हकीम मुहम्मद मोमिन खान ‘मोमिन’ हकीम मुहम्मद मोमिन खान ‘मोमिन’ दिल्ली में पैदा हुए और उन्होंने अरबी तथा फ़ारसी की तालीम हासिल की। वे हिकमत, नज़टम1 तथा रमल2 के भी जानकार थे। उन्होंने शाह नसीर की शागिर्दी की और नासिख से भी थोड़े प्रभावित रहे। मोमिन जितनी अच्छी गज़लें बनाते थे पढ़ते भी उतने ही अच्छे अंदाज से थे। मोमिन एक ख़ालिस कलाकार थे। किसी की प्रशंसा में कसीदे कहना या किसी पर तंज करते हुए हिजो कहना उनकी तबियत के बिल्कुल ही ख़िलाफ था। इसीलिए वह नौकरी के फंदे से सदैव मुक्त रहे। मोमिन को मुफ़लिसी की परीक्षा से भी नहीं गुज़रना पड़ा। गज़ल उनकी शायरी की विशेषता थी और उसमें वे तसव्वुफ और फलसफ़े की जगह इन्सानी मुहब्बत को अहमियत देते थे। वे मुआमलात बन्दी के शायर थे और आशिक़ तथा माशूक़ के प्रेम संबंधों का वर्णन उन्होंने बहुत ही नफ़ासत3 से किया है। इस बात के उदाहरण के लिए उनके चंद शेर पेशे-ख़िदमत हैं। आग अश्के-गरम को लगे जी क्या ही जल गया। आँसू जो पूछे उसने शब और हाथ जल गया।। (मेरे गर्म आँसुओं को आग लगे क्योंकि कल रात उनको पोंछने में मेरी माशूक के हाथ जल गये।) उस कूचे की हवा थी कि मेरी ही आह थी। कोई तो दिल की आग पे पंखा सा झल गया।। (यह मेरी आह थी या उसके घर की हवा जिससे मेरे दिल की आग को भड़का दिया) ये नातवाँ4 हूँ कि हूँ और नज़र नहीं आता। मेरा भी हाल हुआ, तेरी ही कमर सा।। 1. नजूम- ज्योतिष; 2. रमल- पासे फैंक कर भविष्य जानना; 3. नफ़ासत- उम्दगी, सफाई; 4. नातवाँ- कमजोर। (मेरी नज़ाकत इतनी बढ़ गई है उसके प्रेम में कि माशूक की कमर की तरह पतला हो गया हूं।) क्यों उम्मीदे-वफ़ा से हो तसल्ली दिल को। फ़िक्र है यह कि वह वादे से पशेमाँ1 होगा।। (माशूक के इश्क की स्वीकृति और उसके वादे से दिल को तसल्ली तो कम और यह फ़िक्र ज्यादा है कि उसको इससे कोई पछतावा नहीं हो।) बात करने में रक़ीबों से अभी टूट गया। दिल भी शायद उसी बद-अहद2 का पैमाँ होगा।। (माशूक के रकीबों से बात करने से उसका अहद टूटा और आशिक का दिल टूटा क्योंकि वो भी माशूक के अहद ही की तरह कमजोर था।) मुए न इश्क में जब तक वोह महरबाँ न हुआ। बलाए जाँ है वोह दिल जो बलाएजाँ न हुआ।। (वह जीवन किस काम का जो किसी पे निसार न हो। ऐसी जिन्दगी को ढोना एक मुसीबत है।) उनका इश्क़ हक़ीक़ी इश्क़ जैसा ही मुबारक था एक कतआ पेशे-ख़िदमत है- दमे-हिसाब रहा, रोजे-हश्र3 यह ही ज़िक्र। हमारे इश्क़ का चर्चा कहाँ कहाँ न हुआ।। उमीदे-वायदे-दीदारे हश्र पर ‘मोमिन’। तू बेमज़ा था कि हसरते बुताँ न हुआ।। (मोमिन इस कदर उदास था कि हश्र के समय मिलने के वायदे पर डटा रहा, संसार में माशूक की चाहत पाने की कोशिश न की।) लेकिन बाज़ अशआर ऐसे भी हैं जिनसे बाज़ारी इश्क भी टपकता है। गौर फर्माइये- माशूक से भी हमने निभाई बराबरी। वाँ लुत्फ कम हुआ तो यहाँ प्यार कम हुआ।। (माशूक का लुत्फ कम होने के साथ-साथ मेरा इश्क़ भी कमजोर हो गया।) आये गज़ालचश्म4 सदा मेरे दाम में। सैयाद5 ही रहा मैं, गिरफ़्तार कम हुआ।। (मेरे जाल में सदा हिरणी जैसे नयनों वाले माशूक ही फँसे, मैं खुद कभी गिरफ़्तार न हुआ।) 1. पशेमाँ- शर्मिन्दा; 2. बद अहद- दगाबाज़; 3. रोजे हश्र- कयामत के रोज; 4. गज़ाल चश्म- हिरनी सी आँखों वाले; 5. सैय्याद- शिकारी (माशूक)। यानि न केवल मोमिन का माशूक बाज़ारी रहा बल्कि उनका आशिक़ भी बाज़ारी हुआ और इश्क भी। वादा-ए-वसलत1 से हो दिल शाद2 क्या ? तुमसे दुश्मन की मुबारक बाद क्या ? मैं असीर3 उसका जो है अपना असीर। हम न समझें सैद4 क्या सैयाद क्या ? (जो मेरे इश्क़ में कैद हैं मैं भी उसी का कैदी हूँ। मैं नहीं जानता कि कौन सैद है और कौन सैयाद।) तो ज्यादातर उन्होंने पाक इश्क़िया शायरी कही लेकिन कभी-कभी ज़माने के दौर में बाज़ारी इश्क़ की शायरी भी की। एक और शेर पेश है- वो आये हैं पेशमाँ लाश पर अब, तुझे ए जिन्दगी लाऊँ कहाँ से। जहाँ से तंगतर जन्नत न हो जाय, बहुत हसरत भरा जाता हूँ याँ से।। आख़िर में उनकी एक बेहतरीन गज़ल पेशे-ख़िदमत है - वोह जो हम में तुम में करार था, तुम्हे याद हो कि न याद हो। वही वादा यानी निबाह का, तुम्हें याद हो कि न याद हो।। वोह नये गिले वो शिकायतें, वो मज़े मज़े की हिकायतें5। वोह हरेक बात पै रूठना, तुम्हें याद हो कि न याद हो।। कभी बैठे बज़्म में रूबरू, तो इशारों से ही गुफ़्तगू6। वो बयान शौक़ का बरमला7, तुम्हें याद हो कि न याद हो।। कोई बात गर ऐसी हुई कि, तुम्हारे जी को बुरी लगी। तो बयाँ से पहले ही भूलना, तुम्हें याद हो कि न याद हो।। कभी हममें तुममे भी चाह थी, कभी हमसे तुमसे राह थी। कभी हम भी तुम भी थे आशना, तुम्हें याद हो कि न याद हो।। वोह बिगड़ना वस्ल की रात का, वोह न मानना किसी बात का। वोह नहीं नहीं की हर अदा, तुम्हें याद हो कि न याद हो।। अब चन्द और बेहतरीन शेर पेश कर के मोमिन साहब से रूख़सत लेता हूँ- है निगाहें-लुत्फ़ दुश्मन पर तो बंदा जाय है। यह सितम ऐ बे-मुरव्वत8 किससे देखा जाये है।। ग़ैर के हमराह वोह आता है, मैं हैरान हूँ। जिसके इस्तक़बाल9 को जी मेरा तन से जाय है।। 1. वादा ए वसलत- मिलने का वादा; 2. शाद- खुश, प्रसन्न; 3. असीर- गुलाम, कैदी; 4. सैद- शिकार होने वाला; 5. हिकायतें- दास्तानें, बातें; 6. गुफ्तगू- बातचीत; 7. बरमला- मुँह दर मुँह; 8. बे मुरव्वत- जिसे कोई लगाव न हो; 9. इस्तकबाल - स्वागत। बुलहविस1 और लाफेजाँ बाज़ी2, खेल कैसा समझ लिया है इश्क़। क़हर है, मौत है, क़जा है इश्क़, सच तो यह है, बुरी बला है इश्क़।। जो पहले दिन ही से दिल का कहा न करते हम। तो अब यह लोगों की बातें सुना न करते हम।। अगर न आँख त़ग़ाफुल शआर3 से लगती। तो बैठे बैठे यूं चौंक उठा न करते हम।। अगर न हँसना हँसाना किसी का भा जाता। तो बात-बात पै यूँ रो दिया न करते हम।। कूद कर घर में तो पहुँचा मैं तेरे, पर क्या करूँ। दम निकल जाता था खटके से, बराबर रात को।। याद दिलवाई तपिश4 ने तेरी शोखी5 वस्ल की। मर गये हम देखकर चीं हाये बिस्तर रात को।। हम समझतें हैं आज़माने को। उज़्र कुछ चाहिए सताने को।। संगेदर6 से तेरी निकाली आग हमने। दुश्मन का घर जलाने को।। रोज़े-महशर7 भी होश गर आया। जायेंगे हम शराब खाने को।। मुझपै बादे-इम्तहाँ8 भी ज़ोर कम क्यों कर करे ? वोह सताए गैर को ऐसा सितम क्यों कर करे ? है दोस्ती तो जानिबे-दुश्मन9 न देखना। जादू भरा हुआ है तुम्हारी निगाह में।। देखते ही गुल, नज़र में तेरा हँसना फिर गया। आतिशे-गुल10 ने लगाई, आग ऐ गुलरू11! हमें।। क्या असर था अश्क़े-दुश्मन में जो कूए-यार से। मारे ग़ैरत के बहाकर ले चले आँसू, हमें।। * 1. बुलहविस- कामेच्छा; 2. लाफेजाँ बाजी- डींगे मारना, शेखी बघारना; 3. शआर- आदत, अभ्यास; 4. तपिश- गर्मी; 5. शोखी- चंचलता; 6. संगेदर- घर का पत्थर; 7. रोजे महशर- कयामत के रोज; 8. बादे इम्तहाँ- परीक्षा के बाद; 9. जानिबे दुश्मन- दुश्मन की तरफ; 10. आतिशे गुल- गुलों की चिंगारी; 11. गुलरू - फूलों से रूख वाले।