डॉ. सर शेख मुहम्मद ‘इकबाल’ ज्ञान की बातें बहुत हुईं अब फिर सफ़र के तज़ुर्बात हासिल करते हैं। अब हम बीसवीं सदी में सफ़र करेंगे। सबसे पहले जिक्र करेंगे सर शेख मुहम्मद ‘इकबाल’ साहब का जो भारत के पहले ऐसे शायर थे जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। अंग्रेज सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि दी तो जर्मन सरकार ने ‘डॉक्टरेट’ की। उनका जन्म 1875 में सियाल कोट में हुआ और उन्होंने अच्छी तालीम हासिल की। पहले एम.ए. की परीक्षा पास की और फिर 1905 में लंदन से बैरिस्टरी की सनद हासिल की। इक़बाल ने शायरी 1899 से आरम्भ की और 1905 तक उन्होंने केवल फ़ारसी में शायरी की और बहुत कम शायरी की। 1908 से लेकर 1937 तक उन्होंने मज़हबी शायरी की और सर सैयद अहमद खान के प्रभाव में आकर मुस्लिम चेतना के वास्ते नज़्में लिखीं, कौमी मुुसद्दस लिखे। खुदा से मुस्लिमों का ‘शिकवा’ और खुदा का मुस्लिमों को ‘जबाबे-शिकवा’ उनके दो मशहूर मुसद्दस हैं। ‘पाकिस्तान’ का ख़याल सबसे पहले इक़बाल ही के जेहन में आया था और जो मज़हबी जुनून की सदाएँ उन्होंने अपने क़लाम में दीं उनके आगे जिन्ना साहब वास्तव में धर्म-निरपेक्ष नज़र आने लगते हैं। इक़बाल मिर्ज़ा दाग के शार्गिद थे और स्वयं दाग को भी वे प्रिय थे। इक़बाल के पुरखे कश्मीरी ब्राह्मण थे परन्तु इस्लाम ग्रहण करने के बाद वे पंजाब आ गये और सियालकोट में छोटा-मोटा व्यापार करने लगे। इक़बाल ने 22 वर्ष की अवस्था में पहले मुुशायरे में शिरकत की और एक नज़्म पढ़ी। वे दर्द भरी नज़्में पढ़ते थे जिनको सुन कर लोग रो पड़ते थे। ‘इंन्किलाब-जिन्दाबाद’ का नारा उन्हीं का दिया हुआ था और इन्किलाब का राजनैतिक और सामाजिक प्रयोग भी उन्होंने ही किया था। ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा’- नामक नज़्म भी इन्हीं की देन है। नज़्म दो तरह से कही जाती है। वह नज़्म जिसमें पाँच मिसरों की एक बन्दिश होती है वह ‘मुखम्मस’ कही जाती है और वह नज़्म जिसमें छह मिसरों की एक बन्दिश होती है वह ‘मुसद्दस’ कहलाती है। इकबाल ने मुसद्दसी नज़्में ज्यादा कहीं। लेकिन पहले हम उनकी एक ‘मुखम्मसी’ नज़्म देखेंगे जिसका नाम है ‘कौमी-गीत’। इस नज़्म के दो छन्द पेशे खिदमत हैं- चिश्ती ने जिस ज़मीं पर पैग़ामे-हक1 सुनाया। नानक ने जिस चमन में वहदत2 का गीत गाया।। तातारियों ने जिसको अपना वतन बनाया। जिसने हिजाज़ियों3 से दश्ते-अरब4 छुड़ाया।। मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है। यूनानियों को जिसने हैरान कर दिया था। सारे जहाँ को जिसने इल्म-ओ-हुनर5 दिया था।। मिट्टी को जिसकी हक़ ने, ज़र का असर दिया था। तुर्कों का जिसने दामन, हीरों से भर दिया था।। मेरा वतन वही है मेरा वतन वही है। इसके बाद उनकी मुसद्दसी नज़्म ‘शिकवा’ के दो छन्द पेशे-खिदमत हैं‒ सफ़हा-ए-दहर6 से बातिल7 को मिटाया हमने। नौ-ए-इंसां8 को गुलामी से छुड़ाया हमने।। तेरे काबे को जबीनो9 से बसाया हमने। तेरे कुरआन को सीनों से लगाया हमने।। फिर भी हमसे ये गिला है कि वफ़ादार नहीं, हम वफ़ादार नहीं, तू भी तो दिलदार नहीं। उम्मतें 10 और भी हैं, उनमें गुनहगार भी हैं। इज़्ज़11 वाले भी हैं मस्ते-मये-पिन्दार12 भी हेैं।। उनमें काहिल13 भी है, गाफ़िल14 भी हैं, हुशियार भी हैं। सैंकड़ों है कि तिरे नाम से बेज़ार भी हैं।। रहमतें हैं तेरी अगियार15 के काशानों16 पर, बर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर।। 1. पैग़ामे हक- इश्वर का संदेश; 2. वहदत- एकेश्वरवाद; 3. हिजाज़ियों- अरब के नागरिक; 4. दश्ते अरब- अरब के जंगल; 5. इल्म ओ हुनर-ज्ञान और कारीगरी; 6. सफ़हा ए दहर-दुनिया के नक्शे से; 7. बातिल-अन्याय; 8. नौ ए इंसां- दुनिया के इंसान; 9. जबीनों-माथा, पेःशानी; 10. उम्मतें- धर्मावलंबी; 11. इज़्ज़- असमर्थ; 12. मस्ते मये पिन्दार- घमण्डी, घमण्ड के नशे में चूर हुए; 13. काहिल - अर्कमण्य, सुस्त; 14. गाफ़िल- लापरवाह; 15. अगियार- गैरों; 16. काशानों- घरों। ये दोनों नज़्में यह बताती हैं कि इकबाल मुसलमानों के तरफ़दार होते हुए भी वतन परस्त थे। उनमें शुरूआत में मज़हबी जुनून नहीं था। वो मुल्लाओं के हिमायती भी नहीं थे और फिरका परस्ती के ख़िलाफ भी थे। मुल्लाओं का मज़ाक उड़ाते हुए उन्होंने एक किता लिखा जिसका शीर्षक था ‘मुल्ला और बाहिश्त’। वह आपको पेश करता हूँ- मैं भी हाज़िर था वहाँ ज़ब्ते-सुखन1 कर न सका। हक़2 से जब हज़रते-मुल्ला को मिला हुक्मे-बाहिश्त।। अर्ज की मैंने इलाही मेरी तक़सीर3 मुआफ।़ खुश न आएगें इसे हूरो-शराबो-लबे-किश्त4।। नहीं फ़िरदौस मुक़ामे-ज़दलो-क़ाल-ओ-मक़ाल5। बहसो-तकरार6 इस अल्लाह के बन्दे की सरिश्त7।। है बदआमोज़ी-ए-अकवामो-मलाल8 काम इसका। और जन्नत में न मस्जिद न कलीसा, न कुनिश्त9।। इकबाल एक ऐसे इंसान थे जिनमें एक तरफ यदि हिमालय की बुलंदी थी तो दूसरी तरफ समुद्र सी गहराई। वे कभी दिमाग़ से शायरी करते थे तो कभी दिल से। कभी सूफियाना अंदाज दिखाते थे तो कभी मजहब परस्ती की आग उगल देते थे। पर जो कुछ भी उन्होंने लिखा वो चाहे दिल से हो या दिमाग से, बहुत खूब लिखा! वे दिल और दिमाग दोनों के समान रूप से मालिक और समृद्ध थे। इनकी एक नज़्म ‘तराना-ए-हिन्दी’ आजाद हिंदोस्तान की वतन परस्ती का तराना है। इसे राष्ट्रीय गीत होने का सम्मान प्राप्त है। सामान्यतः इसके कुछ शेर ही गाये जाते हैं पर यहाँ पर इस नज़्म को पूरा पेश करता हूँ क्यों कि यह इकबाल की सबसे बेहतरीन नज़्म है। सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा। हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलसिताँ 10 हमारा।। गुरबत11 में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में। समझों वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा।। परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का। वो संतरी हमारा, वो पासबाँ12 हमारा।। गोदी में खेलती हैं, इसकी हजारों नदियाँ। गुलशन है जिनके दमसे, रश्के-जिनाँ13 हमारा।। 1. ज़ब्ते सुखन- खामोशी; 2. हक- ईश्वर; 3. तक़सीर- कुसूर, खता; 4. हूरो शराबो लबे किश्त- अप्सरा, शराब (तहूर) और जन्नत की नहर का किनारा; 5. मुक़ामे ज़दलो क़ाल ओ मक़ाल- लड़ाई, झगड़े, मतभेदों की जगह; 6. बहसो तकरार- तर्क-वितर्क; 7. सरिश्त- फ़ितरत; 8. बदआमोज़ी ए अकवामो मलाल- लोगो की ज़िंदगी में दुख घोलना; 9. कुनिश्त- यहूदियों (अग्नि) का मंदिर; 10. गुलसिताँ- चमन; 11. गुरबत- गरीबी; 12. पासबाँ- रक्षक; 13. रश्के जिनाँ- जन्नत जिससे ईर्ष्या करें। ऐ आबे-रूदे-गंगा,1 वो दिन है याद तुझको। उतरा तेरे किनारे, जब कारवाँ हमारा।। मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना। हिन्दी हैं हम, वतन हैं हिन्दोस्ताँ हमारा।। यूनान-ओ-मिस्त्र-ओ रूमा, सब मिट गये जहाँ से। अब तक मगर है बाकी, नामो-निशाँ हमारा।। जब तक इकबाल मजहबी तर्ज के शिकार नहीं हुए, एक से एक बेहतरीन नज़्म कहते गये। उनकी ‘राम’ पर लिखी नज़्म के चन्द अशआर पेशे-खिदमत है- लबरेज़2 है शराबे-हकीकत से जामे-हिन्द। सब फ़लसफ़ी है खित्ता-ए-मगरिब3 के रामे-हिन्द।। यह हिन्दियों के फ़िक्रे-फलक रस का है असर। रफअत में आसमाँ से भी उँचा है बामे हिन्द।। इस देश में हुए हैं हजारों मलक-सरिश्त4। मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नामेहिन्द।। है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़। अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द5।। एजाज़ इस चिराग़े हिदायत का है यही। रोशन तराज़ सहर है ज़माने में शामे हिन्द।। तलवार का धनी था शुजाअत में फर्द था। पाकीज़गी में, जोशे-मोहब्बत में फर्द था।। शेख़ो-बिरहमन दोनों को प्रीत का पाठ पढ़ाने वाले इकबाल की इबादत ही प्रेम था। उनकी एक और नज़्म ‘नया शिवाला’ के चन्द अशआर पेशे-खिदमत है- सच कह दूँ ऐ बिरहमन, गर तू बुरा न माने। तेरे सनमकदों6 के, बुत हो गये पुराने।। अपनों से बैर रखना, तूने बुतों से सीखा। जंग-ओ जदल7 सिखाया, वाइज़ को भी ख़ुदाने।। तंग आ के मैंने आखिर, दैरो-हरम8 को छोड़ा। वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फसाने।। पत्थर की मूर्तो में समझा है तू खुदा है। खाके वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है।। 1. आबे रूदे गंगा-गंगा का पानी; 2. लबरेज़- पूरा भरा हुआ; 3. खित्ता ए मगरिब- पश्चिमी देशों का इलाका; 4. मलक सरिश्त- फरिश्ता सिफ़त, ऋषि; 5. इमामे हिन्द- हिन्दोस्ताँ का मार्ग दर्शक; 6. सनमकदों- मन्दिरों; 7. जंग ओ जदल- लड़ाई झगड़ा; 8. दैरो हरम- मंदिर मस्जिद। आ गैरियत1 के पर्दे, इक बार फिर उठा दे। बिछड़ों को फिर मिला दे, नक्शे-दुई2 मिटा दे।। सूनी पड़ी हुई है, मुद्दत से दिल की बस्ती। आ इक नया शिवाला, इस देश में बनादें।। दुनिया के तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ। दामाने आसमाँ से इस का कलस मिला दें।। हर सुब्ह उठ के गाएं मन्तर वो मीठे-मीठे। सारे पुज़ारियों को मय पीत की पिला दें।। शक्ति भी शांति भी भगतों के गीत में है। धरती के वासियों की मुक्ती प्रीत में है।। दोनों कौमों को और उनके तरफदारों को प्रेम की राह बताने वाले इकबाल नास्तिक तो हरगिज नहीं थे। उनका खुदा उनके दिल में रहता था और वे खुदा-परस्त कैसे थे यह देखिये इन अशआर में- कभी ऐ हक़ीक़ते-मुन्तज़िर,3 नज़र आ लिबासे-मज़ाज़4 में। कि हज़ारों सिजदे तड़प रहे हैं, मेरी इक ज़बीने-नियाज़5 में।। जो मैं सर-ब-सजदा6 हुआ कभी, तो ज़मीं से आने लगी सदा। तेरा दिल तो है सनम-आशना,7 तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में।। तू बचा बचा के न रख इसे तेरा आइना है वो आइना। कि शकिस्ता हो तो अज़ीज़ तर, निगाहें आईना साज में।। न वोह इश्क में रहीं गर्मियाँ न वो हुस्न में रही शोखियाँ। न वो गज़नवी में तड़प रही, न वो खम है ज़ुल्फे अयाज़ में।। इकबाल ने न केवल नज़्में लिखीं बल्कि गज़लें भी लिखीं लेकिन उनकी गज़लें इश्को-मुहब्बत पर कम और फ़लसफसे पर ज़्यादह सफल रहीं। ऊपर लिखे अशआर भी उनकी एक गज़ल ‘तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में’ से लिये गये हैं। उनकी एक और गज़ल के चन्द अशआर पेशे-खिदमत हैं। तेरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ। मिरी सादगी देख, क्या चाहता हूँ।। ये ज़न्नत मुबारक रहे जाहिदों को। कि मैं आपका सामना चाहता हूँ।। भरी बज़्म में राज की बात कह दी। बड़ा बेअदब हूँ सज़ा चाहता हूँ।। 1. गैरियत- परायापन; 2. नक्शे दुई- गैरियत का निशान; 3. हक़ीक़ते मुन्तज़िर- प्रतीक्षित सत्य; 4. लिबासे मज़ाज़- मानव रूप; 5. ज़बीने नियाज़- नत मस्तक; 6. सर ब सजदा- सजदे में सर झुकाना; 7. सनम आशना- इच्छाओं का दास। उनकी फ़लसफ़े पर लिखी एक और गज़ल आदमी के वज़ूद और उसकी हस्ती पर बड़ी सटीक टिप्पणी है और इसका दूसरा शेर अक़्सर महफ़िलों में कहा जाता है। इस गज़ल के चन्द शेर पेश हैं। ख़िरदमन्दों1 से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तदा2 क्या है। कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है।। ख़ुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तकदीर से पहले। ख़ुदा बन्दे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।। इसी विषय पर उनकी एक और गज़ल के ये अशआर भी यहां लिखना उचित रहेगा क्योंकि इंसान को अपने वजूद की इंतिहा पाने के लिए ये भी ललकारते हैं। सितारों से आगे जहाँ और भी हैं। अभी इश्क के इम्तिहाँ और भी हैं।। तही3 जिन्दगी से नहीं ये फ़िज़ाएं4। यहाँ सैंकड़ों कारवाँ और भी हैं।। अगर खो गया इक नशेमन5 तो क्या ग़म। मुकामाते-आहो-फुग़ाँ6 और भी हैं।। तू शाहीं7 है परवाज़8 है काम तेरा। तिरे सामने आसमाँ और भी हैं।। इसी रोजो-शब में उलझकर न रह जा। कि तिरे ज़मान-ओ-मकां और भी हैं।। दिल की इश्क़ में हालत और इश्क़ के इज़हार की लज़्ज़त और कई सारी चीजें। एक गागर में सागर समाया है इकबाल साहब की गज़ल ‘दिल की बस्ती’ में। चन्द अशआर पेश हैं- दिल की बस्ती अजीब बस्ती है। लूटने वाले को ये तरसती है।। हो कनाअत9 जो जिंदगी का उसूल। तंग दस्ती10, फ़राख दस्ती11 है।। जिनसे दिल है जहाँ में कमयाब। फिर भी ये शै गज़ब की सस्ती है। ताबे-इज़हार 12 इश्क़ ने ले ली। गुफ्तगू5 को ज़बाँ तरसती है।। 1. ख़िरदमन्दों- अक्ल मन्दों; 2. इब्तदा- आरम्भ; 3. तही- खाली; 4. फ़िज़ा- वातावरण; 5. नशेमन- घर, घोंसला; 6. मुकामाते आहो फ़ुग़ाँ- चीख पुकार के स्थान; 7. शाहीं- पंछी (बाज़); 8. परवाज़- उड़ना; 9. कनाअत- संतोष; 10. तंग दस्ती- गरीबी; 11. फ़राखदस्ती- अमीरी; 12. ताबे इज़हार- अभिव्यक्ति की सामर्थ्य। ज़िक्रे ज़ामेतहूर1 वाज़ का वाज़। मय परस्ती की मयपरस्ती है।। शेर भी इक शराब है ऐ दिल। होशियारी इसी की मस्ती है।। आँख को क्या नज़र नहीं आता। अब्र 3 की तरह से बरसती है।। देखिए क्या सुलूक हो इकबाल। मुज़रिमे-ज़ुर्मे-बुत परस्ती 4 है।। इसी इकबाल ने ‘हिन्दी हैं हम, वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा’ की तर्ज़ पर ‘मुस्लिम हैं हम, वतन हैं सारा ज़हाँ हमारा’ क्यूं गाया ? इस प्रश्न का तो ज़वाब शायद इकबाल खुद भी नहीं दे पाते लेकिन गाया इस ख़ूबी से कि सारे मुस्लिम इस की कद्र कुरान की आयतों के ही समान करते हैं। मज़हबी संकीर्णता नग़मे की बुलंदी को कम नहीं करती ऐसा मेरा मानना है। इसीलिए पेशे-खिदमत है इकबाल की मज़हबी गज़ल ‘आसां नहीं मिटाना’- चीन-ओ-अरब हमारा, हिन्दोस्ताँ हमारा। मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा ज़हाँ हमारा।। तौहीद5 की अमानत सीनों में है हमारे। आसाँ नहीं मिटाना नाम-ओ-निशां हमारा।। दुनियाँ के बुतकदों6 में पहला वो घर ख़ुदा का। हम उसके पासबाँ हैं वो पासबाँ हमारा।। तेगों7 के साये में हम पलकर जवाँ हुए हैं। ख़ंजर हिलाल8 का है, कौमी निशाँ हमारा।। मग़रिब की वादियों में गूंजी अज़ां हमारी। थमता न था किसी से सैले-रवां9 हमारा।। बातिल10 से दबने वाले ऐ आसमाँ नहीं हम। सोै बार कर चुका है तू इम्तिहाँ हमारा।। ऐ गुलसिताने-उन्दलुस11 वो दिन है याद तुझको। था तेरी डालियों पर जब आशियाँ हमारा।। 1. गुफ़्तगू- बातचीत; 2. ज़िक्रे ज़ामेतहूर- जन्नत की शराब का ज़िक्र; 3. अब्र- बादल; 4. मुज़रिमे ज़ुर्मे बुत परस्ती- मूर्ति पूजने का दोषी; 5. तौहीद- एक ईश्वर की धारणा; 6. बुतकदों- मंदिरो में; 7. तेगों- तलवारों; 8. हिलाल- चाँद; 9. सैले रवां- बढ़त, बाढ़; 10. बातिल- अन्याय, असत्य; 11. गुलसिताने उन्दलुस- ईरान का बगीचा। ‘इकबाल’ का तराना बांगे-दिराँ1 है गोया। होता है ज़ादा पैमा2, फिर कारवाँ हमारा।। अपने अतीत के गौरव को याद दिला मुस्लिम कौम को अपनी गर्दिशों से बाहर निकलने को ललकारती यह ग़जल अगर फिरका परस्तियों के हाथ पड़कर गलत अंजाम तक जा पहुँचे तो इसमें इकबाल से ज्यादा दोष सियासत और हालाते-वक्त का ही रहा होगा। मैं तो इकबाल ही के शब्दों में फ़कत यही कहूँगा कि- क़ैदे-मौसम3 से तबीयत रही आज़ाद उसकी। काश गुलशन में समझता कोई फरियाद उसकी।। इकबाल ने तो इंसान की ज़मीर को ललकारा था और उसको ऊँचा उठने के लिए कहा था- न तूं जमीं के लिए है न आसमाँ के लिए। जहाँ है तेरे लिए, तूं नहीं जहाँ के लिए।। इसी के साथ हम इकबाल साहब से रूखसत लेकर आगे बढ़ते हैं लेकिन ये कहते हुए कि आपका इकबाल बुलन्द रहे इकबाल साहब! * 1. बांगे दिराँ- रवानगी का बिगुल; 2. ज़ादा पैमां- रास्ता नापने को तैयार; 3. क़ैदे मौसम- हालात की बंदिशों।