्यम बनता है। यह विचार व्यक्त करने वाला शायर था सरदार जाफ़री। उनकी शायरी भी उनके इसी विचार की पुष्टि करती है। आधुनिक उर्दू शायरी के इस सिपाही का जन्म 29 नवम्बर 1913 को बलरामपुर, जिला गौंडा (अवध) में हुआ। घर का माहौल खालिस मज़हबी था और उसमें अनीस के मर्सियों का बहुत ज़ोर था। इसके असर से सरदार जाफ़री ने भी पहले मर्सिये कहने शुरू कर दिये और 1933 तक मर्सियाख़्वानी में ही लगे रहे। उसके बाद वे ऊँची तालीम हासिल करने अलीगढ़ के मुस्लिम विश्व विद्यालय में आये तो वहाँ उनको जाँनिसार ‘अख़्तर’, सिब्ते हसन रिज़्वी, मज़ाज, ख़्वाजा अहमद अब्बास जैसे शायरों तथा लेखकों का साथ मिला। यहाँ वह विद्यार्थी-आंदोलनों में भी भाग लेने लगे और वायसराय की एक्जिक्यूटिव काऊँसल के अलीगढ़ प्रवास के विरोध के फलस्वरूप विश्वविद्यालय से निष्कासन जैसा दंड भी झेलना पड़ा। ज़िन्दगी ने राजनीति में कदम रखे तो शायरी का रुख भी वैसा ही हो गया। इस बीच आपने एंग्लो-अरेबिक कॉलेज, देहली से बी.ए. और लखनऊ विश्व विद्यालय से एम.ए. की डिग्री हासिल की और फिर बम्बई आ गये। यहाँ पर राजनीतिक रंग में ढल कर कम्यूनिस्ट-पार्टी के सदस्य बन गये। सियासी सक्रियता के कारण बार-बार जेल यात्रा की और शायरी ने नई परवाज़ ली। उनकी शायरी में इंसान के वजूद की अहमियत बहुत उभर कर सामने आती है। देश, काल, समाज, और शख्सियत तो बदल सकती है और बदलती रहती है परन्तु इंसान कायम रहता है। इंसान की कभी पराजय नहीं होती और इंसानियत की हमेशा जीत होती है। सरदार जाफ़री साहब के सभी दीवान यही संदेश देते दिखाई देते हैं। उनके दीवानों में ‘परवाज़’,‘नई दुनिया को सलाम’,‘पत्थर की दीवार’, ‘खून की लकीर’, ‘एशिया जाग उठा’, और ‘अमन का सितारा’, मुख्य है। उनका कलाम शोचनीय हालात का आईना हो सकता है लेकिन अंत में सुखी भविष्य का संदेश देता है और पूर्णतः आशावादी है। हिन्दोस्ताँ में उस समय तब्दीली और ना-अमनी का दौर था। अँग्रेज़ी हुकूमत की बेड़ियाँ तोड़ने को लोग लालायित थे और हुकूमत पूरे ज़ोर से इस तब्दीली को रोकने में मशगूल थी। दूसरी दुनियावी जंग ने आर्थिक हालात को खस्ता कर दिया था और चारों तरफ बेकारी और बेरोज़गारी का आलम था। फिर हिन्दोस्तान का बँटवारा हुआ और मज़हबीं जुनून हावी हो गया। मज़हब और मुल्क के नामों पर वह आफत-बर्पा, मार काट हुई कि तौबा-तौबा। ऐसे हालात में सरदार जाफ़री जैसे दयानतदार शायर का चुप रहना मुमकिन नहीं था। उन्होंने हर एक मौके पर इंसानियत की मशाल जलाई। इंसानियत के दुश्मनों के खिलाफ़ बगावत का बिगुल बजाया। उनकी नज़्में ‘बगावत’, ‘जश्ने-बगावत’, ‘फरेब’, ‘तलंगाना’ आदि इसी बात की जिन्दा मिसालें हैं। जाफ़री साहब जमाने के साथ जीने वाले शायर थे अतः उनकी शायरी उसी जमाने की बात करती है जब वे उसे लिख रहे थे। उन्होंने कहा कि-‘‘हर शायर की शायरी वक्ती होती है। मुमकिन है कि कोई और इसे नहीं माने लेकिन मैं अपनी जगह यही समझता हूँ। अगर हम अगले वक्तों का राग अलापेंगें तो बेसुरे हो जायेंगे। आने वाले जमाने का राग जो भी होगा, वह आने वाली नस्ल गायेंगी। हम तो आज ही का राग छेड़ सकते हैं।’’ जाफ़री साहब ने वक्ती शायरी की और वह भी बेहद नाज़ुक वक्त पर लेकिन उसमें वक्त के हालातों के बावजूद निराशा जरा भी नहीं। वे आने वाले कल के प्रति सदैव आशावादी रहे। वे किसी एक जाति, वर्ग या धर्म के शायर न थे पूरी इंसानियत के शायर थे, उसके बदलते मूल्यों के शायर थे। आपने नई उपमायें और नये रूपकों का इस्तेमाल किया। उनके अनुसार पुरानी उपमायें और रूपक नये जमाने के ख़यालात और अहसासात को प्रकट करने के लिए हमेशा उचित और उपयोगी नहीं रहते। जिन्दगी की नई हकीकतें इज़हार के नये तरीके और बयान का नया अन्दाज माँगती है। यह नई परिकल्पना भी माँगती है। अब आप देखिये आधुनिक चावल की शक्लो-सूरत के बिगाड़ की तुलना मुफलिसी से करके आप क्या फरमाते हैं ? चावलों की सूरत पर, मुफलिसी बरसती है। (और आँखों में काजल बारूद से डाल दिया है।) ‘शाम की आँख में बारूद के काजल की लकीर’। (तथा गोलियाँ बात कैसे करती है?) ‘गोलियाँ करती हैं सीसे की जुबां से बातें’। सरदार जाफ़री साहब ने आलोचनाएं भी लिखीं, कहानियां भी लिखीं और नाटक भी। उनका व्यक्तित्व बहुमुखी था। अपने स्वयं के व्यक्तित्व के बारे में वे फरमाते हैं कि- ये तो हैं चन्द ही जल्वे जो छलक आये हैं। रंग हैं और मेरे दिल के गुलिस्ताँ में अभी।। मेरे आगोशे-तख़य्युल1 में हैं लाखों सुबहें। आफताब और भी हैं मेरे गिरेबां में अभी।। आपने लेखन कार्य की शुरूआत 17 साल की उम्र में कर दी और बहुत जल्द ही अफसाना-निगार के रूप में मशहूर हो गये। अफसानों की उनकी पहली किताब ‘मंज़िल’ 1938 में छपी जबकि उनकी शायरी का पहला दीवान ‘परचम’ 1943 में प्रकाशित हुआ। आपने ‘नया-अदब’ नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन भी किया और कई आलोचनाएं लिखीं। आपको ‘ज्ञान पीठ पुरस्कार’ (1998) तथा ‘इकबाल-पुरस्कार’ से नवाजा गया। आजादी की जंग और बंटवारे के समय हुए दंगों ने उनकी शख्सियत पर बहुत असर डाला। आपने आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर भाग लिया और आवाम की आजादी के लिए हर तरफ अपनी कलम चलाई। उन्होंने आवाम के हर नाजुक मसले को अपनी शायरी में उठाया। बंटवारे के वक्त आपने उसकी मुख़ालफत ही नहीं की बल्कि मामू की दंगाईयों के हाथों मौत और परिवार के पाकिस्तान चले जाने की त्रासदी को भोगकर भी हिन्दोस्ताँ में रहना कुबूल किया। पाकिस्तान आने पर लगी पाबन्दी को भी झेला। सियासत से निराश हो अदब के प्रति समर्पित हो गये और अमन को फैलाने का मकसद बना लिया। साठ के दशक में आपने फिल्मी गीत भी लिखे। ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म ‘अनहोनी’ और पंकज मलिक की फिल्म ‘जलजला’, तथा अब्बास की ही एक और फिल्म ‘परदेसी’ के लिये गीत लिखे। जाफ़री साहब के गानों से सजी अन्तिम फिल्म थी ‘शहर और सपना’। आप इतने अमन पसंद थे कि पोखरण परमाणु विस्फोट से खुले तौर पर नाराज़गी जताई। अमन और चैन की नज़्मों से लबरेज आपकी नज़्मों का ऑडियो-कैसेट ‘सरहद’, प्रधानमंत्री वाजपेयी द्वारा पाकिस्तान को भेंट किया गया। आपको सन् 1965 में ‘सोवियत लेंड नेहरू पुरस्कार’, 1967 में ‘पद्मश्री’ और 1978 में पाकिस्तान की सरकार द्वारा ‘गालिब-पुरस्कार’ से भी नवाजा गया। जाफ़री को उर्दू अदब का ‘लाल’ शायर कहा जा सकता है क्योंकि वे शायरी की दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टी के लाल झंडे और मजदूर एकता के नारे के साथ दाखिल हुए। आपने कुछ संकलन के काम भी करे और आपका कबीर के दोहों का संकलन ‘कबीर की बानी’ काफी अच्छा रहा। मीरां-बाई के दोहे और गीत भी आपने संकलित किये तथा गालिब की शायरी पर भी किताब लिखी। आपके बारे में जितना भी लिखा जाये सब सूरज को दीपक दिखाने के समान है। सरदार जाफ़री साहब की दो बेहतरीन गज़लें पेशे-खिदमत हैं- 1. आगोशे तख़य्युल- कल्पना की गोद में। एक जूए-दर्द1 दिल से जिगर तक रवाँ2 है आज। पिघला हुआ रगों में इक आतिशफ़िशां है आज।। लब सी दिये हैं ता न शिकायत करे कोई। लेकिन हर-एक जख़्म के मुंह में जुबां है आज।। तारीकियों3 ने घेर लिया है हयात को। लेकिन किसी का रू-ए-हसीं4 दर्मियां5 है आज।। जीने का वक़्त है यही मरने का वक़्त है। दिल अपनी ज़िन्दगी से बहुत शादमां6 है आज।। हो जाता हूँ शहीद हर अहले-वफ़ा के साथ। हर दास्ताने-शौक़ मेरी दास्ताँ है आज।। आए हैं किस निशात7 से हम क़त्लगाह में। ज़ख़्मों से दिल है चूर नज़र गुलफ़िशां8 है आज।। ज़िन्दानियों9 ने तोड़ दिया ज़ुल्म का सफ़र। वो दबदबा वो रौबे-हुकूमत कहाँ है आज।। कौन है जिस से संभाला जायेगा मेरा जुनूं। ख़ुद ही पाये-शौक़ को जंजीर पहनाई है आज।। डर रहा हूँ जानो-तन को फूंक डालेगी ये आग। मेरे सीने में जो ज़ब्ते-ग़म ने भड़काई है आज।। कह दो सय्यादों10 से गुलचीनों11 को कर दो होशियार। फ़स्ले-गुल ने दूर तक ज़ंजीर फैलाई है आज।। एक साहिल है कि उभरा है भँवर की गोद से। एक किश्ती है कि तूफ़ानों से टकराई है आज।। जब उठा नब्ज़ों में ख़ूं रोशन हुए दिल में चिराग़। शायरे-आतिश-नवा ने आग बरसाई है आज।। 1. जूए दर्द- कष्ट की नहर; 2. रवाँ- बह रही; 3. तारीकियों- अंधेरों; 4. रू ए हसीं- सुंदर मुखड़ा; 5. दर्मियां- बीच में; 6. शादमां- प्रसन्न; 7. निशात- खुशी से; 8. गुलफिशां- फूल बिखेरने वाली; 9. ज़िन्दानियों- कैदियों; 10. सय्यादों- कैद करने वाले; 11. गुलचीनों- फूल तोड़ने वालों। वह जाफ़री साहब हैं जो ये सदा देते हैं कि- कम निगाहों को मैं अंदाजे-ऩजर देता हूँ। बे-सहर रात1 को भी रंगे-सहर2 देता हूँ।। बदगुमाँ मुझसे ख़िज़ां है तो खफ़ा वीराना। आमदे-फ़स्ले-बहारां3 की खबर देता हूँ।। बसंत ऋतु के आगमन की खबर देते ये शायर जोशो-खरोश से लबालब हो फर्माते हैं कि- इश्क़ का नग़्मा जुनूं के साज़ पर गाते हैं हम। अपने ग़म की आँच से पत्थर को पिघलाते हैं हम।। जाग उठते हैं तो सूली पर भी नींद आती नहीं। वक़्त पड़ जाये तो अंगारों पे सो जाते हैं हम।। ज़िन्दगी को हमसे बढ़कर कौन कर सकता है प्यार। और अगर मरने पे आ जायें तो मर जाते हैं हम।। दफ़्न होकर ख़ाक में भी दफ़्न रह सकते नहीं। लाला-ओ-गुल4 बन के वीरानों पे छा जाते हैं हम।। हम कि करते हैं चमन में एहतमामे-रंगो-बू5। रू-ए-गेती से नक़ाबे-हुस्न सरकाते हैं हम।। अक्स पड़ते ही संवर जाते हैं चेहरे के नुकूश6। शाहिदे-हस्ती7 को यूं आईना दिखलाते हैं हम।। मैकशों को मुज़दा8 सदियों के प्यासों को नवेद9। अपनी महफ़िल अपना साक़ी लेके अब आते हैं हम।। आपके इश्क़ का अंदाज देखें तो पाक-इश्क़ भी शरमा जाये। ये तो महबूब को खता करने पर भी दुआ देते हैं। बानगी देखिये- मेरी मोहब्बत की कोई क़ीमत नहीं है, कोई सिला10 नहीं है। मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है कोई गिला नहीं है।।...... .......मगर मैं अब तुमको क्या कहूँ, मेरी रूहो-दिल का सरूर11 हो तुम। मुझे अन्धेरा भी दो तो खुश हूँ कि मेरी आँखों का नूर हो तुम।। आपकी एक और गज़ल जो नज़्म जैसी है पेश करता हूँ। इसका उनुवान है- 1. बेसहर रात- जिस रात की सुबह न हो; 2. रंगे सहर- उजाले का रंग आशा; 3. आमदे फ़स्ले बहारां- बहार के मौसम का आगमन; 4. लाला ओ गुल- फूलों की लालिमा; 5. एहतमामे रंगो बू- रंग एवं गंध का प्रबन्ध; 6. नुकूश- भाव; 7. शाहिदे हस्ती- अस्तित्व का साक्षी; 8. मुज़दा- शुभ संदेश; 9. नवेद- नई प्रभात का संदेश; 10. सिला- पर्याय; 11. रूहो दिल का सरूर- दिल एवं आत्मा की खुशी। ग़म का सितारा मेरी वादी में वो इक दिन युंही आ निकली थी। रंग और नूर का बहता हुआ धारा बऩकर।। महफ़िले-शौक़1 में इक धूम मचा दी उसने। ख़लवते-दिल2 में रही अंजुमने-आरा3 बनकर।। शोला-ए-इश्क़4 सरे-अर्श5 को जब छूने लगा। उड़ गई वो मेरे सीने से शरारा6 बनकर।। और अब मेरे तसव्वुर का उफ़क़7 रोशन है। वो चमकती है जहां ग़म का सितारा बनकर।। ऐसी ही एक और गज़ल पेशे-खिदमत है जिसका उनुवान है- झलक सिर्फ़ लहरा के रह गया आँचल। रंग बनकर बिखर गया कोई।। गर्दिशे-ख़ूं8 रगों में तेज़ हुई। दिल को छूकर गुज़र गया कोई।। फूल-से खिल गये तसव्वुर में। दामने-शौक़ भर गया कोई।। सरदार जाफ़री साहब ने नज़्में भी बहुत अच्छी लिखीं और बहुत सारी लिखीं। उनकी कई नज़्में जैसे ‘पत्थर की दीवार’, ‘अवध की खाके हसीं’, ‘अनाज’, ‘भूखी माँ’, ‘भूखा बच्चा,’ ‘हुस्ने-नातमाम’ आदि बहुत मशहूर हुई उनमें से एक नज़्म ‘हुस्ने-नातमाम’ पेशे-खिदमत है- किस क़दर शादाबो-दिलकश9 है वो हुस्ने-नातमाम10। जिसकी फ़ितरत ग़ुन्चगी, दोशीज़गी है जिसका नाम।। जिस तरह पिछले पहर का साफ़ो-पाकीज़ा उफ़क़11। जिसके सीने से अभी पहली किरन फूटी नहीं।। जिस तरह इक खिलने वाली नाशगुफ़्ता12 सी कली। जिसके दामन तक अभी बादे-सहर13 पहुंची नहीं।। 1. महफ़िले शौक़- प्रेम की महफ़िल; 2. ख़लवते दिल- दिल के एकांत; 3. अंजुमने आरा- एकान्त की महफ़िल; 4. शोला ए इश्क़- प्रेम का शोला; 5. सरे अर्श- आकाश के किनारों; 6. शरारा- चिंगारी; 7. तसव्वुर का उफ़क़- कल्पना का आकाश; 8. गर्दिशे खूं- खून का दौरान; 9. शादाबो दिलकश- खिला हुआ, चित्ताकर्षक; 10. हुस्ने नातमाम- सदा रहने वाला सौन्दर्य; 11. साफ़ो पाकीज़ा उफ़क- स्वच्छ, पवित्र आकाश; 12. नाशगुफ़्ता- बिना खिली; 13. बादे सहर- सुबह की हवा। बर्गे-गुल1 पर जिस तरह शबनम की इक नन्ही सी बूंद। जो शुआ-ए-मेहरे-ताबां2 से अभी उल्झी नहीं।। जिस तरह साग़र में सहबा3 जैसे मीना में शराब। जो अभी मचली नहीं, छलकी नहीं, उबली नहीं।। जिस तरह इक शोख़ बिजली बादलों की आड़ में। जो अभी तड़पी नहीं, चमकी नहीं, टूटी नहीं।। जिस तरह गेसू-ए-पेचां4 जैसे ज़ुल्फ़े-ख़म-ब-ख़म5। जो अभी खुलकर हवा के दोश पर महकी नहीं।। जिस तरह दरिया में मोती, जैसे मौजों में सदफ़6। चश्मे-इन्सां 7 ने अभी जिनकी चमक देखी नहीं।। जैसे ज़हने-पाके-शायर8 में तख़य्युल की परी। जो अभी तक शीशा-ए-अल्फ़ाज़9 में उतरी नहीं।। जिस तरह आँखों में हल्के से तबस्सुम10 की झलक। जो किरन बनकर लबो-रूख़्सार11 पर बिखरी नहीं।। अब तलक यूंही अछूता है वो हुस्ने-नातमाम। जिसकी फ़ितरत12 ग़ुन्चगी, दोशीज़गी है जिसका नाम।। लेकिन इक दिन हर सदफ़ को टूट जाना चाहिए। हर कली को फूल बनकर मुस्कराना चाहिए।। एक और नज़्म ‘हुस्ने-कश्मीर’ पेशे-खिदमत है- आबाद है ख़्वाबों की तरह वादिये-कश्मीर13। फ़ानूस14 हैं तारों के तो फूलों के चिराग़ां।। दामन में पहाड़ों के लटकती हैं बहारें। पत्थर की हथेली पे महकता है गुलिस्तां।। सन्तूर बजाती हुई फिरती हैं हवाएं। हर बाग़ में आवारा-ओ-सरमस्तो-ग़ज़लख़्वां15।। उड़ती हुई आती हैं परिस्ताने-उफ़क़16 से। मलबूसे-शफ़क़17 पहने हुए सुबह की परियां।। 1. बर्गे गुल- फूल का पेड़; 2. शुआ ए मेहरे ताबां- चमकते चाँद की किरन; 3. सहबा- शराब; 4. गेसू ए पेचां- बलखाई लटें; 5. ज़ुल्फे ख़म ब ख़म- घुंघराले बाल; 6. सदफ़- सीपी; 7. चश्मे इन्सां- मनुष्य की आँख; 8. ज़हने पाके शायर- शायर के पवित्र मस्तिष्क; 9. शीशा ए अल्फ़ाज़- शब्दों के जाम; 10. तबस्सुम- मुस्कान; 11. लबो रूख़्सार- अधर और कपोल; 12. फ़ितरत- स्वभाव; 13. वादिये कश्मीर- कश्मीर की घाटी; 14. फ़ानूस- झाड़; 15. आवारा ओ सरमस्तो ग़ज़लख़्वां- निर्बाध गुनगुनाती हुई हवाएं; 16. परिस्ताने उफ़क़- आकाश के परिस्तान से; 17. मलबूसे शफ़क़- लाल कपड़े। झीलें हैं कि नीलम के तराशे हुए प्याले। फव्वारे हैं या गौहर-ओ-अल्मास1 हैं रक़्सां2।। ‘शाली’ के हैं ये खेत कि सब्ज़े के समुन्दर। साये हैं चनारों के कि जन्नत के शबिस्तां3।। दोशीज़ा-ए-कुहसार,4 पहाड़ों की ग़िज़ाला5। बिन्ते-महो-ख़ुरशीद6 है हर दुख़्तरे-दहक़ां7।। जो छीन ले दिल वो हुनरे-दस्ते-हुनरमंद8। अनमोल मगर जिन्स9 के बाज़ार में अर्ज़ा।। इख़लासो-मोहब्बत10 की वो गूँधी हुई मिट्टी। अख़लाक़ो-मुरव्वत11 के वो ढाले हुए इन्सां।। शायर को यक़ीं है कि निखर आएगा इक रोज़। वो हुस्न जो इफ़लास12 की चादर में है पिनहां13।। ऊपर की गजलें और नज़्में पढ़कर आपको यकीं हो गया होगा कि सरदार जाफ़री साहब एक मकबूल शायर थे और सिर्फ शायर ही नहीं एक बहुमुखी काबिलियत रखने वाली शख्सियत थे। आपका इन्तकाल अगस्त 2000 में 86 वर्ष की उम्र में हुआ। अब आपसे और आपकी शायरी से विदा लेकर हमें आगे बढ़ना होगा अपने सफ़र को जारी रखना होगा। बहता हुआ दरिया हैं हम, बहना ही अपना काम है। न हुई सुबह कभी न शाम का कोई काम है।। जिन्दगी में काम करना है हमें दिन और रात। न कोई मंजिल है अपनी, न कहीं आराम है।। * 1. गौहर ओ अल्मास- मोती, माणक; 2. रक़्सां- नाचते हुए; 3. शबिस्तां- रात्रि; 4. दोशीज़ा ए कुहसार - पर्वतों की कन्या; 5. ग़िज़ाला- हिरणी; 6. बिन्ते महो खुरशीद- चाँद सूरज की पुत्री; 7. दुख़्तरे दहकां- किसान की बेटी; 8. हुनरे दस्ते हुनरमंद- कलाकार के हाथों की कला; 9. जिन्स- वस्तु; 10. इख़लासो मोहब्बत-प्रीत की रीति; 11. अख़लाक़ो मुरव्वत-आदर, शिष्टाचार; 12. इफ़लास-दरिद्रता; 13. पिनहां- छिपा हुआ।
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