नवाब अली मुहम्मद खाँ ‘शाद’; अज़ीमाबादी अब देहलवी स्कूल के नये दौर के पहले शायर ‘शाद’ आज़ीमाबादी का जिक्र करेंगे। उनकी शायरी की तुलना कभी लोग ‘आतिश’ से करते है तो कभी ‘ग़ालिब’ से। तीनों ही की शायरी सूफियाना थी। लेकिन ‘शाद’ की शायरी ‘आतिश’ से इस मायने में जुदा थी कि वे दिल के रंजोगम को ख़िलवत में ही सही लेकिन खुलकर बयां करते थे जबकि आतिश और ग़ालिब दर्द को बयां करने से बचते थे। जहां आतिश का यह मानना था कि‒ ज़ौरो-जफ़ाये1 यार रंजो-महन2 न हो। दिलपर हुजूमे-ग़म हो, जबीं पर शिकन न हो।। और ‘गालिब’ का यह फरमाना था कि‒ रंज से खूगर हुआ इसांन तो मिट जात है रंज। मुश्किलें इतनी पड़ीं मुझ पर कि आसाँ हो गईं।। वहीं ‘शाद’ यह मानते थे कि‒ ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है। तड़प ए दिल, तड़पने से जरा तस्कीन3 होती है।। उनके समय में जो माहौल था उसके कारण खुदाए सुखन ‘मीर’ भी इब्तज़ाल (निम्न स्तरीय विचारों वाली शायरी) से न बच पाये और ग़ालिब तथा मोमिन ने भी इनमें पेशदस्ती4 कर दी। परन्तु शाद ने कभी भी निम्न स्तरीय विचारों को अपनी शायरी में न आने दिया। जब कभी हल्के शब्दों जैसे बोसा, आदि का जिक्र उनके शेरों में आया तो इस कदर पाक हो गया कि ऐय्याशी को भी शर्म आ जाये। जहाँ ग़ालिब ने कहा कि‒ ले तो लूँ सोते समय उनके पांव का बोसा मगर। ऐसी बातों से वह काफ़िर बदगुमाँ5 हो जाएगा।। और आतिश ने फरमाया कि- बोसे-बाजी से मेरी होती है ईजा6 उनको। मुंह छुपाते हैं जो होते हैं मुँहासे पैदा।। 1. जौर ओ जफा- जुल्मो सितम; 2. रंजो महन- दुख और कष्ट; 3. तस्कीन- तसल्ली, राहत; 4. पेशदस्ती- हाथ डालना; 5. बदगुमाँ- शंकालु, बदजन; 6. ईजा- दुःख, पीड़ा। वहां ‘शाद’ साहब ने बोसा दिया और चाहा भी तो यार के मुँह और कदमों का नहीं बल्कि शहीदों की मज़ार का‒ शहीदाने-कब्र की ख़ाक, क्या अक्सीर1 से कम है। न हाथ आये कदम बोसा, तो ले जाकर मज़ारों का।। ‘शाद’ ने हमेशा पाक इश्क़िया शायरी की और इस मामले में आतिश, द़ाग और ग़ालिब से भी आगे निकल गये। ‘शाद’ उस शम्अ के कायल नहीं जो सरे-बाज़ार जलती है। जो शम्अ हुआ करती है रोशन सरे-बाज़ार। उस शम्अ पै गिरता नहीं परवाना हमारा।। फ़लसफ़े और तसव्वुफ के कलाम में भी शाद बहुत आगे थे। इंसान को काम तो अपने हाथों ही से करना होता है और खुदा उसी का मददगार है जिसने हिम्मत की और कोई काम किया। इस बात को सागरो-मीना पर ढाल कर उनकी पेशकश काबिले तारीफ है। यह बज़्मे-मै है याँ कोताह-दस्ती2 में है महरूमी3। जो बढ़कर खुद उठा ले हाथ में मीना उसीका है।। (यह संसार एक मैख़ाना है, यहां हाथ खींच लेने से आदमी महरूम रह जाता है, पैमाना उसी के हाथ आता है जो हाथ बढ़ाकर उसे उठा लेता है।) यहां जो कुछ भी करना है कर लो और जब तक समर्थ हो उससे पहले ही करलो, इस बात को किस अन्दाज में कहा गया है देखिये- क्या गलत ज़ोम4 है बाद अपने किसे गम अपना। हाथ काबू में है करले आज ही मातम अपना।। शिकस्त मिलने पर निराश न होकर कोशिश करते रहने से अन्त में सफलता मिल ही जाती है। इस बात को कुछ यूं कहा कि- यह मुमकिन है कि लिक्खी हो, कलम ने फतेह आखिर में। जो हैं अरबाबे-हिम्मत5 गम नहीं करते शिकस्तों में।। इच्छा ही मनुष्य के दुःख और पतन का कारण है अन्यथा इंसान एक अनमोल नगीना है। इस बात को कहने का अंदाज देखिये- बशर के दिल में न पड़ता जो आरजू का द़ाग। खुदा गवाह कि अनमोल ये नगीं होता।। 1. अक्सीर- राम बाण औषधी; 2. कोताह दस्ती- हाथ खींच लेना; 3. महरूमी- वंचित होना (गैर हासिली); 4. जोम- घमण्ड; 5. अरबाबे हिम्मत- हिम्मत रखने वाले। ‘शाद’ के दीवान ‘मैख़ानये-इलहाम’ के चुनिदां अशआर पेशे-खिदमत हैं‒ कहां है उसका कूचा कौन है वह ? क्या ख़बर कासिद। पर इतना जानते हैं नाम है आशिक-नवाज़ उसका।। न छोड़े जुस्तजू1 ये यार खिज़रे-शौक2 से कह दो। किसी दिन खुद लगा लेगी पता उम्रे-दराज़3 उसका।। अगर मरते हुए लब पर न तेरा नाम आयेगा। तो मैं मरने से दरगुज़रा4 मेरे किस काम आयेगा।। शबे-हिज्रँ की सख़्ती हो तो लेकिन ये क्या कम है। कि लब पर रात भर रह रह के तेरा नाम आयेगा।। हर निवाला अब तो उसका तल्ख़5 है। उम्र नेमत6 थी मगर जी भर गया।। जिस गली में था वहां थी क्या कमी। ऐ गदा क्यों मांगने दर-दर गया।। हमारे जख़्मे-दिल ने दिल्लगी अच्छी निकाली है। छुपाये से तो छुप जाना मगर नासूर हो जाना।। ख़याले-वस्ल को अब आरजू झूला झुलाती है। करीब आना दिले-मायूस के फिर दूर हो जाना।। शबे-वस्ल अपनी आंखों ने अज़ब अंधेर देखा है। नक़ाब उनका उलटना रात का काफ़ूर हो जाना।। किबला क्या अदांज पाया है ‘शाद’ साहब ने जरा गौर फरमायें‒ मुहं पै आशिक के मुहब्बत की शिकायत नासेह। बात करने का भी नादाँ न क़रीना7 आया।। आ गया था जो ख़राबात8 में पी लेनी थी। तुझको सुहबत का भी ज़ाहिद न करीना आया।। अब ज़रा इस गज़ल पर भी गौर फरमाएं- सुबू9 अपना अपना है, जाम अपना अपना। किये जाओ मयख़्वार काम अपना अपना।। न फिर हम, न अफ़सानागो-ऐ-शबे-ग़म। सहर तक है किस्सा तमाम अपना-अपना।। 1. जुस्तजू- तलाश, खोज; 2. खिज़रे शौक- रहनुमा को ढूंढ़ने का प्रयास करने वाले; 3. उम्रे दराज- लम्बी आयु; 4. दरगुजरा- बाज आना; 5. तल्ख़- कडुवा, अप्रिय; 6. नेमत- बख़्शीश; 7. करीना- सही तरीका, सलीका, शऊर; 8. खराबात- खराब काम करने की जगह; 9. सुबू - मटका, खुम। जिनाँ1 में है जाहिद, तेरे दर पै हम हैं। महल अपना-अपना मुकाम अपना अपना।। हुबाबों2 ! हम अपनी कहें या तुम्हारी। बस एक दम के दम है क़याम3 अपना अपना।। कहां निकहते-गुल4 कहां बू-ए-गेसू5। दमाग अपना अपना मशाम6 अपना अपना।। ख़राबात में मयकशों ! आ के चुन लो। नबी7 अपना अपना इमाम8 अपना अपना।। खुदा के कमाल को आदमी अगर तो समझ ही नहीं पाता है और फिर जो जितना समझ पाता है उतना ही हैरान हो जाता है। अपनी अपनी समझ तो सभी रखते हैं पर उसके सारे राज़ आज तक कोई भी खोल नहीं पाया। इस भावना को क्या खूब कहा है- तेरे कमाल की हद कब कोई बशर समझा। उसी कदर उसे हैरत है, जो जिस कदर समझा।। कभी न बैठे बन्दे-कबा9 खोल कर एक दिन। गरीब खाने को तुमने न अपना घर समझा।। पयामे-वस्ल का मजमून बहुत है पेचीदा। कई तरह इसी मतलब को नामाबर समझा।। न खुल सका तेरी बातों का एक से मतलब। मगर समझने को अपनी सी हर बशर समझा।। चाहे मन्दिर हो मयख़ाना हो या मस्जिद हम तो सिर्फ खुदा के तलबगार हैं। हमें न तो मुसल्ले10 की जरूरत है न मस्जिद की या उस जगहँ जाने की जहाँ से फतवे11 जारी हों। हम तो जिस जगह तुम्हें याद करलें वहीं मस्जिद समझ लेते हैं। इस बात का खुलासा करते हुए उन्होंने लिखा कि- बुतकदा है कि ख़राबात है या मस्जिद है। हम तो सिर्फ आपके तालिब12 हैं खुदा शाहिद13 है।। न मुसल्ले की जरूरत न मिम्बर दरकरार। जिस जगह याद करें तुझको वहीं मस्जिद है।। 1. जिनाँ- जन्नत; 2. हुबाब- पानी का बुलबुला; 3. कयाम- ठिकाना, मुकाम; 4. निकहते गुल- फूलों की सुगंध; 5. बू ए गेसू- बालों की खूशबू; 6. मशाम- सोच; 7. नबी- पैगम्बर; 8. इमाम- मार्ग दर्शक, पुरोहित; 9. बन्दे कबा- चोगे की डोरी; 10. मुसल्ला-नमाज पढ़ने की जगहँ; 11. फतवा- धार्मिक आदेश; 12. तालिब- चाहने वाला; 13. शाहिद- गवाह, साक्षी। अब चन्द और यादगार अशआर लिखके ‘शाद’ साहब से रूख़सत लूँगा। निकालें बहरे-ग़म1 से डूबतों को यह कहाँ हिम्मत। खुद अपने हाथ से अपना डुबोना हम को आता है।। निचौड़ें बैठकर, फिर खुश्क़ करलें, यह नहीं आता। जहाँ बैठें वहाँ दामन भिगोना हम को आता है।। (हमें ग़मजदों के ग़म को मिटाना नहीं आता अपितु खुद को ग़म में डुबो लेने में जरूर महारत है। किसी के अश्क़ हम क्या सुखायेंगे हम तो खुद अश्क़ों से दामन भिगोते रहते हैं।) इतना भी मैकेशों को नहीं मैकेशी में होश। हदसे अगर सिवा हो तो पीना हराम है।। (अति सर्वत्र वर्जयेत के नियम का खुलासा मैकश और मैकशी पर तंज करके किया है।) आदमी की रूह एक मुसाफ़िर है और उसका शरीर एक सराय। रूह इस तन जिसका नाम ‘शाद’ है में बतौर महमाँ रहकर जब चलने लगी तो हाय! कह कर बोली कि अब दुबारा इस घर में नहीं आयेंगे अगर इस का नाम ‘शाद’ हुआ। महमाँ सराये-तन से चली रूह कह के हाय ! इस घर में अब न आयेंगे गर ‘शाद’ नाम है।। अपने पर इस तरह का व्यंग बस केवल ‘शाद’ के ही बस की बात थी। मरने के बाद भी उनकी यह आरजू थी कि जलवा गाह में जाकर हज़ार आंखों से उसका नूर देखें। यह आरज़ू है तेरी जलवागाह2 में जाकर। हज़ार आँखें हों और सब से यार हम देखें।। * 1. बहरे गम - गम का सागर; 2. जलवा गाह- रहने और दिखने की जगह, मकान।