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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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7:36 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
यामीनुद्दीन अब्दुलहसन अमीर-खुसरो उर्दू शायरी के इतिहास को जानने हेतु सबसे पहले मैं हज़रत अमीर-खुसरो साहब को याद करना मुनासिब1 समझता हूँ। वे उर्दू शायरी के गणेश कहे जाने की क़ाब्लियत रखते हैं क्योंकि वे उस हिंदावी भाषा के जनक हैं जो एक हद तक उर्दू की माँ कही जा सकती है। हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज (चहमान) के पराभाव के बाद महमूद गज़नवी और मोहम्मद गौरी आदि मुस्लिम बादशाहों ने भारत में अपना राज स्थापित कर स्थाई रूप से यहाँ रहना शुरू कर दिया। रहन-सहन, ज्ञान और भाषा का तब आदान प्रदान होने लगा। काफ़ी समय तक इस आदान-प्रदान में दोनों तरफ से कंजूसी रही लेकिन दैनिक जीवन और राजकाज की मुश्किलों ने इसे आवश्यक बना दिया। अब एक ऐसी भाषा की कमी महसूस की जाने लगी जो दोनों पक्षों (विजेता और विजित) को आती हो। आख़िर में तेरहवीं सदी के अन्त में ख़िलजी वंश के शासन काल में (1290-1330) अमीर ख़ुसरो ने ऐसी एक मिली जुली भाषा का आविष्कार किया, जिसे उपयोग करने में सरलता रहती थी। इस भाषा का नाम उन्होंने ‘हिन्दावी’ रखा। संस्कृत और पाली की अपभ्रंश भाषा जो ‘नागरी’ के नाम से जानी जाती थी और खड़ी भाषा के नाम से बोल चाल में प्रयुक्त होती थी, उसमें अमीर ख़ुसरो ने फारसी और तुर्की शब्द मिला कर इस संगम का नाम ‘हिन्दावी’ रख दिया। मौलाना अबुल कलाम ‘आजाद’ के अनुसार ‘‘खुसरो ने फ़ारसी का नमक मिला के हिन्दी के जायक़े में एक अजीब लुत्फ़ पैदा कर दिया’’। अमीर ख़ुसरो ने 13 वीं शताब्दी ईस्वी में पटियाली जिला ‘एटा’ में जन्म लिया। वे ख़िलजी शासन में कई ओहदों पर फाइज़2 रहे और उनको ‘तूतिये-हिन्द’ के नाम से जाना जाता था। वे फ़ारसी के नामी शाइर थे और संगीत के भी अच्छे उस्ताद थे। उन्होंने कई पक्के रागों की ईजाद3 की और एक नये साज ‘सितार’ की भी ईजाद की जो ‘वीणा’ का सरल रूप कहा जा सकता है। इन्होंने हिन्दावी भाषा में भी कई गीत, 1. मुनासिब-उचित, योग्य; 2. फाइज़-पदासीन; 3. ईजाद-खोज, आविष्कार। कविताएँ, पहेलियाँ, मुकरनियाँ आदि लिखीं। दो मतलब वाले (दो सुख़ने) दोहे भी लिखे। इन सभी प्रकार की रचनाओं के कुछ उदाहरण पेश करता हूँ‒ पहेलियाँ‒ तरवर से इक तिरिया उतरी उसने बहुत रिझाया। बाप का उसके नाम जो पूछा, आधा नाम बताया।। आधा नाम पिता पर प्यारा बूझ पहेली मोरी। अमीर खुसरो यूं कहे अपना नाम न बोली।। फ़ारसी में ‘नीम’ शब्द का अर्थ है आधा और हिन्दी में नीम एक पेड़ का नाम है। यानी तरवर की इस तिरिया ने अपने बाप का नाम आधा अर्थात ‘नीम’ बताया। इसने जब अपना नाम न बोली बताया तो उत्तर स्पष्ट हो गया कि तरवर1 है नीम और उसकी तिरिया है निम्बोली। इस तरह अमीर-खुसरो की इन पहेलियों में उत्तर भी छिपा रहता था। दो और पहेलियाँ पेशे-खिदमत है- फार्सी बोली ‘आईना’, तुर्की सोच न पाईना। हिन्दी बोलते आरसी, आये मुँह देखे जो उसे बताये।। (आईना, दर्पण) बीसों का सर काट लिया। ना मारा ना खून किया।। (नाखून) मुकरनियाँ‒ सगरी रैन मोहि संग जागा, भोर मई तब बिछुड़न लागा। उसके बिछुड़त फाटे हिया, ए सखि ! ‘साजन’ ना सखि ! दिया।। (इसमें ‘साजन’ और ‘सखि’ शब्दों के बीच ‘ना’ शब्द डाल कर गफ़लत2 पैदा की गई है। यदि ‘ना’ शब्द को ‘साजन’ शब्द के साथ पढ़ा जाये तो सखि को जवाब मिल गया कि वह ‘दिया’ है जो रात भर साथ रहा!) सुख-सलोना सब गुन नीका, वा बिन सब जग लागे फीका। वाके सर पर होवे को न, ऐ सखि! ‘साजन‘ ना सखि ! ‘लोन’।। (प्राथमिक तौर पर तो उत्तर ‘साजन’ नज़र आता है परन्तु ना के साथ पढ़ते ही उत्तर स्पष्ट होता है कि यह ‘लोन’ यानि नमक है जिसके बिना सब फ़ीका लगता है।) वह आवे तब शादी होय, उस बिन दूजा और न कोय। मीठे लागे वाके बोल, ऐ सखि ! ‘साजन’ ना सखि ! ‘ढ़ोल’।। 1. तरवर-पेड़, तरू; 2. गफ़लत-गलतफहमी (साजन को ना शब्द के साथ पढ़ें तो फिर उत्तर स्पष्ट होता है कि जिसके बोल मीठे लगते हैं वह साजन नहीं है बल्कि ‘ढोल’ है।) दो सुखने‒ गोश्त1 क्यों न खाया, डोम क्यूं न गाया ? उत्तर-गला न था। अनार क्यों न चखा, वज़ीर क्यों न रखा ? उत्तर-दाना न था। जूता क्यों न पहना, समोसा क्यों न खाया ? उत्तर- तला न था। ब्राह्मण प्यासा क्यों, गधा उदासा क्यों ? उत्तर-लोटा न था। कुछ दो सुखने अमीर खुसरो साहब ने फारसी और उर्दू भाषा को मिला कर भी लिखे, जैसे :- तिश्नारा2 चमे बायद? मिलाप को क्या चाहिये- उत्तर-चाह (चाह का उर्दू अर्थ है प्यार और फारसी में अर्थ है कुआ।) सौदागर चमे बायद3? बूचे को क्या चाहिये? उत्तर-दो कान (एक अर्थ दुकान से है और दूसरा दो-कानों से।) शिकार चमे बायद? क़ुव्वते-मगज़4 को क्या चाहिये? उत्तर-बादाम (एक अर्थ है ‘जाल के साथ’ और दूसरा अर्थ है बादाम मेवा) अमीर खुसरो फिलबदी शायरी करते थे। एक बार मार्ग में जाते वक्त प्यास लगी तो कुए पर पहुँच गये और पनिहारियों को पानी पिलाने को कहा। पनिहारियाँ उन्हें पहचान गईं। चार औरतों ने अपना एक एक शब्द-खीर, चर्खा, कुत्ता और ढोल दिया और कहा कि चारों को मिला कर जब तक एक पहेली नहीं कही जायेगी तब तक पानी नहीं मिलेगा। आखिर खुसरो ने ख़ीज़कर कहा कि- ख़ीर पकाई जतन से, चरखा दिया जलाय। आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजा।। अमीर खुसरो साहब ने गीत भी बनाये और सामाजिक तथा प्राकृतिक विषयों पर बनाये। एक उदाहरण पेश है‒ अम्मा मेरे बाबा को भेजियो री कि सावन आया। बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री कि सावन आया।। अम्मा मेरे भाई को भेजियो री कि सावन आया। बेटी तेरा भाई तो बाला री कि सावन आया।। अम्मा मेरे मामा को भेजियो री कि सावन आया। बेटी तेरा मामा तो बाँका री कि सावन आया।। 1. गोश्त-माँस; 2. तिश्नारा-प्यासा; 3. चमे बायद-क्या चाहिए; 4. कुव्वते मगज-दिमागी ताकत। (इस गीत में परिणीताओं की पीहर जाने की उमंग और माँ की न बुला सकने की मजबूरी का सटीक बयान किया गया है।) अमीर खुसरो साहब की एक गज़ल भी नमूने के तौर पर पेश है‒ ज़हाले-मसकीं मकुन तगाफुल दरायै नैना बनाये बतियाँ। कि ताबे-हिजराँ नदारम ऐ जाँ ! न लेवो काहे लगाय छतियाँ।। (मेरी खराब हालत से बेखबर न रहो साजन अब तो आकर नयनों से बात करो। मुझमें अब और सहने की शक्ति नहीं मुझे आकर सीने से क्यूं नहीं लगाते।) शबाने-हिजराँ दराज़ चू जुल्फ़, बरोजे-वस्लत चूँ उम्र कोताह। सखी पिया को जो मैं न देखूं, तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ।। (विरह की रात जुल्फों के जैसे लम्बी होती है, और मिलन के दिन उम्र की तरह छोटे, हे सखि! पिया के बिना मैं अँधेरी रातों को कैसे काटूँगी।) यकायक अज दिल दो चश्मे-जादू, बसद फरेबं बबुर्द तस्कीं। किसे पड़ी है जो जा सुनावे, पियारे ‘पी’ को हमारी बतियाँ।। (एकाएक दो जादू भरी आँखों ने फरेब कर मेरे दिल की शान्ति छीन ली है। कौन है जो मेरी ये बात जा सजन को बताये।) चूँ शमअ सोजाँ, चूँ जर्रा हैराँ, जकहरे-आँमह बगुश्तम आखिर। न नींद नैना, न अंग चैना, न आप आवे, न भेजे पतियाँ।। (शम्अ की तरह जलती हूँ और जर्रे की तरह हैरान हूँ, उस चाँद से चेहरे की ज्यादतियों से मेरा बुरा हाल है। न आँखों में नींद है और न शरीर को चैन। न तो वह खुद आता है और न खत भेजता है।) बहक़्के-रोजे-विसाल दिलबर! कि दाद मारा फ़रेब खुसरो।। समीप मन के दराय राखूं जो जाय पाउँ पिया के खतियाँ।। (खुसरो कहता है कि सच बात तो ये है कि मुझे मेरे दिलबर ने मिलन के रोज़ धोखा दिया। यदि उसका कोई खत मिल जाये तो मैं प्रेम से उसे अपने मन में रख लूं।) अमीर खुसरो की एक बहुत ही प्रसिद्ध गज़ल है- छाप तिलक सब छीनी मो से नैना मिला के.......। ये आज तक भी बहुत लोकप्रिय है। अब खुसरो साहब के दो-तीन शेर पेश करता हूँ जो उनकी शायरी की बुलंदी के नमूनात है‒ चक़वा-चक़वी दो जनें इन मत मारो कोय। यह मारे कर तार के रैन-बिछावा होय।। गोरी सोवे सेज पर मुख पर डाले केस। चल ‘खुसरू’ घर आपने रैन भई चहुँ देस।। खुसरो’ रैन सुहाग की, जागी पी के संग। तन मेरो मन पीउ को दोऊ भये इकरंग।। *
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