मिर्ज़ा मुहम्मद हादी ‘अज़ीज़’ मिर्ज़ा मुहम्मद हादी ‘अज़ीज़’ का जन्म लखनऊ में सन् 1882 में हुआ। आपकी शायरी मीर और गालिब के रंग में रंगी है लेकिन हर शेर से एक हसरत का इज़हार होता है जिसने उन्हें एक जुदा रंग दे दिया है। अज़ीज साहब ने सफ़ी-लख़नवी साहब से मश्वराए-सुखन हासिल किया और आपके शार्गिदों में से असर लख़नवी, ज़ोश मलीहा बादी, शेफ़्ता लख़नवी और कैफ़ी लख़नवी नामाचीन शायर हुए हैं। आपकी शायरी के दीवान का नाम है ‘गुलकदा’ जो 1936 में दुबारा प्रकाशित हुआ। आप सादगी पसन्द, बेतकल्लुफ और मिलनसार इंसान थे और अरबी, फ़ारसी दोनों की आपको पूरी तालीम हासिल थी। इनके कलाम की शुरूआत मैं एक बहुत खूबसूरत गज़ल से करूंगा। ख़याल तक भी उधार ऐ खुदा नहीं जाता। मरीज़े-ग़म का तसव्वुर किया नहीं जाता।। बयाने-हुरमते सहबा1 सही, मगर ऐ शेख़। तेरी जबान से उसका मज़ा नहीं जाता।। हर इक क़दम तेरे कूचे में एक आलम है। कहाँ तक अब मैं चल़ूंगा ? चला नहीं जाता।। हुजूमे-शौक़ का बस मुख्तसिर यह क़िस्सा है। कि जो मैं चाहता हूँ वह कहा नहीं जाता।। जबाँ बयान करे मुद्दआ-ए-दिल क्यों कर ? किसी का हाल किसी से कहा नहीं जाता।। वोह सरजमीं जहाँ पर है मज़ार मेरा। उधर से अब कोई दर्दे-आश्ना नहीं जाता।। हुस्न की तारीफ करने का आपका अंदाज बहुत ही सुन्दर बन पड़ता था। बानगी देखिये- क्या बताऊँ उसकी चश्मे-नाज़ का आलम ‘अज़ीज़’ ! मयकदे में हुस्न के छलका हुआ पैमाना था।। 1. बयाने हुरमते सहबा- मजहब की किताबों का बयान। नया-नया जो किसी शोख का शबाब आया। उठाके आईना देखा तो खुद हिजाब1 आया।। तमाम अंजुमने-वाज़2 हो गई बरहम। लिये हुए कोई यूं साग़रे-शराब3 आया।। अपने मरकज़4 की तरफ़ माइले-परवाज5 था हुस्न। भूलता ही नहीं आलम तेरी अँगड़ाई का।। उसकी शामे-ग़म पै सदक़े हो मेरी सुबहे-हयात6। जिसके मातम में तेरी जुल्फें परीशाँ हो गई।। इक खुदाई जान देने के लिये तैयार है। क्या क़यामत है कमर से बाँघना शमशीर का।। उनको सोते हुए देखा था दमे-सुबह कभी। क्या बताऊँ जो इन आँखों ने समाँ देखा है।। अँगड़ाई ले के किसने यह चटकाई उँगलियाँ। दो हिचकियों में ख़त्म जो बीमार हो गया।। निसार इस बचपने के और इस नाज़र्क दिमाग़ी के। सियाह बालों से अपने नींद में खुद आप डर जाना।। मुहब्बत की एक नज़र से आशिक माशूक की क्या हालत करता है इसका बयाँ देखिये- है मुहब्बत की नज़र में क्या मज़ा खुद देख लो। चार आँखें जब हुई तुमको हिजाब आ ही गया।। झेंपते क्यों हो, जो सर-ता-ब-कदम7 देखते हैं। यह कोई और नहीं है, तुम्हें हम देखते हैं।। और इश्क के बारे में अज़ीज़ लख़नवी साहब का फरमाना है कि- विसाले-दायमी8 क्या है ? शबे-फुरकत9 में मर जाना। क़ज़ा क्या है ? दिली जज़्बात का हद से गुज़र जाना।। हम उसी जिंदगी पै मरते हैं। जो यहाँ चैन से बसर न हुई।। दिल ने दुनिया नई बना डाली। और हमें आज तक ख़बर न हुई।। 1. हिजाब- लज़्ज़ा, शर्म; 2. अंजुमने वाज- वाज की महफ़िल, प्रवचन की सभा; 3. सागरे शराब- शराब का जाम; 4. मरकज़- लक्ष्य, केन्द्र; 5. माइले परवाज- उड़ने में मशगूल, व्यस्त; 6. सुबहे हयात- जिंदगी की सुबह; 7. सर ता ब कदम- सर से कदमों तक; 8. विसाले दायमी- हमेशा का मिलन; 9. शबे फुरकत- जुदाई की रात। इश्क में तड़पना और तड़प-तड़प कर मर जाना, लेकिन फिर भी माशूक से खफ़ा न होना। मौत आने तक माशूक का इंतजार करना और मरने के बाद भी माशूक रूसवा न हो जाय इस बात का ख़्याल रखना। इश्क की यह तहजीब होती है। और इन ख़यालों को बयाँ करने का हर शायर का एक जुदा तरीका होता है। अब आप अज़ीज़ साहब का बयाँ देखिये‒ खुदा का काम है यूं तो मरीजों को शफ़ा1 देना। मुनासिब2 हो तो इक दिन हाथ से अपने दवा देना।। मेरी मैयत पे किस दावे से वो कहते हुए आये। ‘हटा देना जरा इन रोने वालों को हटा देना।।’ कुछ इन्तिहा भी है ? लो बंद हो गई आँखें। निगाह ने काम दिया जब तक इंतजार किया।। कुछ इसमें मसलहते-ज़ौक़े-जिंदगी3 भी थी। ‘अज़ीज़’ वादे का उसके जो एतबार किया।। किसी ने नज़अ4 की इस तरह गुत्थियाँ सुलझाई। सिरहाने बैठ के हर साँस का शुमार किया।। सितम है लाश पर उस बेवफा का यह कहना। ‘कि आने का भी किसी के न इंतज़ार किया।।’ दिल की बेचैनी जरा देखे कोई इस बज़्म में। जब कोई आया तो मैं ज़ानू5 बदल कर रह गया।। जा चुके अहबाब रोकर उठ चुकी मातम की सफ़। आप तब आये कि जब खाली मेरा घर रह गया।। जो मैं जिंदा भी हो जाता तो फ़ुरक़त में मर जाता। वो आते थे तो उनको लाश पर आने दिया होता।। लहू रोती है चश्मे-इबरत6 इस बेदादे-गुलचीं7 पर। अभी फूलों को अपने रंग पर आने दिया होता।। 1. शफा- इलाज, तंदुरुस्ती; 2. मुनासिब- ठीक, दुरुस्त; 3. मसलहते जौके जिन्दगी- जिन्दगी की चाहत का भेद; 4. नज़अ- आखिरी सांस; 5. जानू- करवट; 6. चश्मे इबरत- खौफ की नज़र); 7. बेदादे गुलचीं- अत्याचारी फूल तोड़ने वाले। चुटकियाँ लेकर न पूछो दर्दे-दिल कुछ कम हुआ। जब हटाया हाथ तुमने फिर वही आलम हुआ।। मर गया था मैं नज़ाकत देख कर जिनकी अज़ीज़। हैफ़1 उन्हीं हाथों से महफ़िल में मेरा मातम हुआ।। फ़लसफे की बात करें तो भी अज़ीज़ साहब पीछे नहीं रहे। बानगी देखिये- जो यहाँ तल्लीन2 न हुआ। दूर उससे कभी खुदा न हुआ।। यूं ही घुट-घुट के मिट गया आखिर। उकदये दिल3 किसी को वा न हुआ।। (जो सांसारिक भोग विलासों में लिप्त न हुआ वो कभी खुदा से दूर नहीं होता। जो अपने दिल का भेद नहीं बताते और जज़्ब कर लेते हैं वो कभी रूसवा नहीं होते।) दैरो-काबे में फ़र्क क्या है अज़ीज़ ! सिर्फ पाबंदियाँ है मज़हब की।। (दैर यानि मंदिर और काबे के फ़र्क को केवल मज़हब की पाबन्दियाँ ही कायम रखती है वरना दोनों ही इबादत गाह ही है।) रब्ते-देरीना4 से है बाक़ी ताल्लुक फिर भी। लाख काबे से बनाये कोई बुतखाना जुदा।। अज़ीज़ साहब का मानना है कि जाहिद अगर हक़ीक़त की नज़र से देखे तो काबे की बुनियाद में भी उसे बुतखाना (मंदिर) ही नज़र आएगा‒ अभी हक़ीक़त की नज़र पहुँची नहीं तह तक जाहिद ! नज़र बुनियाद5 में काबे की इक बुतखाना6 आता है।। और- मंजरे-ज़ज़्बात7 है खिलवत सराये-दैर8 भी। काबे वालों ! फ़र्ज़ है तुम पर वहाँ की सैर भी।। ज़हन में आया नहीं फ़र्के-इम्तियाज़ी9 आज तक। मुद्दतों देखा है हमने काबा भी और दैर भी।। अब लख़नवी अंदाज का शायर हो तो जामो-मीना का जिक्र न होना मुमकिन नहीं। पर इनकी मैनोशी का अंदाज भी देखिये- 1. हैफ़- अफ़सोस; 2. तल्लीन- लिप्त; 3. उकदये दिल- दिल का भेद; 4. रब्ते देरीना- पुराना संबंध; 5. बुनियाद- नींव; 6. बुतखाना- मंदिर; 7. मंजरे जज़्बात- भावुक दृश्य; 8. खिलवत सराये दैर- मंदिर के एकांत में; 9. फ़र्के इम्तियाज़ी- विशेष अंतर। तमाम अंजुमने-वाज हो गई बरहम। लिये हुए यूं कोई सागरे-शराब आया।। यह कह के बज़्मे-नाज़ में इक जाम पी लिया। कब तक रखें उमीद शराबे-तहूर1 की।। होता नहीं है कोई जमाने में क्या जवाँ। अल्लाह कोई हद है तुम्हारे ग़रूर की।। अन्त में अज़ीज़ लख़नवी साहब के चन्द यादगार अशआर पेशे-खिदमत हैं- हूँ आलमे-हैरत2 में जीता हूँ न मरता हूँ। अब दिल की यह हालत है हँसते हुए डरता हूँ।। लाख आबादियाँ निसार3 इस पर। अल्लाह-अल्लाह यह किस की तुरबत4 है ?? जिस तरह चाहो दर से उठवा दो। एक बेकस5 की क्या हकीकत है।। कोई इस बेकसी6 से रोता है ? इश्क़ के दिल में दर्द होता है।। जिसके मरने की हो खुशी तुमको। ऐसी मैयत में कौन रोता है ?? यकीन है मुझे मुलाकात उससे हो जाये। तेरी तलाश में पहले जो आप खो जाये।। कहती है रूह ‘आई है जितनी कि हिचकियाँ। उतनी ही मैंने ठोकरें खाईं हैं राह में।।’ मर गया बीमारे-उल्फ़त उनसे इतना कह के बस। ‘‘जाइए अब आपसे कोई गिला बाकी नहीं’’।। पैदा वह बात कर कि तुझे रोएँ दूसरे। रोना ख़ुद अपने हाल पै यह जार-जार क्या ?? रूक जाये बात-बात पर जिस नातवाँ7 की साँस। ऐसे मरीज़े-ग़म का भला एतबार8 क्या ? 1. शराबे तहूर- जन्नत की शराब; 2. आलमे हैरत- असमंजस की स्थिति; 3. निसार- कुर्बान; 4. तुरबत- मैयत, कब्र; 5. बेकस- निस्सहाय, अक्षम; 6. बेकसी- अक्षमता, लाचारी 7. नातवाँ- हल्का, दुर्बल; 8. एतबार- विश्वास। हम तो दिल ही पर समझते थे बुतों का अख़्तियार1। नसबे-काबे में भी अब तक एक पत्थर रह गया।। मेरे रोने पै यह हँसी कैसी ? ऐ सितमगर ! यह दिल्लगी कैसी ? सारी ख़लकत2 हश्र में अपनी तमाशाई हुई। दाद-ख्वाही को गये थे उल्टी रूसवाई हुई।। खुदा जाने दिले-नाकाम का क्या हो ? हमारा देखिये अंजाम क्या हो ? ऐ सकूने-मौत ! कोई जागने की हद भी थी ? सुबहे-हिज्र आखिर मेरी आँखों में ख्वाब आ ही गया।। गिला किससे ? जब उसको इज़्तराबे-दिल3 पसन्द आया। खुदा ही को अज़ल से शेवये-बिस्मिल4 पसन्द आया।। रगे-जाँ5 ने वहीं की बढ़ के हिम्मत की क़दम-बोसी। जहाँ हमको ख़याले-दूरिये-मंजिल6 पसंद आया।। * 1. अख़्तियार- बस में होना; 2. ख़लकत- संसार, सृष्टि; 3. इज़्तराबे दिल- दिल का तड़पना; 4. शेवये बिस्मिल- घायल का तरीका; 5. रगे जाँ- मुख्य खून की नस/नली; 6. ख़याले दूरिये मंजिल- मंजिल की दूरी का ख़याल।