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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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9:37 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
मुंशी अमीर अहमद ‘अमीर’ मीनाई मुंशी अमीर अहमद ‘अमीर’ नवाब नसीरूद्दीन के समय लखनऊ में पैदा हुए। इन्होंने नवाब मुजफ़्फ़र अली खां ‘असीर’ की शर्गिदी में शायरी की और बाद में इनके कारण ‘असीर’ का भी नाम चमका। यह रामपुर के नवाब के यहां मुलाजिम रहे। लख़नवी शायरों में ‘अमीर’ मीनाई साहब का दर्जा आतिश और नासिख के बाद आता है। मिर्ज़ा दाग इनके समकालीन थे। इन्होंने गजलें, कसीदे और मसनवी सभी लिखे। यह कभी असीर के अन्दाज में लिखते तो कभी दाग और दर्द के अंदाज में। व्यवहार से हरदिल अजीज और गैरतमंद1 इंसान थे। सबकी इज्जत का पूरा ख्याल करते थे। मिर्ज़ा दाग जो उसी समय जलवा-अफरोज़2 थे की गजलों को उन्होंने खूब इज्जत दी और सराहा। उनका एक दीवान ‘मिरातुलगैब’ और दूसरा ‘जौहरे-इन्तखाब’ था जो असीर तथा दर्द के रंग में कहे गये हैं। तीसरा दीवान ‘सनम खानये इश्क़’ अपने मुकाबले बाज मिर्ज़ा दाग के रंग में कहा गया। उनके खारजी रंग में लिखे चन्द अशआर पेश खिदमत हैं: आया न एक बार अयादत3 को वोह मसीह। सौ बार मैं फरेब4 से बीमार हो चुका।। जब आस्ताने-यार5 पै हाजिर हुए हैं हम। दरबां से ये सुना है कि दरबार हो चुका।। पछता रहे हैं खून मेरा करके क्यों हूजूर। अब इसपै खाक डालिये जो कुछ हुआ हुआ।। यह ज़ोफ-से-सुबह6 हूं कि नक्शे-कदम7 मेरा। पड़ता तो है जमीन पै लेकिन मिटा हुआ।। बोसा तलब किया तो कहने लगा वह बुत। कुदरत खुदा की तुमको भी यह हौसला हुआ।। 1. गैरतमंद- इज्जत आबरू वाले; 2. जलवा अफरोज- शोभित, विद्यमान; 3. अयादत- बीमार का हाल पूछने; 4. फरेब- धोखा, झूट; 5. आस्ताने यार- यार की चौखट; 6. जोफसे सुबह- इतना कमजोर; 7. नक्शे कदम- कदम का निशान। चमकी ये किस गरीब की सहरा में बर्केआह1। रहजन2 से डर के रहरवे-मंजिल3 लिपट गया।। लैला तो महमिले-दिले-मजनूं4 में थी मकीं5। दीवाना था जो देख के महमिल लिपट गया।। वो मस्त हूं नसीब मुझे तब कफ़न हुआ। जब रहन6 मयफरोश7 के धर पैरहन8 हुआ।। वाइज का था ख़्याल तो फ़स्ले-खिजां9 तलक। लो आ गई बहार, मैं तौबा-शिकन10 हुआ।। हया तो उसको बिठाये हजार पर्दों में, मगर जो बैठने दे शौक़ख़ुदनुमाई11 का। सम्भल के देखो अगर देखते हो आईना, फ़िसल ना जाय कहीं पांव ख़ुदनुमाई का।। अब चंद शेर तसव्वुफ के पेशे-खिदमत हैं- शेख काबे से गया उस तक, बिरहमन दैर से। एक थी दोनों की मंजिल, फ़र्क था कुछ राह का।। कुछ न समझे हो कि बूझे हो, वह क्या चीज है। नाम तुमने सुन लिया है, जाहिदों अल्लाह का।। है किश्वरे-अदम12 में खुदा जाने सैर क्या। आया न फिरके मंजिलेहस्ती13 से जो गया।। पीरी में आई मौत, जवानी गुज़र गई। जागा तमाम शब मैं, दमे-सुबह सो गया।। मातम किया किसी ने मेरा न तो क्या हुआ। अब्र14 आके खाके-गोर15 पै हर साल रो गया।। कहां का काबा है, दैर कैसा? बताओ कूचे का उसके रास्ता। मैं पूछता हूं पता कहीं का, निशां देते हो तुम कहीं का।। काज़ी बरहना-सर16 है, तो जख़्मी है मुहतसिब17। शायद कि पी गये हैं बहुत बादाख़्वार18 आज।। 1. बर्के आह- आह की बिजली; 2. रहजन- लुटेरे; 3. रहरवे मंजिल- साथ चलने वाला; 4. महमिले दिले मजनूं- मजनूं के दिल का हौदा; 5. मकीं- रहना; 6. रहन- गिरवी; 7. मयफ़रोश- मदिरा बेचने वाला; 8. पैरहन- पहनावा; 9. फस्ले खिजाँ- पतझड़ का मौसम; 10. तौबा शिकन- तौबा तोड़ने वाला; 11. ख़ुदनुमाई- अपनी नुमाईश; 12. किश्वरे अदम- अदम के मुल्क, परलोक; 13. मंजिले हस्ती- अपने अस्तित्व; 14. अब्र- बादल; 15. खाके गोर- कब्र की मिट्टी; 16. बरहना सर- बिना टोपी के, नंगे सिर; 17. मुहतसिब- शराब बन्दी का हाकिम; 18. बादाख़्वार- पीने वाले। मर्तबा पेशे-खुदा होता है उतना ही बुलंद। जिस कदर मिलता है इंसान सें इसां झुककर।। है यह ईमां कि चला चाहते हैं जेरे-जमीं1। चलते हैं मौसमे-पीरी2 में जो इंसा झुककर।। तौबा सौ बार मैं कर लूंगा कुछ इंकार नहीं। मैकशी से तो जरा हो मुझे फुर्सत वाइज।। कांपता खैफ़ से मस्तों का है रूआं-रूआं। कुछ जबां से नहीं तौबा की जरूरत वाइज।। तू जो रिन्दों3 की हक़ीक़त नहीं समझा न समझ। रिन्द समझते है तेरी खूब हक़ीक़त वाइज।। जामे-मय देख के जामे4 से हुआ तू बाहर। पीले दो घूंट तो क्या हो तेरी सूरत वाइज।। देख मयखाने में घनघोर घटा छाई है। सर पै मस्तों के है, अल्लाह की रहमत5 वाइज।। ऐसे पढ़ने से तो अच्छा था कि जाहिल रहता। न हया तुझमें है बाकी न मुरव्वत6 वाइज।। अब एक गज़ल मुलाहिज़ा7 फरमाईये जो एक जुदा ही रंग की है :- ऐ इन्कलाबे-दहर8 मिटाता है क्यों मुझे। नक्शे हजार मिट गये तब बना हूं मैं।। नामे वो बारी-बारी उश्शाक9 के पढ़ेंगे। उजलत10 में कुछ न होगा नम्बर लगे हुए हैं।। मैं जानता हूं बुलबुल है जो तेरी हक़ीक़त। इकमुश्ते-इस्तख्वां11 है दो पर लगे हुए हैं।। है हुक्मे-यार कोई मेरी तरफ़ न देखे। ये इश्तहार12 अब तो घर-घर लगे हुए हैं।। मुझ बेनवा-गदा13 को पूछे ‘अमीर’ वो क्या ? शाहों के उस गली में बिस्तर लगे हुए हैं।। 1. जेरे जमीं- जमीन के नीचे; 2. मौसमे पीरी- बुढ़ापे का समय; 3. रिन्दों- पी के मस्त रहने वालों; 4. जामे- अपने आपे (कपड़ों); 5. रहमत- दया; 6. मुरव्वत- प्रेम, सामंजस्य; 7. मुलाहिजा- देखिये/सुनिये; 8. इन्कलाबे दहर- संसार की क्रान्ति; 9. उश्शाक- आशिकों; 10. उजलत- जल्दबाजी; 11. इकमुश्ते इस्तख्वां- एक मुट्ठी हड्डियाँ; 12. इश्तहार- विज्ञापन; 13. बेनवा गदा- गरीब भिखारी। और अंत में उनके लिखे कुछ यादगार अशआर आप की नज़र करता हूँ- काज़ी भी अब तो आये हैं बज़्मेशराब में। साकी हजार शुक्र खुदा की जनाब में।। हाजत1 नहीं तो दौलते-दुनियां से काम क्या। फंसता है तिशना-दाम2 फ़रेबे-शराब3 में।। दिल साफ हो तो कशमकशे-दहर4 क्या करे। शोला है कब धुएं की तरह पेचोताब5 में।। परवा नहीं है हमको अगर हैं कफ़स में बंद। सैयाद, सैर बाग की करते हैं ख़्वाब में।। दुनिया से हाथ धोके कूए-यार में। जाइज6 नहीं कि तवाफ़े-हरम7 बेवज़ू8 करें।। दीवानगी का सिलसिला ताअत9 में भी न जाय। पहले पढ़ें नमाज तो पीछे वजू करें।। जाहिद तेरे फरिश्तों को यह दिन नहीं नसीब। जन्नत से दूर आये जो हम आरजू करें।। मैं उल्फत के वोह हुस्न के जोश में। न मैं होश में हूं न वो होश में।। न उठो अभी बज़्म से मयकशों। हमें भी तो आ लेने दो होश में।। यह वजह है जो आरिजेजानां10 पै है नकाब। करती है जिल्द खूब हिफ़ाज़त किताब की।। देखो तो इत्तहाद11 जरा हुस्नोइश्क़ का। बुलबुल के आंसुओं में है खुशबू गुलाब की।। तुम चौदहवीं का चांद हो तो अपने वास्ते। क्या फ़ायदा किसी को किसी के कमाल से।। इन दिनों दुख़्तरे-रिज़12 का नहीं मिलता है पता। कहीं काजी के तो घर जा के नहीं बैठ गई।। 1. हाजत- ज़रूरत, आवश्यकता; 2. तिशना दाम- तृष्णा के चक्कर; 3. फरेबे शराब- शराब के धोखे; 4. कश्मकशे दहर- दुनिया की कश्मकश; 5. पेचोताब- चक्कर; 6. जाइज- सही; 7. तवाफे हरम- काबे की परिक्रमा; 8. बेवजू-बिना वजू; 9. ताअत- पूजा, उपासना; 10. आरिजेजानां- माशूक के गालों; 11. इत्तहाद- एका, एकता; 12. दुख़्तरे-रिज़- अंगूर की बेटी। लिया जो ख़्वाब में बोसा तो यार जाग उठा। तमाम उम्र का हम एतबार खो बैठे।। बलाएं लेते ही वोह और हो गया वहशी1। हम अपने हाथों से अपना शिकार खो बैठे।। ये कज़ा है कि अदा आपकी सुभान अल्लाह। सफ2 उलटती है जो मस्जिद में जनाब आते हैं।। हजारों खार, लाखों फूल, उस गुलशन में हैं लेकिन। न तुम सा नाजनीं कोई न हमसा नातवां कोई।। भारी बहुत है लाऊंगा रोजे-ज़जा3 में रिन्द। रखवा के सर पै शेख के गठरी गुनाह की।। वाइज किताबेवाज़ लिए है तो क्या हुआ ? बोतल शराब की भी तो पिन्हा4 बगल में है।। समझा यह मैं जो निकले शाखों से गुल चमन में। सूफी निकल के बैठे हैं ख़िलवत5 से अन्जुमन6 में।। * 1. वहशी- दीवाना, पागल, जंगली; 2. सफ- कतार, पंक्ति; 3. रोज़े जज़ा- इंसाफ के दिवस; 4. पिन्हा- छिपी हुई; 5. ख़िलवत- अकेलापन, तन्हाई; 6. अन्जुमन- महफिल।
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