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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:35 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
डॉ. अखलाख मुहम्मद खान ‘शहरयार’ अगर किसी शायर की शायरी ने उर्दू और हिन्दी भाषाओं के बीच की खाई को पाटने का काम किया तो वे थे शहरयार साहब। उनकी शायरी के दीवान उर्दू और हिन्दी दोनों भाषाओं में छपे और दोनों ही भाषाओं के पाठकों से उन्हें दाद मिली। शहरयार की शायरी उर्दू शायरी की महानता की परम्परा का पूरी तरह से निर्वाह करती है। किसी भी कामयाब शायर या उसकी बेहतरीन शायरी की यह विशेषता होती है कि वह संवेदनशील होने के साथ साथ किसी एक ‘वाद’ से कोई सरोकार नहीं रखती और निरपेक्ष होती है। शहरयार की शायरी में भी यह गुण पाया जाता है। एक इंसान की जिन्दगी में पैदा होने वाली हर हलचल शहरयार की शायरी में मौजूद है। सन् 1960 के आसपास जब आपका पहला दीवान प्रकाशित हुआ तो उसमें शामिल गज़ल ‘सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूं है’ के आधार पर उनकी गिनती आधुनिक गज़ल-गो-शायरों में होने लगी। लेकिन उनकी नज्में भी सफल हुई और उन्हीं के समकालीन शायर अली सरदार ज़ाफरी ने उनकी नज़्म ‘ये जो आसमाँ पे सितारा है,’ के आधार पर उनकी प्रशंसा करते हुए उन्हें प्रगतिशील शायर बताया। शहरयार की शायरी का मुख्य विषय जीवन के मूल्यों का निरंतर होता ह्रास रहा है। उपभोक्ता संस्कृति ने जीवन के मूल्यों को गिराया। मूल्यों की इस गिरावट का बोझ और इस बात का अफ़सोस तो उनकी शायरी में झलकता है लेकिन इस बात की मायूसी कदापि नहीं झलकती। वे आगे की सोचकर फिर से अच्छे की कामना करने लगते हैं, ख़्वाब देखने लगते हैं। बदलाव की तेज आँधी में भी नैतिक मूल्यों का दिया जलाये रखने का संदेश देते हुए वे कहते हैं कि- तेज हवा में जला दिल का दिया आज तक। ज़ीस्त से इक अहद् था पूरा किया आज तक।। समाज के प्रति शायरों का प्रेम तब उज़ागर होता है जब वह समाज में व्याप्त बुरी व्यवस्था पर चोट करते हैं। व्यवस्था के ठेकेदारों की अस्मिता को ललकारते हैं और कहते हैं कि- तुम्हारे शह्र में कुछ भी हुआ नहीं है क्या। कि तुमने चीखों को सचमुच सुना नहीं है क्या।। मैं इक ज़माने से हैरान हूँ कि हाकिमे-शह्र। जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या।। अपने स्वार्थ से प्रेरित होकर आदमी व्यवस्था में फैली गलतियों को भी स्वीकार कर लेता है। वह वक्त के साथ-साथ खुद को बदल लेता है। इस बात का अंदाज-ए-बयां देखें। जो बुरा था कभी वह हो गया अच्छा कैसे। वक्त के साथ मैं इस तेज़ी से बदला कैसे।। इसी मौजूँ पर, दुनिया में होने वाले अत्याचारों पर हैरानी, परेशानी के मौजूँ पर लिखी गज़ल पेशे-खिदमत है। अहले-जहाँ ये देख के हैरान हैं बहुत। दस्ते-सितम है एक, गरेबान हैं बहुत।। हमने तमाम उम्र सँवारा उन्हें मगर। गेसू-ए-ज़ीस्त1 फिर भी परीशान हैं बहुत।। ये और बात दिल को हैं बेरहमियाँ ही याद। हम पर वगरना आपके एहसान हैं बहुत।। शर्मिन्दा दोस्त ही से नहीं शह्रयार हम। दुश्मन से भी तो आज पशेमान हैं बहुत।। जिन्दगी रोज नए रंग बदलती है। व्यक्ति जब भी जिन्दगी के नये रंग को देखता है तो वह उसे अजनबी लगने लगती है। फिल्म उमराव जान ‘अदा’ में उमराव जान का किरदार इस फ़लसफ़े पर खूब ढलता है। केवल एक शेर और किसी की पूरी जिन्दगी का बयाँ! ये गज़ल शायर के अनुभव को कितनी रंगो-रवायत से बख़ानती है। पेश करता हूँ- जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यों है। जिन्दगी रोज नये रंग बदलती क्यों है।। धूप के कहर का डर है तो दयारे-शब2 से। सर-बरहना3 कोई परछाई निकलती क्यों है।। मुझको अपना न कहा इसका गिला तुझसे नहीं। इसका शिकवा है कि बेगाना4 समझती क्यों है।। 1. गेसूएजीस्त- जीवन रूपी केश; 2. दयारे शब- रात्रि के द्वार; 3. सर बरहना- नंगे सर; 4. बेगाना- पराया। तुझसे मिलकर भी तनहाई न मिटेगी मेरी। दिल में रह-रह के यही बात खटकती क्यों है।। मुझ से क्या पूछ रहे हो मेरी वहशत का सबब। बूए-आवारा1 से पूछो कि भटकती क्यों है।। वही उमराव जब अपने सफर में लखनऊ की तवायफ बन कर वापस फैज़ाबाद में अपने गाँव आती है तो अपना गाँव भी पराया नज़र आता है और दूर-दूर तक उसे गुबार नज़र आता है। फिर शहरयार की इस गज़ल का केवल एक शेर उसकी तमाम भावनाओं पर ढल जाता है। शेर और गज़ल पेश है- ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है। हदे-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है।। हर एक जिस्म रूह के अज़ाब2 से निढ़ाल है। हर एक आँख शबनमी, हर एक दिल फ़िगार है।। हमें तो अपने दिल की धड़कनों पे भी यकीं नहीं। ख़ुशा वो लोग जिनको दूसरों पे एतबार है।। न जिसका नाम है कोई न जिसकी शक़्ल है कोई। इक ऐसी शै का क्यों हमें अज़ल से इंतिज़ार है।। ‘सैरे-जहाँ’ करके इंसान एक ही नतीजे पर पहुँचता है कि इससे अंत में कुछ भी हासिल नहीं होता। फिर भी इंसान इस सफ़र से हार नहीं मानता। इस बात को कहती ये गज़ल पेश है‒ दिल में तूफान है और आँखों में तुगयानी3 है। जिन्दगी हमने मगर हार नहीं मानी है।। ग़मज़दा4 वो भी हैं दुश्वार है मरना जिनको। वह भी शाकी5 हैं जिन्हें जीने की आसानी है।। दूर तक रेत का तपता हुआ सहरा6 था जहाँ। प्यास का किसकी करिश्मा है वहाँ पानी है।। जुस्तज़ू तेरे अलावा भी किसी की है हमें। जैसे दुनिया में, कहीं कोई तेरा सानी7 है।। इस नतीजे पे पहुँचते हैं सभी आख़िर में। हासिले-सैरे-जहाँ8 कुछ नहीं है फ़ानी9 है।। 1. बूए अवारा- अनियंत्रित गंध; 2. अज़ाब- कष्ट; 3. तुगयानी- आँसुओं का सैलाब; 4. ग़मज़दा- दुखी 5. शाकी- असंतुष्ट; 6. सहरा- रेगिस्तान; 7. सानी- प्रतिस्पर्धी; 8. हासिले सैरे जहाँ- संसार भ्रमण का परिणाम; 9. फ़ानी- नाशवान है। एक से एक शानदार गज़लें लिखने वाले शह्रयार ने गज़लों में भी एक सोच डालने की कोशिश की। इस प्रकार की गज़ल की बानगी पेशे-खिदमत है‒ हौसला दिल का निकल जाने दे। मुझको जलने दे पिघल जाने दे।। आँच फूलों पे न आने दे मगर। ख़सो-ख़ाशाक1 को जल जाने दे।। मुद्दतों बाद सबा2 आई है। मौसमे-दिल को बदल जाने दे।। छा रही है जो मेरी आँखों पर। उन घटाओं को मचल जाने दे।। तज़्किरा3 उसका अभी रहने दे। और कुछ रात को ढल जाने दे।। कुछ नज्में भी गहरे सोच को उजागर करती हैं। दो चार ऐसी ही नज़्में पेशे-खिदमत हैं- इस खला4 से जमीं का हर गोशा5 जितना दिलकश6 दिखाई देता है उसने ख्वाबों में भी नहीं देखा वह नहीं आयेगा जमीं पर अब बेची है सहरा के हाथों रातों की सियाही तुमने की है जो तबाही तुमने किसी रोज सजा पाओगे ऐसा इक बार किया जाए सच बोलने वाले लोगों में मेरा भी शुमार किया जाए हर एक शख़्स अपने हिस्से का अज़ाब खुद सहे कोई न उसका साथ दे, जमीं पे जिन्दा रहने की ये पहली शर्त है 1. ख़सो ख़ाशाक- घासफूस; 2. सबा- पुरवाई; 3. तज़्किरा- ज़िक्र, वर्णन; 4. खला- शून्य; 5. गोशा- कोना; 6. दिलकश- आकर्षक। समय के उतार चढ़ाव पर एक गज़ल शहरयार साहब ने लिखी सो पेशे खिदमत है- दरिया चढ़ते हैं उतर जाते हैं हादिसे सारे गुज़र जाते हैं रातें जैसी भी हों ढ़ल जाती हैं जख़्म जैसे भी हों भर जाते है कोई मातम1 नहीं करता उनका पैदा होते ही जो मर जाते हैं यादें रह जाती हैं डसने के लिए दिन तो आते हैं गुज़र जाते हैं जाने क्या हो गया अहले-ग़म2 को दिल धड़कता है तो डर जाते हैं अब एक नज़्म पेश करता हूँ आप जरा उसका आनन्द लें- मेरे दिल के ख़ौफ़-हिकायत3 में ये बात कहीं पर दर्ज करो मुझे अपनी सदा4 सुनाने की सज़ा मिली भी तो चुप की सूरत में मेरे बोलने में जो लुकनत5 है उसी लम्बी चुप का नतीजा है शह्रयार साहब के कुछ फुटकर अशआर भी याद रखने लायक हैं, इनमें से चुनिन्दा अशआर पेश करता हूँ- चाहा है तुझको तेरे तग़ाफुल6 के बावजूद ए ज़िन्दगी तू याद करेगी कभी हमें मुद्दतों से मिले नहीं हम लोग, दरमियां7 कोई फ़ासला8 तो नहीं। सुबह से दिल उदास है मेरा, रात मैं ख़्वाब में हँसा तो नहीं।। 1. मातम- सोग; 2. अहले ग़म- दुखी प्राणियों; 3. ख़ौफ़ हिकायत- भय का वर्णन; 4. सदा- आवाज़; 5. लुकनत- हकलाहट; 6. तग़ाफुल- अनदेखी; 7. दरमियां- मध्य; 8. फ़ासला- दूरी। शोर समाअत के दरपै1 है जानते हो मौत के कदमों की आहट पहचानते हो होनी को कोई भी टाल नहीं सकता ये इक ऐसा सच है तुम भी मानते हो दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए माना कि दोस्तों को नहीं दोस्ती का पास लेकिन ये क्या कि गैर का एहसान लीजिए हमें यकीन है तू आज भी न आएगा तमाम रात मगर फिर भी जागना है हमें तेरे करम को सितम2 में बदलते देख लिया अब और क्या है जो दुनिया में देखना है हमें क़ाफ़िले आए भी और चले भी गए है हमें इंतज़ार अब किसका मुझको ले डूबा तेरा शह्र में यकता3 होना दिल बहल जाता अगर कोई भी तुझसा होता दिल था कि जिद रही तेरे कूचे में उम्र हो रहने को यूं तो गोश-ए-सहरा4 हमें भी था देखा जो आज ग़ौर से हमने तो ये खुला उन आँखों में हया के सिवा और कुछ भी है तूफाँ तो क्या किनारा भी आया न साज़गार5 बरहम6 कुछ इतनी मौज़े-बला हमसे हो गई कुछ नहीं खुलता कि क्यों मेरे कदम जाते हैं ऐसी मंजिल की तरफ़ जिसका पता कुछ भी नहीं होने को है बहुत ही बड़ा कोई हादिसा7 लगने लगी है शक़्ल तेरी अज़नबी हमें शहरयार साहब की दो बेहतरीन गज़लों का ख़्याल मेरे जेहन में आ रहा है। आपको उन्हें पढ़कर भी मजा आयेगा। पहली गज़ल है- 1. समाअत के दरपै- सुने जाने के मुकाम; 2. सितम- अत्याचार; 3. यकता- अद्वितीय; 4. गोश ए सहरा- रेगिस्तान का कोना, हिस्सा; 5. साज़गार- अनुकूल; 6. बरहम- अप्रसन्न, नाराज़; 7. हादिसा - घटना। मैं दुखी हूँ सब ये कहते हैं खुशी की बात है अब अँधेरे की ज़बाँ पर रौशनी की बात है मुद्दतों पहले जुदा हम अपनी मर्ज़ी से हुए लग रहा है दिल को यूँ जैसे अभी की बात है हमने जब भी दास्ताने-शौक़1 छेड़ी दोस्तों हर किसी को ये लगा जैसे उसी की बात है ख़ामोशी ने किस लिए आवाज़ का पीछा किया अहले-दुनिया2 तुम न समझोगे ये कैसी बात है शहर में इक शख़्स ऐसा है जो सच के साथ है ध्यान से क्यों सुन रहे हो दिल्लगी की बात है और दूसरी गज़ल है- ज़िक्र किसी का फिर निकला फिर छाई उदासी महफ़िल पर आज की रात कड़ी गुज़रेगी शायद फिर अहले-दिल3 पर मेरी मुहब्बत के अंजाम की फिक्र तुम्हें इतनी क्यों है जो कुछ भी बीतेगी यारों बीतेगी मेरे दिल-पर चाहे जितना तेज चलो मुझसे तुम मेरे हम सफ़रों पहुँच न पाओगे तुम लेकिन मुझसे पहले मंज़िल पर फुरसत वक़्त ने दी तो हम भी लिखेंगे इसकी रूदाद4 कैसे तूफ़ानों से निकले कैसे पहुँचे साहिल पर शहरयार की गज़लें और नज़्में अपने सोच के साथ-साथ शायरी की कला के लिये भी प्रसिद्ध हुई। भाषा की जटिलता से दूर इनमें एक लय और ताल नज़र आती है। आपने फिल्मी गीत भी लिखे जिनमें अच्छी शायरी का समावेश है केवल तुक बन्दी नहीं। उनकी शायरी समाज के परिवेश से जुड़ी होने पर भी फ़ौरी समस्याओं का विज्ञापन या खबर नामा नहीं कही जा सकती। इन शब्दों के साथ शहरयार साहब को अलविदा कह सफ़र में आगे बढ़ते हैं। * 1. दास्ताने शौक-प्रेम कथा; 2. अहले दुनिया-दुनिया वालो; 3. अहले दिल- दिल वालों; 4. रूदाद- आत्मकथा।
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