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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:34 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
सैयद अनवर हुसैन ‘आरजू’ लख़नवी लख़नवी स्कूल के एक और बेहतरीन शायर थे सैयद हुसैन ‘आरजू’ ये 1872 में लखनऊ में पैदा हुए और वहीं पर पले बसे। आपके पिता ज़ाकिर हुसैन ‘यास’ और बड़े भाई यूसुफ हुसैन ‘कयास’ भी अच्छे शायर थे। जब ‘आरज़ू’ तेरह वर्ष के थे तब उन्हें ‘जलाल’ की शागिर्दी नसीब हो गई। अपने पहले मुशायरे में ‘आरजू’ लख़नवी ने जो गज़ल पढ़ी उसके दो शेर पेशे-ख़िदमत हैं- हमारा जिक्र जो जालिम की अंजुमन में नहीं। जभी तो दर्द का पहलू किसी सुखन में नहीं।। शहीदे-नाज़1 की महशर2 में गवाही दे कौन ? कोई लहू का भी धब्बा मेरे कफ़न में नहीं।। आपके तीन दीवान जारी हुए, ‘फ़ुगाने आरज़ू’, ‘जहाने आरज़ू’ और ‘सुरीली बाँसुरी’। विभाजन के बाद आरज़ू पाकिस्तान चले गये। आपके कलाम के चन्द बेहतरीन नमूने पेशे-खिदमत हैं- दामन उस यूसुफ का आया पुरज़े हो कर हाथ में। उड़ गई सोने की चिड़िया रह गये पर हाथ में।। नादाँ की दोस्ती में जी का ज़रर3 न जाना। इक काम कर तो बैठे, और ‘हाय’ कर न जाना।। नादानियाँ हजारों, दानाई 4 इक यही है। दुनिया को कुछ न जाना और उम्र भर न जाना।। नादानियों से अपनी आफ़त में फँस गया हूँ। बेदादगर को मैंने बेदादगर न जाना।। जिंदगी की हक़ीक़त को कितने सरल और सहज तरीके से बयाँ किया गया है इन शेरों में। इश्क़ का तूफानी जज़्बा और जवानी का शबाब कैसा जुल्म ढाता है इसका बयाँ देखिये‒ 1. शहीदे नाज- हसीनों के नाज से शहीद हुए आशिक; 2. महशर- कयामत में न्याय होते वक्त; 3. जरर- नुकसान; 4. दानाई - समझदारी। मुझे मिटा तो दिया कब्ल-अहदे-पीरी1 के। सलूक और दो रोज़ा शबाब क्या करता।। यह बहरे-इश्क़2 का तूफान और ज़रा सा दिल। जहाज उलट गये लाखों हुबाब क्या करता।। पड़े न होते जो गफ़लत के ‘आरजू’ ! परदे। खुदा ही जाने यह जोशे-शबाब3 क्या करता।। और फ़लसफ़े पर एक दो शेर देखिये - बर्क ने की हर तरफ मेरे नशेमन4 की तलाश। चार तिनकों की बिना पर बाग सारा जल गया।। छोड़ दे दो गज़ ज़मीन है दफ़्न जिसमें इक गरीब। है तेरी मश्क़े-ख़िरामेनाज़5 को दुनिया वसीअ6।। है यह सब किस्मत की कोताही वगर्ना ‘आरजू’। बढ़ कि दामाने-तलब7 से हाथ है उसका वसीअ।। (कम से कम मेरे दफ़्न की दो गज जमीन तो छोड़ दे। वर्ना खेल करने के लिए तो तेरे पास पूरा संसार पड़ा है। ये तो मेरी बदनसीबी ही है कि ये हाल है वर्ना आशा करने वालों के आँचलों से देने वाले हाथ ही बड़े और ऊपर होते हैं।) आराम के थे साथी क्या-क्या जब वक्त पड़ा तो कोई नहीं। सब दोस्त हैं अपने मतलब के दुनिया में किसी का कोई नहीं।। और तसव्वुफ का एक शेर अर्ज है कि - परदा जो दुई का उठ जाये फिर यह न रहें अफ़साने दो। धोखा है नामे-दैरोहरम, बुत एक ही है बुतखाने दो।। खारजी रंग का एक शेर पेश है - वक्त थोड़ा और ये भी तय नहीं, किस जगहँ से कीजिये किस्सा शुरू। देखा ललचाई निगाहों का मअल9, ‘आरजू’ लो हो गया पर्दा शुरू।। इश्क़ मुहब्बत और दिल के सुकून के बारे में ‘आरजू’ साहब का फर्माना है कि- क़फ़स से ठोकरें खाती नज़र जिस पेड़ तक पहुँची। उसी पे लेके इक तिनका बिनाए-आशियाँ10 रख दी।। 1. कब्ल अहदे पीरी- बुढ़ापे के आने के पहले; 2. बहरे इश्क़- इश्क़ का समुद्र; 3. जोशे शबाब- जवानी का जोश; 4. नशेमन- घर; 5. मश्के खिरामेनाज़- इठलाकर चलने की आदत; 6. वसीअ- बहुत बड़ी; 7. दामाने तलब- मांगने को फैलाया गया आंचल; 8. नामे दैरोहरम- मंदिर और मस्जिद के नाम; 9. मआल- नतीजा; 10. बिनाए आशियाँ- घर की नींव। सुकूने-दिल नहीं जिस वक्त से इस बज्म़ में आये। जरा सी चीज घबराहट में न जाने कहाँ रख दी।। बुरा हो इस मुहब्बत का हुए बर्बाद घर लाखों। वहीं से आग लग उठ्ठी ये चिनगारी जहाँ रख दी।। किया फिर तुमने रोता देखकर दीदार1 का वादा। फिर इक बहते हुए पानी में बुनियादे-मकाँ2 रख दी।। लगता ये है कि आरजू साहब को भी किस्मत की नाकामी ने काफी परेशान किया होगा। इसलिए तो उन्होंने लिखा कि - नतीज़ा एक ही निकला कि थी किस्मत में नाकामी। कभी कुछ कह के पछताये कभी चुप रह के पछताये।। और फमार्या कि - रहने दो तसल्ली तुम अपनी, दुख झेल चुके दिल टूट गया। अब हाथ मले से होता है क्या, जब हाथ से नावक3 छूट गया।। अब अलग अलग रंग के उनके कुछ चुनिन्दा अशआर पेशे-खिदमत हैं - इश्क पर भी छा गई रअनाईयाँ4। उफ़ तेरी तोड़ी हुई अँगड़ाईयाँ।। उल्फत भी अजब शय है, जो दर्द नहीं दरमाँ5। पानी पे नहीं गिरता, जलता हुआ परवाना।। जमा हुए हैं कुछ हसीं, गिर्द मेरे मज़ार के। फूल कहाँ से खिल गये दिन तो न थे बहार के।। त़जुरबे सब हेच हैं, कानून सब बेकार हैं। हर जमाना इक नया पैगाम लेकर आये है।। किसने भीगे हुए बालों से ये झटका पानी। झूमकर आई घटा टूट कर बरसा पानी।। दो घड़ी को देदे कोई अपनी आँखों की जो नींद। पाँव फैला दूँ गली में तेरी सोने के लिए।। क्यों किसी रहबर से पूछूँ अपनी मंजिल का पता। मौज़े-दरिया6 खुद लगा लेती है साहिल7 का पता।। 1. दीदार- देखना, दर्शन देने; 2. बुनियादे मकाँ- मकान की बुनियाद; 3. नावक- तीर; 4. रअनाईयाँ- बहारें; 5. दरमाँ- इलाज; 6. मौज़े दरिया- समुद्र की लहर; 7. साहिल-किनारा। राहबर1 रहजन2 न बन जाये कहीं, इस सोच में। चुप खड़ा हूँ भूलकर रस्ते में मंजिल का पता।। नैरंगियाँ 3 चमन की तिलिस्मे-फरेब4 हैं। उस जा भटक रहा हूँ जहाँ आशियाँ न था।। पाबन्दियों ने खोल दी आँखें तो समझे हम। आकर कफ़स में बस गये थे आशियाँ न था।। जो दर्द मिटते-मिटते भी मुझको मिटा गया। क्या उसका पूछना कि कहाँ था कहाँ न था।। अब तक वह चारा-साजिये-चश्मे-करम5 है याद। फाहा6 वहाँ लगाते थे, चरका7 जहाँ न था।। साथ हर हिचकी के लब पर उनका नाम आया तो क्या ? जो समझ ही में न आये वह पय़ाम आया तो क्या ?? मय से हूँ महरूम अब भी जो शरीके-दौर हूँ। पाये-साकी से जो ठोकर खा के जाम आया तो क्या ?? सुरूर-शब का नहीं, सुब्ह का खुमार हूँ मैं। निकल चुकी है जो गुलशन से वोह बहार हूँ मैं।। करम पै तेरे नज़र की तो ढह गया वह गुरूर। बड़ा था नाज़ कि हद का गुनहगार हूँ मैं।। दैरोहरम हुए तो क्या, है ये मकान बेमकीं8। सर तो वहाँ झुकेगा जो तेरा हरीमे-नाज9 हो।। क्यों की उसकी ये दिलजोई, दिल जिसका दुखाना है। ठहरा के निशाने को क्या तीर लगाना है?? अन्दाजे-तगाफुल10 पर दिल चोट तो खा बैठा। अब उनकी निशानी को, उनसे भी छुपाना है।। कम-ताकतिये-नालाँ11 अश्कों से मदद ले ले। बेरब्त12 कहानी में पैबन्द लगाना है।। 1. राहबर- राह दिखलाने वाला; 2. रहजन- लुटेरा; 3. नैरंगियाँ- चमन की बहारें; 4. तिलिस्मे फरेब- धोके का जादू; 5. चारा साजिए चश्मे करम- इलाज करने वाले की कृपा दृष्टि; 6. फाहा- दवा डली रूई; 7. चरका - घाव; 8. बेमकीं- ना आबाद; 9. हरीमे नाज- रहने की जगह; 10. अंदाजे तगाफुल- अंजानेपन की अदा; 11. कम ताकतिये नालाँ- कमजोर आहें; 12. बेरब्त- बिना क्रम की। किसी जा गर्द में मोती, कहीं है गर्द मोती में। तेरी राहों को ए तकदीर हमने खूब छाना है।। अलअमाँ1 मेरे ग़मकदे2 की शाम। सुर्ख शोला सियाह हो जाये।। पाक निकले वहाँ से कौन जहाँ। उज्र-ख़्वाही3 गुनाह हो जाये।। इंन्तहाये-करम4 वो है कि जहाँ। बेगुनाही, गुनाह हो जाये।। * 1. अलअमाँ- खुदा की पनाह; 2. गमकदे- गम में डूबा हुआ घर; 3. उज्र ख़्वाही- आपत्ति करना; 4. इंतिहा ए करम - दयालुता का चरम।
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