असग़र हुसैन ‘असग़र’ गौंडवी असग़र हुसैन ‘असग़र’ गौण्डा के बाशिन्दे थे और सन् 1884 ई. में पैदा हुये। इनका सन् 1936 में इंतकाल हुआ। यूं तो आपको उर्दू, फारसी और अरबी का अच्छा ज्ञान था परन्तु व्यवस्थित तालीम हासिल करना आपके नसीब में न था। आपने दो दीवान शेरों और गज़लों के लिखे जिनके नाम थे- ‘निशाते-रूह’ और ‘सरोदे-जिन्दगी’। कुछ पत्रिकाओं के सम्पादन का काम लाहौर और लखनऊ में किया। लेकिन रोजी रोटी के लिए चश्मों का कारोबार भी किया। उस समय ‘दाग’ और ‘अमीर-मीनाई’ की तूती बोलती थी और गज़ल-गोई पुराने दिनों की बात हो चली थी लेकिन आपने गज़ल को ही अपना माघ्यम चुना और उसकी काया को बदलने की भरपूर कोशिश की। आपने जो कुछ भी कहा गहरी समझ बूझ के साथ कहा। गज़ल तो प्रेम के प्रकटन का ही माघ्यम है। ‘असगर’ का इश्क़ पाक इश्क़ है और उनका माशूक़ भी पाकीज़ा हैं। उनके इश्क़ में कहीं पर भी कोई बाज़ारूपन नहीं दिखता। वे प्रेम को छुपाने के हिमायती भी नहीं है बल्कि स्पष्ट कहते हैं कि यही इश्क़ मेरे जीवन की आरजू है, कमाई है और मंजिल है। इश्क़ ही सअई1 मेरी, इश्क़ ही हासिल2 मेरा। यही मंजिल है मेरी, यही जाद-ए-मंजिल3 मेरा।। यह इश्क कभी-कभी इश्के-हक़ीक़ी नज़र आने लगता है क्योंकि माशूक खुदा नजर आता है और माशूक का कूचा मंदिर और मस्जिद दोनों से ज्यादा प्यारा नज़र आता है। दैर-ओ-हरम भी कूचए-जानाँ में आये थे। पर शुक्र है कि बढ़ गये दामन बचाके हम।। ऐसे इश्क़ में आशिक के लिए वस्ल (मिलन) और हिज्र (जुदाई) दोनों में कोई फर्क नहीं रह जाता, वह इन सब से ऊपर उठ जाता है। 1. सअई- कोशिश; 2. हासिल- नतीजा; 3. जाद ए मंजिल- मंजिल तय करने का साधन। क्या दर्दे-हिज्र और क्या लज़्ज़ते-विसाल। उससे भी कुछ बुलन्द मिली है नज़र मुझे।। ऐसे आशिक का सर जहाँ सजदे के लिए झुकता है वहीं पर ‘काबा’ बन जाता है। नियाजे-इश्क1 को समझा है क्या ऐ वाइजे-नादाँ। हजारों बन गये काबे जहाँ मैंने जबीं रख दी।। इस इश्क़ में आशिक और माशूक दोनों की जुदा सख्शियतें नहीं रहती, मिल जाती हैं और दुनिया का तो वजूद ही खत्म हो जाता है। अब न यह मेरी ज़ात है, अब न ये कायनात2 है। मैंने नवाये-इश्क़3 को साज़ से यूं मिला दिया।। इश्क़ की इंतिहा की यही मंजिल ‘असगर’ के इन शेरों में भी देखी जा सकती है। मेरे मजाज़े-शौक4 का इसमें भरा है रंग। मैं खुद को देखता हूँ, कि तस्वीरे-यार को।। जहान है कि नहीं जिस्मो-जान है कि नहीं। वोह देखता है मुझे, मैं उसको देखता हूँ।। अब न कहीं निगाह है, अब न कोई निगाह में। महव5 खड़ा हूँ मैं हुस्न की जलवागाह में।। अब मुझे खुद भी नहीं होता है कोई इम्तियाज़6। मिट गया हूँ इस तरह मैं उस नक़्शे-पा के सामने।। जूनूने-इश्क़ में हस्ती-ए-आलम पै नज़र कैसी ? रूखे-लैला को क्या देखेंगें महमिल7 देखने वाले।। नज़र में वो गुल समा गया है, तमाम हस्ती पै छा गया है। चमन में हूँ या क़फ़स में हूँ मैं, मुझे इसकी अब खबर नहीं है।। असगर ने माशूक के हुस्न की तारीफ भी की है तो कुछ ऐसे कि उसमें जरा भी बाजारूपन या हल्कापन न आ पाये जरा बानगी देखिये- तुम सामने क्या आये, इक तरफा बहार आई। आँखों ने मेरी गोया फ़िरदौसे-नज़र8 देखा।। 1. नियाजे इश्क़- इश्क की सफलता; 2. कायनात- सृष्टि, संसार; 3. नवाये इश्क- इश्क की लय (आवाज़); 4. मजाजे शौक- इश्क की सामर्थ्य; 5. महव- खोया हुआ; 6. इम्तियाज- अंतर, फर्क; 7. महमिल- ऊँट का हौदा; 8. फिरदौसे नज़र- स्वर्ग सी नज़र। उठ्ठे अज़ब अन्दाज़ से वो ज़ोशे-गज़ब में। चढ़ता हुआ इक हुस्न का दरिया नज़र आया।। यूं मुस्कुराये जान सी कलियों में पड़ गई। यूं लब-कुशां हुए कि गुलिस्ताँ बना दिया।। मैं इज़्तराबे-शौक1 कहूँ या जमाले-दोस्त। इक बर्क़ है जो कौंद रही है नक़ाब में।। अगर खामोश रहूँ मैं तो तूँ ही सब कुछ है। जो कुछ कहा तो तेरा हुस्न हो गया महदूद2।। महबूब से मिल कर प्यास बुझाने को भी वे बुल हविस मानते हैं और माशूक की खोज में भटकते रहने को ही जिन्दगी का सार मानते हैं। यह होता है ‘निष्काम-प्रेम’- मैं बुल-हविस नहीं कि बुझाऊँगा तिश्नगी3। मेरे लिये तो उठती हैं मौजें मृग तृष्णा की।। और अगर एक बार जलवा अफरोज़ हो गया तो फिर किसी को देखने की इच्छा नहीं रखते अपनी नज़रें ही सुपुर्द कर देंगे उसे- अब तो यह तमन्ना है कि किसी को भी ना देखूँ। सूरत जो दिखा दी है तो ले जाओ नज़र भी।। कोई कहे कि मैं शायर हूँ और सागरो-मीना की बात न करे तो क्या आपको यकीं आयेगा उसकी बात पर। शर्तिया तौर पर आप कहेंगे कि नहीं। तो ‘असगर’ साहब क्यूँ शायरी का अपवाद बनते। एक शेर मुलाहिजा फर्माईये- रहा जो होश तो रिन्दी और मैकशी क्या है। ज़रा ख़बर जो हुई तो फिर वोह आग ही क्या है।। और शेखो-जाहिद का जिक्र भी देखिये- न होगा काविशे-बेमुद्दआ4 का राजदाँ बरसों। वोह जाहिद जो रहा सरगुश्तए-सूदो-ज़ियाँ5 बरसों।। (जाहिद तो बरसों से हूरों की अभिलाषा में नमाज, रोज़े का पाबन्द रहा है। ऐसा भला चाहने वाला और फायदा-नुकसान देखने वाला सच्चे और निस्वार्थ प्रेेम (भक्ति) को क्या जानें।) सनम-कदे में तजल्ली6 की ताब मुश्किल है। हरम में शेख को महवे-नमाज़ रहने दे।। 1. इज़्तराबे शौक- इश्क की बेचैनी; 2. महदूद- सीमित; 3. तिश्नगी- प्यास; 4. काविशे बेमुद्दा- बिना मुद्दे की तलाश; 5. सरगुश्तए सूदो ज़ियाँ- नफा नुकसान की तलाश में रहने वाला; 6. तजल्ली- रोशनी, नूर। (सनम के घर में तो उनके वजूद की चमक असहनीय है। शेख को तो मस्जिद ही में नमाज़ पढ़ना उचित रहेगा।) अब ‘असगर’ साहब के तसव्वुफ और फ़लसफे के अन्दाज देखिये- फ़ित्ना-सामानियों1 की खू2 न करे। मुख़्तसर ये कि आरजू न करे।। पहले हस्ती की तलाश जरूर करे। फिर जो गुम हो तो ज़ुस्तज़़ू न करे।। मावराये-सुख़न3 भी है कुछ बात। बात यह है कि गुफ़्तगू न करे।। (संसार की वस्तुओं की इच्छा मत करो। अपने अस्तित्व को जरूर खोजो परन्तु जो खो गया है उसे भूल जाओ उसके पीछे समय व्यर्थ न करो। चुप रहना भी एक मुश्किल काम है। दम तो इसमें है कि अधिक बात न करो।) उसकी राह में मिटकर बेनियाज़े-ख़लकत4 बन जा। हुस्न पर फ़िदा हो कर हुस्न की अदा बन जा।। तू है जब पयाम उसका फिर पयाम क्या तेरा। तू है जब सदा उसकी, आप बेसदा हो जा।। आदमी नहीं सुनता आदमी की बातों को। पैकर-अमल बन कर ग़ैब की सदा हो जा।। तलब कैसी? कहाँ का सूदो-हासिल कैफ़े-मस्ती में। दुआ तक भूल जाते हैं, मुद्दआ इतना हसीं होता।। (इच्छा कैसी और हिसाब-किताब कैसा, आदमी आत्म लीनता में तो दुआ के लिये हाथ उठाना भी भूल जाता है अपने ध्येय को पाने के लिये।) चला जाता हूँ हँसता-खेलता मौज़े-हवादस5 से। अगर आसानियाँ हों जिन्दगी दुश्वार हो जाये।। (अगर जिन्दगी में हवादिस न हों उतार चढ़ाव न हों तो उसका मज़ा ही न रहे। अगर डगर आसान हो तो उसका कटना मुश्किल हो जाता है।) (सारे रंग देखने के बाद अब असगर साहब के चन्द अशआर जो यादगार बन गये हैं पेशे-खिदमत हैं-) 1. फ़ित्ना सामानियों- अशांति के साधन; 2. खू- इच्छा, आदत; 3. मावराये सुखन- चुप रहना, जब्त करना; 4. बेनियाजे खलकत- वैराग्य, एकान्तवास; 5. मौजे हवादस- बुरी घटनाओं की लहरें। मेरी वहशत पै बहस-आराइयाँ1 अच्छी नहीं नासेह। बहुत से बाँध रखे हैं गरेबाँ मैंने दामन में।। इलाही कौन समझे मेरी आशुफ़्ता-मिज़ाज़ी2 को। कफ़स में चैन आता है, न राहत है नशेमन में।। तुम बाख़बर हो चाहने वालों के हाल से। सबकी नज़र का राज तुम्हारी नज़र में है।। मुझको जला के गुलशने-हस्ती न फूंक दे। वोह आग जो दबी हुई मुझ मुश्ते-पर3 में हैं।। मरते-मरते न कोई आक़िलो-फ़रज़ाना4 बने। होश रखता हो जो इन्सान तो दीवाना बने।। कार फ़रमा है फ़क़त हुस्न का नैरंगे-कमाल5। चाहे वो शम्अ बने, चाहे वो परवाना बने।। ऐसा कि बुतकदे का जिसे राज हो सुपुर्द। अहले-हरम में कोई न आया नज़र मुझे।। गो नहीं रहता कभी परदे में राजे-आशिक़ी। तुमने छुपाकर और भी उसको नुमाया6 कर दिया।। वोह शोखियों से ज़लवा दिखाकर तो चल दिये। उनकी ख़बर को जाऊँ कि अपनी ख़बर को मैं।। होता है राजे-इश्क़ो-मुहब्बत उन्हीं से फ़ाश7। आँखें जबाँ नहीं हैं मगर बेजबाँ नहीं।। यह इश्क ने देखा है यह अक्ल से पिन्हा8 है। क़तरे में समन्दर है जर्रे में बयाबाँ है।। घोखा है ये नज़रों का, बाज़ीचा9 है लज़्जत का। जो कुंजे-कफ़स10 में था, वोह अस्ल गुलिस्ताँ है।। समा गये मेरी नज़रों में छा गये दिल पर। ख़याल करता हूँ, उनको कि देखता हूँ मैं।। न कामयाब हुआ और न रह गया महरूम। बड़ा गज़ब है कि मंजिल पै खो गया हूँ मैं।। 1. बहस आराईयाँ- बहसबाजी; 2. आशुफ़्ता मिज़ाज़ी- परेशान रहने वाला मिज़ाज़; 3. मुश्ते पर- एक मुट्ठी पंखों वाला; 4. आकिलो फरजाना- बुद्धिमान और विद्यावान, गुणी; 5. नैरंगे कमाल- विलक्षण दक्षता/कपट, छल; 6. नुमाया- उज़ागर; 7. फाश- खुलना; 8. पिन्हा- छुपे हुए; 9. बाज़ीचा- कौतुक, खिलौना; 10. कुंजे कफ़स- कैद खाना। चमन में छेड़ती है किस मज़े से गुंचओ-गुल को। मगर मौज़े-सबा की पाक दामनी नहीं जाती।। मह-ओ-अंजुम1 में भी अन्दाज़ हैं पेैमानों के। शब को दर बन्द नहीं होते हैं मैखानों के।। कभी हैं महवे-दीद2 ऐसे कि समझ बाकी नहीं रहती। कभी दीदार से महरूम है इतना समझते हैं।। यही थोड़ी सी मैं है और यही छोटा सा पैमाना। इसी से रिन्द राजे-गुम्बदे-मीना3 समझते हैं।। कभी तो जुस्तज़़ू जलवे को भी परदा बताती है। कभी हम शौक में परदे को भी जलवा समझते हैं।। यह जोै़क़े-दीद की शोखी, वोह अक्से-रंगे-महबूबी4। न जलवा है न परदा हम उसे तनहा समझते हैं।। इसी के साथ मैं ‘असगर’ गौंड़वी साहब को सलाम कह उनसे रूखसत लेता हूँ। * 1. मह ओ अंजुम- चाँद और तारों; 2. महवे दीद- देखने में रत; 3. राजे गुम्बदे मीना- सुराही के ऊपरी भाग का भेद; 4. अक्से रंगे महबूबी- प्रेम के रंग की छाया।